18 ग्रेनेडियर का बहादुर सैनिक योगेंद्र सिंह यादव का शरीर 4 जुलार्इ 1999 को कारगिल के टाइगर हिल में क्षत-विक्षत निढाल पड़ा था। उसका शरीर पाकिस्तानी सैनिकों की 15 गोलियों से छलनी हो गया था। दुश्मन की गोलियों के आघात से उसकी बार्इं बाँह की हड्डियाँ टूटकर खाल के बाहर निकल आर्इ थी। एक पाँव बुरी तरह से जख्मी होकर बेकार हो गया था। शरीर की वरदी तार-तार हो चुकी थी और शरीर खून से लथपथ था। दुश्मन के हथगोले से नाक और चेहरे पर गहरे घाव हो गए थे और उसे दिखार्इ देना भी बंद हो गया था। ऊपर से 17,000 फीट की ऊँचार्इ पर स्थित टाइगर हिल का शून्य से नीचे 32 डिगरी सेंटीग्रेट का तापमान देह को जमाए दे रहा था।
योगेंद्र सिंह की जीवनयात्रा समाप्तप्राय थी, प्ररंतु दुस्साहसी योगेंद्र अभी भी दुश्मन को खदेड़ने एवं मार भगाने की योजना बुन रहे थे, लेकिन उनका शरीर निष्प्राण हो चुका था। रेंग-रेंगकर ही काम चल रहा था। शरीर से भारी मात्रा में खून बह चुका था, परंतु आश्चर्य की बात तो यह थी कि वह अभी भी निस्तेज एवं चेतनाशून्य नहीं हुए थे। इसी समय एक कोहरे के बीच सूर्य के समान प्रज्वलित एवं ज्योतिर्मय एक दिव्य आकृति उभरी। बंद आँखें खुलने लगीं। देह का प्राणांतक कष्ट भूल गया। वह दिव्य आकृति और भी स्पष्ट होने लगी। योगेंद्र सिंह ने अपने घर आए पत्रकारों से कहा- ‘‘ऐसा दिव्यता तो मैंने कभी अनुभव नहीं की थी। हाँ, वह आकृति को देखते ही मेरे अंदर अतिमानवीय एवं दैवीय शक्ति हिलोरें लेने लगी, जैसे मुझे कुछ हुआ ही न हो।’’
योगेंद्र ने कहा - ‘‘मैं उन्हें देखता जा रहा था और मेरी देह में प्राणों के संचार के कारण अद्भुत आनंद का संचार हो रहा था। उस दैवी शक्ति ने मुझे हिंदुस्तान की ओर जाने का पथ प्रदर्शन किया और कहा- पुत्र! तुम चिंता मत करो। तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। तुम मेरी संतान हो। तुम वीरों की कुरबानी और शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी। दुश्मनों को यहाँ से भागना ही पड़ेगा और उसका मुख्य आधार तुम बनोगे। वे और अधिक समय तक यहाँ नहीं ठहर पाएँगे। तुम एक काम करो। तुम नीचे की ओर लुढ़क जाओ। इतना कहकर वह आकृति कोहरे के बीच अदृश्य हो गर्इ, परंतु मेरा मन, प्राण एवं देह आनंद और पुलकन से रोमांचित हो रहा था।’’
योगेंद्र की कथा किसी आश्चर्यजनक तिलस्मी कथा से कम नहीं लग रही थी। सभी पत्रकार इस अविश्वसनीय एवं अविस्मरणीय साहसी घटना को सुनकर रोमांचित हो रहे थे। फिर योगेंद्र सिंह ने कहा- ‘‘परंतु समस्या थी कि उन बरफ से ढकी चट्टानों पर से नीचे लुढ़का कैसे जाए? बार्इं बाँह से हड्डियाँ बाहर निकल रही थी। वे लुढ़कने में अत्यंत बाधक बन रही थी। मैंने उन्हें तोड़ने का अथक प्रयास किया, पर वे टूटी नहीं, क्योंकि वे मांसपेशियों से जुड़ी हुर्इ थीं। अपने शरीर से बाँध लिया। खड़ा होना संभव नहीं