Monday, June 25, 2012

त्रैलंग स्वामी- Trialanga Swami -Walking Shiva of Kashi

     300 वर्ष तक जीवित रहे एक निर्वस्त्र बाबा के चमत्कारों को देख काशी में आए तीर्थ यात्री एवं वहाँ की जनता आश्रय चकित हो जाती थी। इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होंने कई बार विष पिया परन्तु इनके शरीर के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। 300 पौंड के (लगभग 140 किलोद) वजन के ये विशाल शरीरधारी योगी कभी-कभार ही कुछ खाया करते थे। इनका शरीर बहुत विशाल था कई बार गंगा के ऊपर बैठे रहते और कई-कई दिन के लिए गंगा नदी के अन्दर रहते। गर्मी के दिनों में भी दिन के समय कड़ी धूप पर मणिक£णका घाट की कड़ी शिलाओं पर बैठे रहते थे। एक योगी का शरीर भूखप्याससर्दीगर्मी एवं प्रकृति के बन्धनों से पूर्णतः मुक्त हो सकता है इनका जीवन इसका साक्षात प्रमाण था। इनके वास्तविक जन्म के विषय में अधिक जानकारी नहीं है। वाराणसी में ये 1737-1887 तक रहेइससे पूर्व इन्होंने नेपाल के जंगलों में 100-125 वर्ष कठिन साधना की। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी भी काशी में उनसे मिले और उनको चलते-फिरते काशी के शिव (Walking Shiva of Kashi) की संज्ञा दी।
     त्रैलंग स्वामी सदा मौन धारण किये रहते थे। निराहार रहने के बाद भक्त यदि कोई पेय पदार्थ लाते तो उसे ही गृहण कर अपना उपवास तोड़ते थे। एक बार एक नास्तिक ने एक बाल्टी चूना घोलकर स्वामी जी के सामने रख दिया और उसे गाढ़ा दही बताया। स्वामी जी ने तो उसे पी लिया किन्तु कुछ ही देर बाद नास्तिक व्यक्ति पीड़ा से छटपटाने लगा और स्वामी जी से अपने प्राणों की रक्षा की भीख मांगने लगा। त्रैलंग स्वामी ने अपना मौन भंग करते हुए कहा कि तुमने मुझे विष पीने के लिये दियातब तुमने नहीं जाना कि तुम्हारा जीवन मेरे जीवन के साथ एकाकार है। यदि मैं यह नहीं जानता होता कि मेरे पेट में उसी तरह ईश्वर विराजमान है जिस तरह वह विश्व के अणु-परमाणु में है तब तो चूने के घोल ने मुझे मार ही डाला होता। अतः फिर कभी किसी के साथ चालाकी करने की कोशिश मत करना। त्रैलंग स्वामी के इन शब्दांे के साथ ही वह नास्तिक कष्ट मुक्त हो गया।
     एक बार परमहंस योगानन्द के मामा ने उन्हें बनारस के घाट पर भक्तों की भीड़ के बीच बैठे देखा। वे किसी प्रकार मार्ग बनाकर स्वामी जी के निकट पहुँच गये और भक्तिपूर्ण उनका चरण स्पर्श किया। उन्हें यह जानकर महान् आश्चर्य हुआ कि स्वामी जी का चरण स्पर्श करने मात्र से वे अत्यन्त कष्टदायक जीर्ण रोग से मुक्ति पा गये। काशी में गंगा के एक ओर अंग्रजों का राज्य था और दूसरी ओर भारतीय राजाओं का राज्य था। स्वामी जी निर्वस्त्र गंगा नदी के दोनों और बेरोक-टोक घूमा करते थे जिससे गंगादर्शन करने आए टप्च् लोगों को परेशानी होती थी एक बार कुछ अंग्रेज पंचगंगा घाट पर कुछ महिलाओं के साथ टहलने आए। त्रैलंग स्वामी को देख बड़े क्रोधित हुए एवं जिलाधीश को कहकर कारागार में