लाहिड़ी महाशय के जीवन के तैंतीसवें वर्ष में उस उद्देश्य की पूर्ति हुर्इ, जिसके लिये उन्होंने इस धरा पर पुन: जन्म लिया था। हिमालय में रानीखेत के पास उनकी मुलाकात अपने महान् गुरु बाबाजी से हुर्इ और उन्हें क्रियायोग की दीक्षा मिली।
वह पवित्र घटना केवल लाहिड़ी महाशय के साथ ही नहीं घटी, बल्कि पूरी मानव जाति के लिये वह अत्यंत पवित्र क्षण था। योग की लुप्त हुर्इ या दीर्घ काल तक अज्ञात रही सर्वोच्च विद्या पुन: प्रकाश में लायी गयी।
पौराणिक कथा में जिस प्रकार गंगा ने स्वर्ग से पृथ्वी पर उतर कर अपने तृषातुर भक्त भगीरथ को अपने दिव्य जल से संतुष्ट किया, उसी प्रकार 1861 में क्रियायोग रूपी दिव्य सरिता हिमालय की गुह्म गुफाओं से मनु”यों की कोलाहलभरी बस्तियों की ओर बह चली।
लाहिड़ी महाशय ने बताया था : ‘‘बाबाजी के साथ मेरी पहली भेंट मेरे तैंतीसवे वर्ष मे हुर्इ थी 1861 के शरद ऋतु में मैं दानापुर में सरकार के मिलिटरी इंजिनियरिंग विभाग में एकाउण्टेण्ट के पद पर कार्यरत था। एक दिन सुबह ऑफिस मैनेजर ने मुझे अपने ऑफिस में बुलाया।
‘‘‘लाहिड़ी’, उन्होंने कहा, ‘अभी-अभी हमारे मुख्यालय से एक तार आया है। आपका स्थानांतरण रानीखेत कर दिया गया है, जहाँ सेना का एक कैम्प स्थापित किया जा रहा है।’
‘‘एक नौकर को साथ लेकर मैं उस 500 मील की यात्रा पर निकल पड़ा। घोड़े और बग्घी से यात्रा करते हुए हम लोग तीस दिन में हिमायल में स्थित रानीखेत पहुँच गये।
‘‘ऑफिस में मेरा काम बहुत भारी नहीं था, अत: उन भव्य पर्वतों में कर्इ घंटों तक घूमते रहने का समय मेरे पास था। एक अफवाह मैंने सुनी कि बड़े-बड़े सन्त उस क्षेत्र में निवास करते थे। उनके दर्शन की तीव्र इच्छा मेरे मन में जागी। एक दिन दोपहर में मैं पहाड़ों में यूँ ही भ्रमण कर रहा था, कि अचानक ऐसा लगा कि दूर कहीं से कोर्इ मेंरा नाम लेकर मुझे पुकार रहा है। मैं चौंक गया। द्रोणगिरि पर्वत पर जल्दी-जल्दी चढ़ते जाना मैंने जारी रखा। यह सोचकर मन में थोड़ी सी बेचैनी अवश्य हो रही थी कि जंगल में अन्धेरा छा जाने से पहले मैं वापस नहीं लौट पाँऊगा।
’’आखिरकार मैं एक छोटी-सी खुली जगह में पहुँच गया, जिसकी दोनों ओर गुफाएँ थी। वहीं पर बाहर को निकली एक चट्टान पर एक युवक मुस्कुराते हुए स्वागतार्थ हाथ फैलाये खड़ा था। देखकर मुझे आश्चर्य हुआ कि ताम्रवर्ण केशों को छोड़कर वह दिखने में बिलकुल मेरे जैसा ही था।
‘‘ ‘लाहिड़ी, तुम आ गये!’ उस सन्त ने हिन्दी में मुझसे कहा। ‘यहाँ इस गुफा में आराम करो। वह मैं ही था जिसने तुम्हें पुकारा था।’’
मैंने एक छोटी-सी, साफ-सुथरी गुफा में प्रवेश किया, जिसमें कर्इ ऊनी कम्बल और कुछ कमंडुल रखे हुए थे।
‘लाहिड़ी, तुम्हें वह आसन याद है?’ उस योगी ने एक कोने में रखे कंबल की ओर हाथ दिखाया।
नहीं, महाराज! अपनी इस साहसिक यात्रा की विचित्रता पर मैं कुछ हक्काबक्का सा हो रहा था। मैंने आगे कहा: ‘अब मुझे अन्धेरा होने के पहले निकलना होगा। सुबह ऑफिस में काम है।’
उस रहस्यमय सन्त ने अंग्रेजी में उत्तर दिया : 'The
office was brought for you, and not you for the office.' (ऑफिस को तुम्हारे लिये लाया गया है, तुम्हें ऑफिस के लिये नहीं)।