था, इसलिए 17,000 फीट ऊँची बरफानी चोटी से धीरे-धीरे नीचे रेंग-रेंगकर लुढ़कना प्रारंभ किया। देर तक लुढ़कता रहा, शरीर छिल गया था, परंतु उसकी परवाह नहीं की। बहुत दूर तक लुढ़कने के बाद अचानक मेरी राह में एक गड्ढा आया और मैं उस गड्ढे में अपने दाएँ हाथ के सहारे लटक गया। फिर मुझे अपने साथियों की आवाज सुनार्इ दी, जो गोलाबारी के कारण ऊपर नहीं चढ़ पाए थे और एमñएमñजीñ पोस्ट पर वापस जा रहे थे। मैंने उन्हें आवाज देने का प्रयास किया, परंतु आवाज थी कि अंदर से निकल नहीं पा रही थी। अपने समस्त प्राणों को झोंककर मैंने उन्हें आवाज दी।’’
योगेंद्र ने पत्रकारों से आगे कहा - ‘‘मैं अभी तक जीवित था। यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था। उस दिन मुझे पता चला कि भगवत्कृपा क्या होती है। मैंने कर्इ बार सपना देखा और सभी सपनों में मैंने श्वेत वस्त्रधारी दिव्य भारतमाता को आशीवर्चन देते देखा। वह कहती थी- पुत्र! तुझे मैंने चुना है। तुझे महत्वपूर्ण कार्य करना है और इस कार्य के कारण आततायी एवं अधर्मी दुश्मनों को हराकर तुम लोग इस हिमशिखर पर विजयी तिरंगा फहरा सकोगे। तुम चिंता मत करना, तुम्हारे खून का हर कतरा मेरे लिए बेशकीमती एवं बहुमूल्य है। इसे मैं व्यर्थ नहीं जाने दूँगी। तुम्हें जिंदा रहना है। आवश्यक साहस, शक्ति एवं ऊर्जा तुम्हें मिलती रहेगी।’’
योगेंद्र ने कहा- ‘‘दिव्य देहधारी भारतमाता को याद करने मात्र से मैं रोमंचित हो उठता था और यही कारण था कि मैं अपना सर्वस्व झोंक देता था, मौत की परवाह किए बगैर। मेरा एक-एक पल, एक-एक क्षण महत्त्वपूर्ण था। मेरी आवाज को सुनकर मेरे साथी जवानों ने आकर मुझे ढूँढ़ा और गड्ढे में से बाहर निकाला। मेरे विदीर्ण एवं भयानक शरीर को देखकर वे घबरा गए। खून था कि रूकने का नाम नहीं ले रहा था। वे भी आश्चर्य चकित थे कि मैं इस हाल में भी जिंदा हूँ। मैंने उनसे कहा- अभी घबराने की आवश्यकता नहीं है। आप लोग मुझे यथाशीघ्र एमñएमñजीñ पोस्ट ले चलो। पाकिस्तानी हमला करने वाले हैं और यदि इस बार उनके हमले को विफल नहीं किया गया तो भारी तबाही मच जाएगी, मैंने आगे कहा- मेरे शरीर के पाँव, छाती, जाँघ और बाँहों में 15 गोलियाँ लगी हैं। जख्मों से खून बह रहा है। जवान जब मुझे पोस्ट ले आए, तब वहाँ मैं कैप्टन सचिन और लेफ्टिनेंट बलवान को रात की सारी घटना बताने लगा- सर! ळमारी पलटन को कारगिल की चोटियों पर पाकिस्तानियों के तीन बंकर को जीतने का आदेश दिया गया था। हम प्रात: साढ़े पाँच बजे एक चट्टान तक पहुँचे, जिस पर चढ़ने के लिए रस्सियाँ बाँधना आवश्यक था। रास्ता रोक दिया। मैं चट्टान पर चढ़ गया और अपने साथियों के लिए रसिसयाँ बाँध दी। हम सात जवान ही ऊपर चढ़ पाए। उनमें से एक हवलदार कमांडर उदयसिंह, मेरे मित्र सुनील पांडे, अनंतराम, राजकुमार तथा दो और जवान। शेष साथी भारी गोलाबारी के कारण