जो अपने समस्त कर्मों को मुझमें अर्पित करके (अनासक्त भाव से) मेरे
परायण होकर अन्नय भाव से ध्यान योग के द्वारा मेरी उपासना करते हैं, उन मेरे में ही स्थिर चित वाले भतत्रे को हे पार्थ!
मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-सागर से उद्धार करने वाला होता हूँ।
समस्या यह है कि व्यक्ति का मन सांसारिक विषय भोगों की ओर आकर्षित
होता रहता है परमात्मा की ओर नहीं जाता। यह चंचल मन कभी धन की ओर दौड़ता है तो कभी
किसी पद को प्राप्त करने के विचार से उधर छलांग लगा देता है। कभी रमणी के कमनीय
शरीर और सुन्दर मुख का ध्यान आ गया तो उस ओर ही चल दिया। कभी पुत्र, मित्र अथवा कार्य व्यापार के उद्देश्य से चक्कर
लगाने लगा। कभी शत्रु के अनुचित व्यवहार पर क्रोध की उत्पति हुर्इ तो कभी किसी
अपने से अधिक ऐश्वर्यवान के ऐश्वर्य से प्रतिस्पर्द्धा का उदगम हो गया। कभी अपने
छोटे मोटे अच्छे कार्यो की प्रशंसा से मतवाला होकर फूला-फूला फिरता है। इस प्रकार
यह मन स्वल्प समय में ही न जाने कहाँ-कहाँ घूम जाता है। किसी ने सत्य ही कहा है –
मन तो अति चंचल रहै, टिकै नाहिं इक
ठौर
लक्ष्मी और मन कहीं बंध कर नहीं रहते।
परन्तु यदि आध्यात्मिक उन्नति करनी है तो मन को बांधना ही होगा। यह
स्वच्छन्द मन कभी भी हमें भव बन्धनों से मुक्त नहीं होने देगा।
व्यक्ति तरह-तरह के साधन-अनुष्ठान करता है। भगवान की प्रसन्नता के
लिए बड़े-बड़े उत्सवों का आयोजन किया जाता है, कथा-कीर्तन
आदि किया जाता है। बहुत से भक्त नाचते कूदते, गलियों बाजारों
आदि में घूमते देखे जाते हैं। परन्तु उनमें ऐसे कितने हैं, जिनका
चित भगवान में एकाग्र हो पाता है? जो भीतर से स्त्री,
पुत्र, ऐश्वर्य, पद
व्यापार आदि में न उलझे हों।
बाहर से कितना भी गान, कीर्तन,
जन अनुष्ठान किया जाए लेकिन जब तक भीतर की शुद्धि न हो पाए, चित्त की निर्मलता-एकाग्रता न सध पाए व्यक्ति कभी भी भटक सकता है। यह एक
ज्वलन्त प्रश्न है। सामान्य व्यक्ति अपने घर परिवार व्यापार में उलझा हुआ है। तो
सन्त महन्त कथावाचक अपने आश्रम, चाहने वाले, चढ़ापा लाने वालों, प्रशंसा करने वालों के मोह में
उलझे हैं। क्या दुनिया में त्याग और वैराग्य का आदर्श ढूंढने से भी कहीं मिलता है?
क्या उस महान परिव्रज्या की परम्परा के दर्शन अब होते हैं जो कभी
शंकराचार्य जी ने संस्कृति दिग्विजय के उद्देश्य से कश्मीर से कन्याकुमारी तक की थी?
हर कोर्इ सुविधा भोगी बनना चाहता है सामान्य व्यक्ति तो खुलकर ऐशो
आराम का जीवन जीता है। परन्तु
महामंडलेश्वर, ब्रह्मज्ञानी, अवतारों के श्रेणी में माने जाने वाले बहुत से लोग पर्दे के पीछे भोग
विलास का जीवन जीते हैं। जिस दिन मीडिया या कोर्इ व्यक्ति उनके पर्दे के भीतर झांक
लेता है पोल खुलकर सामने आ जाती है। या तो सौदेबाजी से मामला दब जाता है या
व्यक्ति की जबान बन्द करा दी जाती है। ये सब मन के ही खेल हैं जो व्यक्ति को हर
स्थिति हर अवस्था में भ्रमित करने की
कोशिश करता है।
थोड़ो सा भी ध्यान में मन लगा कि माया ने अपना जंजाल रचना शुरू किया
अब तो तू बड़ा ध्यानी हो गया है चेहरे पर तेज भी आ गया है अब तेरे बहुत से चाहने
वाले भी बढ़ने लगे हैं एक नया आश्रम, नयी
संस्था बना। पांच दस वर्ष लगाकर थोड़ी बहुत ज्ञान की किताबें पढ़ ली तो मन ने पैदा
किया भ्रम कि तू बड़ा ज्ञानी हो गया, तेरे से अच्छे उपदेश
अच्छी कथा कोर्इ नहीं कर सकता, अब तो सारी दुनिया में तेरा
परचम लहराना चाहिए।
कुछ वर्ष भक्ति की व दो चार लोग प्रार्थना से स्वस्थ हुए तो मन ने
ताना बाना बुना अब तो मैं ही परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ पुत्र हूँ मेरी पुकार भगवान