‘‘मैं अवाक् रह गया कि यह वनवासी तपस्वी न केवल अंग्रेजी बोलता है, बल्कि र्इसा मसीह के शब्दों का अर्थ भी इसके शब्दों में ध्वनित हो रहा है।
‘‘मैं देख रहा हूँ। कि मेरे तार ने अपना काम किया है। ‘योगी की इस टिप्पणी का अर्थ मेरी समझ में नहीं आया। मैंने उनसे इसका अर्थ पूछा।
‘‘मैं उस तार की बात कर रहा हूँ, जिसके कारण तुम इस निर्जन प्रदेश में पहुँच गये हो। मैंने ही तुम्हारे वरिष्ठ अधिकारी के मन को गुप्त रूप से यह सुझाव दिया था। कि तुम्हारा स्थानान्तरण रानीखेत कर दिया जाय। जब कोर्इ मनुष्य मानव मात्र के साथ एकता अनुभव करता है, तब उसके लिये सभी मानव-मन संचार केन्द्र बन जाते हैं, और वह उनके माध्यम से अपनी इच्छा के अनुसार कार्य कर सकता है।’ फिर उन्होंने कहा: ‘लाहिड़ी, निश्चय ही यह गुफा तो तुम्हें सुपरिचित प्रतीत होती होगी?’
‘‘जब मैं हतप्रभ होकर चुपचाप खड़ा रहा, तो उस संत ने मेरे पास आकर मेरे माथे पर धीरे-से आघत किया। उनके चुंबकीय स्पर्श से मेरे दिमाग में एक अद्भुत प्रवाह बह पड़ा। जिसने की मेरे पूर्वजन्म की मधुर स्मृतियाँ जगा दीं।
‘‘मुझे याद आ गया।’ आनन्द के आवेग से मेरा कंठ अवरुद्ध सा हो गया। ‘आप मेरे गुरु बाबाजी हैं, जो सदा ही मेरे रहे हैं। अतीत के दृश्य मेरे मन मे स्पष्टता के साथ उभर रहे हैं; यहाँ इसी गुफा में मैंने अपने पिछले जन्म के कर्इ वर्ष बिताये थे। वर्णनातीत स्मृतियों से भावविभोर होकर मैंने अश्रुपात करते हुए अपने गुरुदेव के चरणों का आलिंगन किया।
‘तीन दशकों से भी अधिक समय से मैं तुम्हारे लौट आने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।’ स्वर्गीय प्रेम से बाबाजी को आवाज झंकृत हो रही थी।
‘‘ ‘ तुम निकल गये और मूत्योपरान्त जीवन की प्रचण्ड लहरों में खो गये। तुम्हारे कर्मों की जादुर्इ छड़ीने तुम्हारा स्पर्श किया और तुम चले गये।तुम्हारी दृष्टि मुझसे हट गयी, पर मेरी दृष्टि से तुम कभी ओझल नहीं हुए। उस सूक्ष्म ज्योति-सागर में भी मैं तुम्हारे पीछे था, जहाँ तेजस्वी देवता विचरते हैं। अपने बच्चे की रक्षा करने वाले पक्षी की तरह में अन्धकार, तूफान, उथल-पुथल और प्रकाश में सतत तुम्हारे पीछे-पीछे चलता रहा। जब तुम मानव गर्भावस्था में थे और जब शिशुरूप में तुमने जन्म लिया, तब भी मेरी दृष्टि लगातार तुम पर लगी हुर्इ थी। जब तुम घुरनी की नदी में अपने नन्हे शरीर को पह्मासन में स्थिर कर बालु से ढँक लेते थे, जब भी अदृश्य रूप से मैं वहाँ उपस्थिति रहता था। महीनों पर महीने और वर्ष पर वर्ष इसी शुभ दिन की प्रतीक्षा करता हुआ मैं तुम पर दृष्टि रखता आया हूँ। अब तुम मेरे पास आ गये हो। यह रही तुम्हारी गुफा, जो तुम्हें कभी इतनी प्रिय थी। मैंने तुम्हारी लिये सदा इसे साफ-सुथरी, तैयार रखा है। यह रहा तुम्हारा पवित्र कंबल-आसन, जिस पर बैठकर तुम प्रतिदिन अपने विस्तारित होते हृदय में भगवान को भर लेते थे। यह रहा तुम्हारा कटोरा, जिससे तुम मेरे बनाये हुए अमृत का पान करते थे। देखो इस पीतल के कटोरे को मैंने कैसा चमकाकर रखा है, ताकि किसी दिन फिर से तुम उसका उपयोग कर सको। मेरे अपने पुत्र, क्या अब तुम्हारी समझ में आ गया?’