ऊपर नहीं चढ़ पाए। हम सातों को ही यह जंग जीतनी थी, हमारे अंदर मौत से जूझने का जुनून पैदा हो गया था और मैं सिर पर कफन बाँधे दुश्मनों को ठिकाने लगाने के लिए टाइगर हिल पर चढ़ने के लिए एक खड़ी चट्टान पर चढ़ने लगा। दुश्मनों ने मेरे ऊपर गोलियाँ दाग दी और मेरी जाँघ और बाएँ कंधे में तीन गोलियाँ लगी और खून का फौवारा फूट पड़ा। भी”ाण दर्द के बावजूद अपार साहस एवं शक्ति से भरा मैं बरफानी ढाल के अंतिम 60 फीट चढ़कर चोटी पर पहुँच गया। मैं रेंगते हुए दुश्मन के पहले बंकर तक गया और अपने दाएँ हाथ से कुछ हथगोले अंदर फेंककर बंकर के अंदर चार पाकिस्तानी घुसपैठी सैनिकों को मौत के हवाले कर दिया।’’
फिर वीर योगेंद्र ने लोमहष्रक दृश्य के बारे में बताया- ‘‘हमने पहले बंकर को आसानी से जीत लिया। अब दुश्मनों को पता चल गया कि कोर्इ बड़ा दुश्मन ऊपर चढ़ आया है। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि कोर्इ इस भीषण एवं ऊँची बरफानी खार्इ को चढ़कर पहुँच जाएगा। उन्हें लगा था कि वे अजेय है, लेकिन हमारी जाँबाजी एवं जज्बे के बारे में वे कायर क्या जानें! डनको तो पीठ पीछे लड़ने की आदत है। अपने घावों की परवाह किए बिना मैंने अपने दो साथियों के साथ उनके ऊपर हमला कर दिया। अब लड़ार्इ आमने-सामने की थी, जिसमें मैंने तीस दुश्मनों को मार गिराया। अब हम आगे बढ़े और ऊपर चढ़ने लगे। अँधरे में कुछ दूर पर मैंने चार दुश्मनों को देखा। मैं उनकी ओर रेंग कर गया और उन पर हथगोला फेंक दिया। वे चारों भी वहीं समाप्त हो गए। उनके पास जाकर देखा तो उनकी साँसे चल रही थी। मैंने उनकी बंदूक उठा ली। उन्हीं की बंदूकों से उनको मारकर समाप्त कर दिया। मैं गोलियाँ दागते हुए बर्फ की चट्टानों से ऊपर चढ़ रहा था। ऊपर एक बंकर देखा, जिसमें लगभग बीस घुसपैठिये सैनिक जमे हुए थे। हमने उन सबको हथगोलों और गोलियों के द्वारा मारकर माँ काली के पास भेज दिया तथा बंकर को कब्जे में ले लिया।’’
‘‘अब तो पाकिस्तानी सैनिकों को पूरी तरह से पता लग गया था कि हम लोग वहाँ पहुँच चुके हैं। दुश्मन से करीब 60 जवानों के साथ हमारे ऊपर जवाबी हमला किया। वे पत्थरों और गोलियों की बौछार करते हुए हमारे समीप आ गए। सबसे पहले उन्होंने हमारी लाइट मशीनगन पर गोलियाँ चला कर उसे बेकाम कर दिया। हम लोग मशीनगन की मरम्मत कर ही रहे थे कि दुश्मनों ने फिर से हथगोले फेंक दिए। एक हथगोला मेरे और सुनील पांड़े के बीच में फटा। इससे मेरे दाएँ हाथ की ऊँगली उड़ गर्इ। हमने मोर्चा सँभाला ही था कि दुश्मन ने मेरी और एक और हथगोला फेंका। उसकी किरचों से मेरे पैर में घाव हो गया। जब मैं घाव में पट्टी बाँध रहा था तब एक तीसरे हथगोले से मेरे नाक और चेहरे पर गहरे घाव हो गए और किरचों के आँख में जाने से मुझे दिखार्इ देना भी बंद हो गया, लेकिन इस दौरान मैं पूरी तरह चैतन्य था। मेरी वर्दी खून से लथपथ हो चुकी थी। मैंने अपने एक साथी से अपनी नाक पर पट्टी बाँधने को कहा। जब वह पट्टी बाँध रहा था कि दुश्मन की एक गोली ने उसे खत्म कर दिया। मैंने अगले साथी से कहा- देखो, इसे गोली लग गर्इ है, वह मेरे पास आ ही रहा था, कि एक गोली से वह भी मारा गया।’’