बंद करवा दिया। कुछ देर पश्चात् उन अंग्रेजों को स्वामी जी पुनः बाहर घूमते दिखाई दिए। जिलाधीश सिपाही की लापरवाही से नाराज होकर स्वयं जेल का निरीक्षण करने गए। जिलाधीश ने सोचा कि हिन्दू सिपाहियों ने साधुओं को जेल से बाहर निकाल दिया व उनसे झूठ बोल रहे हैं। स्वामी जी पुनः हवालात में बन्द कर दिए गए व कड़ा पहरा लगा दिया गया। जिलाधीश महोदय उस दिन अपने कमरे में एक मुकदमे की बहस को सुन रहे थे कि अचानक उन्होंने देखा कि कमरे के एक कोने से स्वामी जी निकल कर उनके सामने खड़े है। उसे हक्का-बक्का देखकर स्वामी जी ने कहा- पश्चिम के नास्तिक भारतीय योगियों के बारे में जानते ही कितना हैतुम लोगों में इतनी शक्ति नहीं है कि मुझे बन्द करके रख सको। भविष्य में किसी सन्त के साथ ऐसा व्यवहार मत करना वर्ना उसके कोप से बच नहीं सकोगे।“ स्वामी जी को देखकर एवं चेतावनी सुनकर जिलाधीश महोदय बेहोश हो गए चारों तरफ तहलका मच गया व स्वामी जी अन्तर्धान हो गए। होश में आने के बाद उन्होंने फैसला दिया कि काशी में साधुसन्ततपस्वीयोगी कहीं भी किसी भी रूप में रहने को स्वतन्त्र हैं उनके साथ शासन की ओर से किसी प्रकार की छेड़छाड़ न की जाए। 
     स्वामी जी के ड्डपा से बहुत लोग रोगों एवं कष्टों से मुक्ति पाते थे। अम्बालिका नामक एक महिला स्वामी जी को साक्षात् विश्वनाथ बाबा समझ कर फल-फूल अ£पत करती थी। उसकी एक ही बेटी थी-शंकरी। माँ की भक्ति देखकर वह भी बाबा के प्रति असीम श्र(ा रखती थी। इन्हीं दिनों काशी में चेचक फैला व शंकरी इस रोग की चपेट में आकर मौत की ओर बढ़ने लगी। शंकरी की आवाज बंद हो चुकी थी माँ ने सोचा अब यह नहीं बचेगी एवं अपनी बेटी के सिरहाने बैठ कर रोने लगी। कुछ समय पश्चात् शंकरी बोली-माँ तुम क्यों रो रही हो?“ बेटी की आवाज सुन माँ चैंकी व आँसू पोंछते हुए बोली-तेरी दयनीय स्थिति से मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है पता नहीं क्यों स्वामी जी भी ड्डपा नहीं कर रहे है कितने ही लोगों पर उन्होंने ड्डपा की है पर मैं बड़ी ही अभागिन हँू“ लड़की ने चकित भाव से कहा-नहीं माँ स्वामी जी तुम्हारे पास ही खड़े हैं देखो।“ माँ ने चारों ओर देखा पर कहीं कुछ दिखाई नहीं दिया। उसने सोचा लड़की का मस्तिक फिर गया है वह बोली-कहाँ है स्वामी जी?“ माँ कह बातें सुनकर शंकरी ने माँ का हाथ पकड़कर स्वामी जी के चरणों में लगा दिया। तब उन्हें त्रैलंग स्वामी के साक्षात् दर्शन हुए व स्वामी जी ने आश्वासन दिया, ”घबराओं नहीं बेटी शंकरी शीघ्र स्वस्थ हो जाएगी।“ कुछ दिनों पश्चात् शंकरी पूर्ण रूप से ठीक हो गई। इस घटना ने माँ बेटी के जीवन में बहुत परिवर्तन ला दिया एवं शंकरी बड़े हो कर साधना के सोपानों को चढ़ कर सि( अवस्था तक पहुँच गई। योगानन्द परमहंस शंकरी माई के विषय में अपनी प्रिय पुस्तक में लिखते हैं- इस ब्रह्मचारिणी का जन्म 1826 में हुआ था वे 40 वर्षों तक बद्रीनाथकेदारनाथपशुपति नाथअमरनाथ के पास हिमालय की अनेक गुफाओं में रही। अब