‘मेरे गुरुदेव! मेरे पास कहने के लिये और क्या हो सकता है?’ गद्गद् स्वर में मैं धीरे से बोला। ‘कहीं किसी ने कभी ऐसे अमर प्रेम के बारे में सुना भी है?’ मैं अपने शाश्वत धन, जीवन एवं मरण में अपने साथ रहने वाले अपने गुरु की ओर आनन्दविभोर होकर लम्बे समय तक देखता रहा।
‘लाहिडी, तुम्हारी शुद्धि आवश्यक है। इस कटोरे में रखा तेल पी लो और जाकर नदी किनारे लेटे रहो।’ इस बात की स्मृति मन में जागते ही मेरे होठों पर एक क्षण के लिये मुस्कुराहट आ गयी कि बाबाजी की व्यावहारिकता सदैव सर्वोपरि रहती थी।
‘‘मैंने उनके निर्देशों का पालन किया। हिमालय की अति ठंडी रात गहरी होनी शुरू हो गर्इ थी, फिर भी मेरे भीतर एक सुखद उष्णता फैल रही थी। मुझे आश्चर्य हुआ। क्या उस अज्ञात तेल में दिव्य उष्णता का कोर्इ गुण था?
‘‘अन्धकार में चारों ओर से बर्फीली हवाएँ मुझे थपेड़े मार-मार कर चीखती हुर्इ भयंकर रूप से ललकार रही थी। पथरीले किनारे पर सीधे लेटे मेरे शरीर से गगास नदी की लहरें बार-बार टकराने लगी। आस-पास बाघों की गर्जना सुनायी दे रही थी, पर मेरा हृदय भय से पूर्ण मुक्त था। मुझमें उत्पन्न होती जा रही नवजात शक्ति अभेद्य सुरक्षा के प्रति आश्वस्त कर रही थी। कर्इ घंटे बड़ी तेजी से बीत गये। गत जन्म की अस्पष्ट स्मृतियाँ अपने गुरु के साथ पुनर्मिलन के मेरे वर्तमान उज्जवल विचारों में घुलमिलने लगी।
‘‘किसी के निकट आने की आहट से एकान्त में पड़े-पड़े चल रही मेरी विचारधारा भंग हो गयी। अंधेरे में एक आदमी के हाथ ने मुझे खड़ा होने में सहायता दी और कुछ सूखे वस्त्र दिये।
‘‘आओ, बन्धु’ उस आदमी ने कहा। ‘गुरुदेव तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।’ जंगल में मुझे रास्ता दिखाता हुआ वह मेरे आगे-आगे चलने लगा। जब हम अपने रास्ते के एक मोड़ पर पहुँचे, तब अचानक दूर दिखायी देने वाले एक स्थिर प्रकाश से रात में उजाला हो गया।
‘क्या सूर्योदय हो रहा है?’ मैंने पूछा। ‘पूरी रात तो अवश्य ही नहीं बीती है?’
‘मध्यरात्रि का समय है।’ मेरा मार्गदर्शक मृदुल हँसी हँसते हुए बोला। ‘वहाँ दूर जो प्रकाश दीख रहा है, वह एक स्वर्ण महल की आभा है, जिसका सृजन अद्वितीय महागुरु बाबाजी ने आज रात किया है। सुदूर अतीत में कभी तुमने महल के सौन्दर्य का आनन्द लेने की इच्छा व्यक्त की थी। हमारे गुरुदेव आज तुम्हारी वह इच्छा पूरी कर तुम्हें अपने कर्मों के आखिरी बंधन से मुक्त कर रहे हैं।’ फिर उसने कहा: ‘वह भव्य महल आज रात तुम्हारी क्रिया योग दीक्षा का साक्षी बनेगा। यहाँ के तुम्हारे सब भार्इ तुम्हारे वनवास के समाप्ति पर आनन्द मनाते हुए तुम्हारा स्वागत कर रहैं। देखो।’
‘‘हमारे सामने देदिप्यमान स्वर्ण का एक विशाल महल खड़ा था। अगणित रत्न उसमें जड़े थे। कलाकौशलपूर्ण सुन्दर उद्यानों के बीच खड़े उस महल का शान्त जलाशयों में पड़ता अभूतपूर्व दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। रास्ते में ऊँची-ऊँची कमानों में अत्यन्त सुंदर बारीक नक्काशी में अमूल्य हीरे, माणिक, पन्ने और तरह-तरह के रत्न जड़े हुए थे। उज्जवल माणिकों की लाल-लाल आभा से देदीप्यमान लगते द्वारों पर देवताओं जैसे दीखने वाले दिव्य कांतिमान पुरुष खड़े किये गये थे।