सुनता है अब जो मैं कहूंगा जो मैं लिखूंगा मात्र वही सत्य है भगवान मेरे अन्दर ही
निवास करते हैं। मन इस तरह व्यक्ति को भ्रमित कर उसकी प्रगति में बाधा उत्पन्न कर
देता है।
साधक की प्रतिष्ठा बढ़ी, जन
सम्पर्क बढ़ा, महिलाओं का बड़ी संख्या में आगमन होना
प्रारम्भ हुआ तो बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है। जब तक आत्मज्ञान न हो जाए इस
संसार के रहस्य का पता न चल जाए। साधक को बड़ी सावधानी रखनी होती है।
यहां एक प्रसंग का वर्णन सटीक बैठता है। एक बार एक गुरू अपने शिष्य
को पेड़ पर चढ़ने उतरने की ट्रेनिंग दे रहे थे।
शिष्य बहुत ऊँचे पेड़ पर चढ़ गया व उतरने लगा गुरू चुप रहे। जैसे ही शिष्य
जमीन से कुछ दूर रह गया गुरू चिल्लाए ‘सावधान’शिष्य चौंका कि गुरू जी जब मैं इतना ऊपर चढ़ा व उतरा तब आप कुछ नहीं बोले
लक्ष्य से थोड़ी ही दूर हूँ अब क्यों बोल रहे हो। गुरू बोले बेटे पहले तो तू स्वयं
ही सावधान था लक्ष्य के निकट आने पर व्यक्ति सावधानी छोड़ देता है इसलिए मैंने
तुझको सावधान किया।
कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक परमात्मा न मिल जाए व्यक्ति पूरे
वैराग्य के साथ पूरी तत्परता व तन्मयता के साथ सावधानी से प्रसाय करते रहें। एक
साधक कुछ वर्षो तक अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन कर मौन जप कर रहे थे अचानक उनको संकल्प
सिद्धि का आभास हुआ। उनके संकल्प से लोगों के काम बनने लगे यहाँ तक की उनके
सम्पर्क से लोगों की कुण्डलिनी शक्ति भी जागने लगी।
अपनी सिद्धि पर उन्हें अभिमान हुआ व क्षेत्रो में उनका सिंहनाद
गूँजने लगा। राजनेता व सुन्दर महिलाएँ उन पर मंडराने लगे। कब उनका पैर फिसल गया
उन्हें पता ही न चला। कुछ ही माह में तो सब कुछ खो बैठे। देव शक्तियां जो एक समय
उनको अपना माध्यम बना रही थी अब रुष्ठ हो
गयी। चारों ओर उनकी बुरार्इयां होने लगी। लोग उनको ढोंगी, पाखण्डी करने लग गए।
लक्ष्य प्राप्ति तक विवके और वैराग्य को दृढ़ रख पाना नि:सन्देह बड़ा
ही कठिन है। साधना का रास्ता जटिल है। कठोपनिषद कहता है - क्षुरस्य धारा निशिता।
दुरत्यया दुर्ग पथस्तत् कवयो वदन्ति- कठ. 1.3.14)
यह मार्ग छुरे की धार के समान तीक्ष्ण व दुस्तर है। जैसे तेज धार के
छुरे के साथ असावधानी बरती जाए तो नुकसान हो जाता है वैसे ही यदि उच्चस्तरीय साधना
में यदि साधक सावधान न रहा तो वह लाभ के स्थान पर हानि ही उठाता है। उपनिषद कहते
हैं कि इस डर से कि पथ दुर्गम है। साधना को छोड़ता नहीं है वरण ऋषि कहते हैं कि
उठो, जागो और तब तक न रूको जब तक लक्ष्य न मिल जाए।
साधना का पथ जटिल क्यों है क्योंकि इसमें मन, बुद्धि व अंहकार के पार जाना होता है। प्रारम्भिक
स्तर पर मन को ही वश में करना कष्टदायी हो जाता है कहीं चटपटा भोजन कहीं भोग विलास
के साधन, ऐशो आराम का जीवन। यदि मन थोड़ा वश में आता है व
मनुष्य को कुछ उल्टे सीधे आध्यात्मिक अनुभव व
शक्ति मिलती है तो बुद्धि कहती है कि मैं बहुत ज्ञानवान हो गया हूँ अब तो
जो मैं कहूँगा लिखूँगा कात्र वही सत्य है दूसरे सब गलत हैं। अहं कहता है कि मुझे
सबकुछ मिल गया, मैं ब्रह्मज्ञानी, हो
गया शक्तिसम्पन्न हो गया । अब तो सारी दुनिया में मेरी पूजा होनी चाहिए। अपने मत
को, अपने अनुभव को, अपनी समझ को ही
सत्य मानने पर व दूसरे को गलत ठहराने पर खण्डन मण्डन का क्रम प्रारम्भ हो जाता है
जो मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति को रोक
देता है।
आत्मज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी जीते जी