उनकी उम्र 100 वर्ष से अधिक है परन्तु दिखने में वृ(ा नहीं लगती। उनके केश पूर्णतः काले हैं दाँत चमक दार हैं और उनमें गजब की फू£त है। वे कुम्भ जैसे धा£मक मेलों में शामिल होने के लिए कभी-कभी एकान्तवास से बाहर आती हैं। यह महिला तपस्विनी प्रायः लाहिड़ी महाश्य के पास आया करती थी। उन्होनें बताया कि एक बार वे कोलकाता के निकट बैरकपुर स्थान पर लाहिड़ी महाश्य के पास बैठी थीतब लाहिड़ी महाश्य के गुरु बाबा जी उस कमरे में आए और दोनों के साथ वार्तालाप किया। वे स्मरण कर बताती हैं -अमर गुरुदेव ;बाबा जीद्ध एक गीला वस्त्र पहने हुए थे जैसे वे नदी में स्नान करके बाहर आए हों।“ उन्होनें मुझपर कुछ आध्यात्मिक उपदेशों की ड्डपा भी की। कुम्भ मेला हरिद्वार सन् 1938 में इनका आगमन हुआ इस समय इनकी आयु 112 वर्ष की थी।
     स्वामी जी का जन्म सन् 1607 ई. में आन्ध्र प्रदेश के विशाखापटटनम् के खोलिया नामक गाँव में हुआ था बचपन में इनके दो नाम रखे गए। शिवराम एवं त्रैलंगधर उम्र बढ़ने के साथ-साथ इनमें पूजा-पाठ एवं ध्यान साधनाओं में रूचि बढ़ती गई। अक्सर ये समीप के बाग में पीपल के नीचे आँख बंद किए ध्यान लगाते थे एवं इनके आस-पास एक साँप घूमता था। जिससे इनके समीप जाने की हिम्मत कोई नहीं कर पाता था लोगों को ये विश्वास होने लगा था शिवराम के रूप में घर में किसी सि( पुरुष ने जन्म लिया है। विवाह के लिए इन्होंने अपने परिवार वालों को स्पष्ट रूप से मना कर दिया कि उन्हें यह सब झंझट पसन्द नहीं। माँ के निधन के पश्चात् इनके स्वभाव में विचित्र परिवर्तन आया। शमशान के जिस स्थान पर माँ की क्रिया हुई थी ये वहीं रहने लगे। परिवार वालों के समझाने पर भी वापिस नहीं आए। परिवार वालों ने इनके लिए वहीं एक कुटिया बनवा दी एवं ये वहीं साधना करते रहे। लगभग 70 वर्ष की उम्र में भागीरथ नाम एक योगीराज इनके पास आए एवं इनको अपने साथ भ्रमण के लिए ले गए। अब इनका नाम दीक्षा के पश्चात् गजानन्द सरस्वती हुआ व साधना के द्वारा इनको )(ियाँ-सि(ियाँ प्राप्त हुई। ये जहाँ भी जातेऋ द्रवित हृदय से लोगों को मुसीबतों से निकाल देते! इससे इनकी प्रसि(ि बढ़ती जाती। अनेक लोग इनके पीछे हो लिए जिससे इनकी साधना में विघ्न पड़ने लगा। अब इन्होंने निश्चय किया ऐसी जगह जाकर साधना करेंगे जहाँ कोई परिचित न मिले विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुए स्वामी जी नेपाल चले आए और बस्ती से दूर एक स्थान पर साधना करने लगे। बहुत वर्षों तक आपने यहाँ कठोर साधना की। यहाँ भी एक ऐसी घटना घटी जिससे आप की प्रसि(ि पूरे नेपाल में फैल गई।