‘‘अपने साथी के पीछे-पीछे मैं एक प्रशस्त दीवानखाने में पहुँचा। धूप और गुलाबों की सुंगध से वहाँ का वातावरण महक रहा था; मन्द दीपों का रंगबिरंगी प्रकाश फेला हुआ था। वहाँ भक्तों की छोटी-छोटी मंडलियाँ बैठी हुर्इ थीं, जिनमें कुछ भक्त गौर वर्ण थे, तो कुछ श्यामल वर्ण। उनमें से कुछ धीमे स्वर में मंत्रोच्चरण कर रहे थे, तो कुछ आंतरिक शान्ति में मग्न होकर चुपचाप ध्यानस्थ बैठे हुए थे। समस्त वातावरण आनन्द से भरा हुआ था।
‘‘यह सब देखकर मेरे मुँह से कुछ आश्चर्योद्गार फूट पड़े; जिन्हें सुनकर मेरे साथी ने सहानुभूतिपूर्ण मुस्कुराहट के साथ कहा: ‘देख लो, अपनी आँखों को तृप्त कर लो; इस महल की कलाकृति की भव्यता का पूरा-पूरा आनन्द लो, क्योंकि केवल तुम्हारे सम्मान में ही इसका सृजन किया गया है।
‘‘मैंने कहा: ‘बंधु! इस महल का सौन्दर्य मानव-कल्पना से परे है। कृपा करके इसकी उत्पत्ति का रहस्य मुझे समझाओ।’
‘‘उसकी काली आँखें ज्ञान के तेज से चमक उठी। उसने कहा: ‘मैं सहर्ष तुम्हें सब कुछ समझा दूँगा। इस महल के प्रकटीकरण में समझ में न आनेवाली कोर्इ बात ही नहीं है। सारा ब्रह्माण्ड विधाता के विचार का मूर्त्त रूप है। अंतरिक्ष में भ्रमण करता पृथ्वी का यह भारी गोला र्इश्वर का एक स्वप्नमात्र है। भगवान ने सभी कुछ मात्र अपने मन से निर्मित किया, ठीक उसी प्रकार, जैसे मनुष्य अपने स्वप्न में स्वप्न सृष्टि की रचना करता है और उस सृष्टि में सृष्टि जीवों को भी भर देता है।
‘‘परमात्मा ने पहले केवल पृथ्वी की कल्पना की। फिर उसने उस कल्पना को गति प्रदान की, जिसके फलस्वरूप अणुशक्ति और फिर पदार्थजगत अस्तित्व में आया। तत्पश्चात् उसने पृथ्वी के अणुओं को एकत्रित किया और ठोस गोला बनाया। इस गोले के सारे अणु र्इश्वर की इच्छाशक्ति से ही एकत्रित हुए हैं। जब भगवान अपनी इच्छाशक्ति को वापस निकाल लेंगे, तब पृथ्वी के सारे अणु ऊर्जा में रूपान्तरित हो जायेंगे। वह आण्विक ऊर्जा अपने मूल स्त्रोत चैतन्य में वापस चली जायेगी। पृथ्वी की कल्पना अपना मूर्त छोड़कर अमूर्त हो जायेगी।
‘‘स्वप्नकर्ता के अवचेतन विचार से ही स्वप्न सृष्टि मूर्त रूप धारण करके रहती है। जागृतावस्था में जब वह एकत्रित पकड़ रखने वाला विचार वापस खींच लिया जाता है, तो स्वप्न और उस स्वप्न के तत्त्व विलीन हो जाते हैं। मनुष्य आँखें बन्द कर स्वप्न सृष्टि खड़ी कर लेता है, जो जागने पर वह बिना किसी प्रयास के विसर्जित कर देता है। वह मूल र्इश्वरीय प्रारूप का ही अनुकरण करता है। इसी प्रकार, जब वह ब्रह्मचैतन्य में जागता है, तो इस ब्रह्म-स्वप्नसृष्टि के भ्रम को अनायास ही विसर्जित कर देता है।