‘‘हमारे सात वीरों में से दो शहीद हो चुके थे और दो घायल। इसी बीच हमने दुश्मनों को जबरदस्त टक्कर देकर उनके 25 सैनिकों को मार गिराया। हम लोग अप्रतिम वीरता एवं प्राणों की बाजी लगाए पाँच घंटे उनसे लड़ते रहे। इसी बीच दुश्मनों का एक दस्ता खोज खबर लेने आया। हमने उनमें से नौ को मार डाला, परंतु दो बचकर निकल गए और अपने अफसरों का बता दिया कि हम लोग केवल पाँच जवान हैं, जिन्होंने उनके सैंकड़ों जवानों की इहलीला समाप्त कर दी है। पाकिस्तानियों ने हमको चारों ओर से घेरकर आक्रमण कर दिया। एक ही पल में मेरे साथी मारे गए। मैं इतना उत्तोजित था कि मुझे कोर्इ पीड़ा नहीं हो रही थी। मैं अपनी अंतिम साँस तक लड़ना चाहता था। अब दुश्मनों ने मुझे गालियाँ देनी शुरू कीं तथा मेरे मृत साथियों की लाशों को गोलियाँ मारना शुरू किया। उन्होंने मेरे बाएँ हाथ में तीन और दाएँ पाँव में तीन गोलियाँ मारी। इसके बाद एक गोली मेरे सीने में मारी। परंतु दैवीय कृपा थी कि इस स्थान पर जेब में कुछ सिक्के थे, जो सब एक जगह इकट्ठे हो गए थे। गोली उनसे टकरार्इ और दूसरी ओर छिटक गर्इ। मैं मरने का नाटक कर रहा था। उन्होंने मुझे भी मरा मान लिया। मुझे लगा कि मैं अब तक नहीं मरा तो अब नहीं मरूँगा।’’
योगेंद्र ने आगे बताया- ‘‘हम सब को मारने के बाद वे वापस जा रहे थे। मेरे पास एक हथगोला था और उसे मैंने उस ओर फेंका, जिधर से पाकिस्तानी सैनिकों की आवाजें आ रही थी। इसके बाद मैंने रेंगकर अंदाज से स्वचालित राइफल उठा ली तथा उस ओर उन पर गोलियाँ चला दी। मैंने उनमें से कुछ को मार गिराया, कुछ उनमें से घायल हो गए। और शेष भाग गए। अब मैं अपने क्षत-विक्षत शरीर के साथ सबसे अकेला हो गया था। सभी मेरा साथ छोड़ चुके थे, परंतु मेरी भारतमाता मेरे साथ थी, जिन्होंने मुझे उस बफीर्नी चोटी से लुढ़क जाने को कहा। इसी कारण मैं वहाँ से किसी तरह रेंगकर नीचे आ पाया।
योगेंद्र सिंह ने पत्रकारों से कहा- ‘‘मरने का ढोंग करते समय मैंने दुश्मनों की सारी रणनीतियों को सुन लिया था और चोटी से नीचे उतरने के बाद उसे मैंने अपने अफसरों को बता दिया। इसके पश्चात् मैं अस्पताल में 16 महीने तक मौत के साथ अठखेलियाँ करता रहा। 19 व”र की आयु में मुझे अपने देश के तत्त्कालीन राष्ट्रपति केñआरñ नारायणन ने सेना का सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र प्रदान किया।’’
योगेंद्र कह रहे थे- ‘‘यह सम्मान मेरी माँ भारतमाता को समर्पित है।’’ इतना कहकर वे शून्य आकाश में अपलक कुछ ढूढ़ने लगे।
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