     नेपाल नरेश को शेर के शिकार का शौक था। शेर का पीछा करते-करते उस स्थान पर चले आए जहाँ स्वामी जी साधनारत थे। गोली चलाने पर निशाना चूक गया। ध्यान से देखने पर पता चला कि शेर स्वामी जी के पैरों के पास शान्ति पूर्वक बैठा हुआ है व स्वामी जी उसके शरीर पर हाथ फेर रहे हैं। नेपाल नरेश व सैनिकों को नजदीक आता देख शेर गुर्राने लगा। स्वामी जी ने शान्त भाव से कहा- इससे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है यह शेर यहाँ से तब तक नहीं उठेगा जब तक मैं इसे आज्ञा न दूँ। जब आप किसी को प्राण दे नहीं सकते तो लेने का अधिकार भी नहीं ह,ै हिंसा करना उचित नहीं हैआप वापिस चले जाओ राजन्। शेर जंगल में अपनी जगह वापिस चला गया व नेपाल नरेश अपने महल में। परन्तु नेपाल नरेश की रात की नींद हराम हो गई। उनकी आँखों के सामने वही दृश्य घूमता रहा कि उनके राज्य में एक सन्त ऐसा भी है जिसके पास जंगली शेर पालतू बिल्ली की तरह बैठा रहता है। दूसरे दिन प्रातःकाल ही अनेक उपहार लेकर वे स्वामी जी की सेवा में हाजिर हुए। स्वामी जी ने मुस्करा कर कहा- राजन् मैं आपकी भक्ति से प्रसन्न हँू परन्तु फकीर होने के कारण मुझे इनकी आवश्यकता नहीं है यह सामग्री गरीब व जरूरतमंद लोगों में बाँट दो। इससे आपका व आपके राज्य का कल्याण होगा। धीरे-धीरे ये समाचार आस-पास व चारों ओर फैल गया और इनके पास रोगीस्वार्थी लोगों की भीड़ आने लगी। तत्पश्चात् आपको वह स्थान छोड़ना पड़ा एवं आप तिब्बत की ओर चल पड़े। काफी वर्षों तक आपने तिब्बत एवं मानसरोवर में योगाभ्यास किया अपनी साधना पूर्ण करने के उपरान्त आप फिर से यात्रा के लिए निकल पड़े। कुछ वर्ष प्रयाग रहने के पश्चात् आप काशी नगरी में आ गए। इस समय काशी औरंगजेब के अत्याचारों से त्रस्त थी विश्वनाथ मन्दिर ध्वस्त कर दिया था और नगर की जनता आतंकित और संकटों से घिरी थी।

     यहीं रहकर आपने अपनी आध्यात्मिक शक्तियों से लोगों की साधना की ओर प्रेरित किया। कहते हैं सन् 1870 में दयानन्द सरस्वती जी भी काशी आए थे एवं आर्य समाज की स्थापना की। त्रैलंग स्वामी जी ने निकट कुछ भक्त लोग आए व उन्होंने सनातन धर्म के विरु( होने वाले भाषणों के साथ अपनी यथा का उल्लेख किया। सारी बातें सुनने के बाद त्रैलंग स्वामी ने एक कागज पर कुछ लिखा व दयानन्द सरस्वती जी के पास भिजवा दिया। कहा जाता है उस पत्र को पाते ही दयानन्द जी काशी छोड़ कर अनयत्र चले गए। त्रैलंग स्वामी जी के कई शिष्यों ने उनकी अनेक विभूतियों का जिक्र किया है जिनका विवरण देना सम्भव नहीं है। अचानक एक दिन काशी के नागरिक एक मा£मक समाचार सुनकर स्तब्ध रह गए है। त्रैलंग स्वामी जी समाधी लेने वाले हैं ये समाचार नगर में एक छोर से दूसरे की ओर फैल गया जो जहाँ था पंचगंगा घाट की ओर आने लगा सन् 1887 को पौष शुक्ल एकादशी के दिन पूर्ण चेतन अवस्था में स्वामी जी समाधिस्थ हो गए एवं नश्वर शरीर त्याग दिया। बाबा के शरीर को एक सन्दूक में रख कर एक नि£दष्ट स्थान पर गंगा गर्भ में विस£जत कर दिया गया। घाट किनारे खड़ी जनता अपने अश्रुओं से उन्हें भाव-भरी विदाई देती रही। आज भी पंचगंगा घाट पर स्वामी जी की भव्य मू£त व आश्रम श्र(ालु जनता को आक£षत करता है एवं योग साधना के पथ पर चलकर जीवन को धन्य बनाने की प्रेरणा देता है।
From my book "साधना समर "


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