अपने नाम के आगे बड़ी-बड़ी डिग्रियां व उपाधियों लगाना कभी पसन्द नहीं करते न ही
अपनी पत्रिकाओं में अपने चमत्कारों का वर्णन कर विज्ञापन कर advertise कराते फिरते हैं। थोथा चना बाजे घना वाली उक्ति यहां चरितार्थ होती है।
अपने जीते जी जो सन्त अपनी प्रशंसा छपवाते हैं, अपनी तरह-तरह
के पोजों में फोटो खिंचवाते हैं। वो फोटोएं पत्रिकाओं में, पोस्टरों
व बैनरों में भव्य तरीके से जनता को लुभाने के लिए प्रस्तुत की जाती है। निश्चित
रूप से वहां अभी पूर्णता का अभाव है। विज्ञापन व प्रलोभन द्वारा मछली फँसाने का
धन्धा चल रहा है।
एक बार स्वामी विवेकानन्द जी पवहारी बाबा से मिलने गए इन दिनों पवहारी बाबा जमीन के भीतर एक गुफा में तपस्या करते थे। कुछ खाते पीते नहीं थे इस कारण उनका नाम पवन का उपहार करने वाला अर्थात पवहारी पड़ गया। यदा कदा ही गुफा से बाहर आकर लोगों से मिलते थे। काफी प्रतिक्षा के उपरान्त स्वामी जी की उनसे भेंट हुर्इ। स्वामी जी उनके कठोर तप से बहुत प्रभावित थे व उनके समान साधनारत होना चाहते थे। स्वामी जी उनसे दीक्षा लेना चाहते थे। परन्तु बाबा जी ने स्वामी जी की इस इच्छा से सहमत नहीं हुए स्वामी जी ने बाबा जी के आग्रह किया कि वो जन कल्याण व भारत के परित्राण हेतु गुफा त्याग कर एक मिशन खड़ा करें। इस पर बाबा जी बोले क्या भारत में सम्प्रदायों, मिशनों की कोर्इ कमी है जो वो एक नया मिशन खड़ा करें। विस्तार से समझाने के लिए बाबा जी ने विवेकानन्द जी को एक लघु कथा सुनायी।
एक दुष्ट मनुष्य कुछ दुष्कर्म करते समय पकड़ा गया और दंड के रूप में उसकी नाक काट ली गयी। अपना नकटा चेहरा दुनिया को दिखलाने में लज्जा का अनुभव करने के कारण वह अपने से विरक्त होकर एक जंगल में भाग गया। वहाँ उसने एक शेर की खाल बिछायी और जब वह देखता कि कोर्इ आ रहा है, तो तुरन्त गंभीर ध्यान का ढोंग करके उस पर बैठ जाता। ऐसा करने से वह लोगों को दूर तो न रख सका,उलटे झुंड के झुंड लोग इस अदभुत महात्मा को देखने तथा उसकी पूजा करने के लिए आने लगे। उसने देखा कि यह अरण्यवास तो फिर उसके लिए जीवन निर्वाह का सरल साधन बन गया है। इस प्रकार कर्इ वर्ष बीत गये। अंत में उस स्थान के लोग इस मौनव्रतधारी ध्यान-परायण साधु के मुख से कुछ उपदेश सुनने के लिए लालायित हुए और एक नवयुवक उस ‘साधु’ के संप्रदाय में सम्मिलित होने के निमित्त दीक्षा लेने के लिए विशेष रूप से उत्सुक हो उठा। अंत में ऐसी स्थिति पैदा हुर्इ कि अधिक विलम्ब करने से साधु की प्रतिष्ठा भंग होने की आशंका हो गयी। तब तो एक दिन वह अपना मौन छोड़कर उस उत्साही युवक से बोला, ‘बेटा, कल अपने साथ एक तेज़ धारवाला उस्तरा लेते आना।’’ इस आशा से कि उसके जीवन की महान् आकांक्षा शीघ्र ही पूर्ण हो जायगी, उस युवक को बड़ा आनन्द हुआ और दूसरे दिन सबेरा होते ही वह एक तेज़ छुरा लेकर साधु के पास जा पहुँचा। फिर यह नकटा साधु उस युवक को जंगल में एक दूर निर्जन कोने में ले गया और एक ही आघात में उसकी नाक काट ली और गंभीर आवाज़ में बोला, ‘बेटा, इस संप्रदाय में मेरी दीक्षा इसी प्रकार हुर्इ थी और वही आज मैंने तुझे दी है। अवसर पाते ही तू भी उत्साह के साथ दूसरों को इसी दीक्षा का दान देना!’ लज्जा के कारण युवक अपनी इस अदभुत दीक्षा का रहस्य किसी के पास प्रकट नहीं कर सका और वह अपने गुरू के आदेश का पालन पूर्ण रूप से करने लगा। इस प्रकार होते होते देश में नकटे साधुओं का एक पूरा संप्रदाय बन गया! तुम्हारी क्या ऐसी इच्छा है कि मैं भी इसी प्रकार के एक और संप्रदाय की स्थापना कुरूँ?’’
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