‘‘ ‘परमात्मा की अनंत सर्वार्थसाधक इच्छाशक्ति के साथ एक होने कारण बाबाजी मूलभूत अणु-परमाणुओं को एकत्रित कर कोर्इ भी आकार धारण करने की आज्ञा दे सकते हैं। क्षण भर में मूर्त रूप दिया गया यह स्वर्णमहल उतना ही वास्तविक है, जितनी वास्तविक यह पृथ्वी है। बाबाजी ने उसी प्रकार इस महल का सृजन अपने मन से किया है ओर अपनी इच्छाशक्ति से उसके अणुओं को एकत्रित पकड़कर रखा है, जिस प्रकार र्इश्वर के विचार ने पृथ्वी का सृजन किया और उसकी इच्छाशक्ति इसके अस्तित्व को बनाये हुए है।’ फिर उसने कहा: ‘जब इस महल की निर्मिती का उद्देश्य पूरा हो जायेगा, तब बाबाजी उसे विसर्जित कर देंगे।’
‘‘जब मैं विस्मय और आदर से अवाक् रहा, तो मेरे उस साथी ने महल की ओर हाथ दिखाते हुए कहा: ‘नाना प्रकार के रत्नों से सजाया हुआ यह जगमगाता महल मानव प्रयासों से निर्मित नहीं हुआ है; इसका सोना और जवाहरात परिश्रमपूर्वक खानों से नहीं निकाला गया है। यह विशाल महल मानव के समक्ष विशाल चुनौति के रूप में खड़ा है। जो कोर्इ भी अपने को र्इश्वर के पुत्र के रूप में पहचान लेगा, जैसे बाबाजी ने अपने को पहचान लिया है, वह अपने अंदर छिपी अनन्त शक्तियों के द्वारा कोर्इ भी लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। सामान्य पत्थर में भी विराट् परमाण्विक शक्तियाँ छिपी हुर्इ हैं, उसी प्रकार क्षुद्रतम मत्र्य मानव भी र्इश्वरीय शक्तियों का भंडार है।’
‘‘उस महात्मा ने पास ही खड़ी एक मेज से एक अत्यंत सुंदर फूलदान उठा लिया, जिसकी मूठ उसमें जड़ें हीरों से जगमगा रही थी। ‘हमारे महान गुरु ने मुक्त विचरण करती कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड-रश्मियों को घनीभूत कर इस महल का सृजन किया है,’ वह कहता गया। ‘इस फूलदान को और इन हीरों को स्पर्श करके देखो, वे इंद्रियानुभूति की हर कसौटी पर खरे उतरेंगे।’
‘‘मैंने फूलदान का परीक्षण किया; उसके हीरे किसी महाराजा के विशेष संग्रह में रहने लायक थे। चमकते हुए स्वर्ण से निर्मित मोटी-मोटी दीवारों पर भी मैंने हाथ फेरा। मेरे मन में गहरी तृप्ति छा गयी। साथ ही ऐसा लगा कि मेरे पूर्वजन्मों से मेरे अवचेतन मन में छिप कर बैठी एक इच्छा तृप्त होकर खत्म हो गयी।
‘‘वह तेजस्वी पुरुष मुझे अलंकृत कमानों और दालानों में से ले जाता हुआ ऐसे अनेक कमरों में ले गया, जो किसी सम्राट के महल के कमरों के समान साज-सामान से सजाये हुए थे। फिर हमने एक अत्यंत विशाल हॉल में प्रवेश किया। उस हॉल के बीचोबीच एक स्वर्ण-सिंहासन रखा हुआ था, जिसमें जड़े हुए रत्न रंग-बिरंगी छटाएँ फेंक रहे थे। उस सिंहासन पर पह्मासन में बैठे थे महानतम बाबाजी। मैंने उनके सामने चमकती फर्श पर सिर लगाकर उन्हें प्रणाम किया।
‘‘ ‘लाहिड़ी! क्या स्वर्ण-महल की अपनी स्वप्न-आकांक्षाओं की पूर्ति में अभी भी तुम्हें आनन्द आ रहा है?’ मेरे गुरु की आँखें उनके ही द्वारा सृष्ट रत्नों की भाँति चमक रही थीं। ‘जागो! तुम्हारी सारी ऐहिक तृष्णाएँ अब सदा-सदा के लिये तृप्त होने वाली हैं।’ उन्होंने आशीर्वादस्वरूप कुछ गूढ़ मंत्रों का धीमे स्वर में उच्चारण किया। ‘मेरे पुत्र! उठो। क्रिया योग की दीक्षा ग्रहण कर र्इश्वर के राज्य में प्रवेश करो।’
‘‘बाबाजी ने अपना हाथ उठाया। धधकती अग्नि ज्वालाओं से युक्त एक हवन कुंड तत्क्षण वहाँ प्रकट हुआ। हवन कुंड के चारों ओर फल-फूल सजे हुए थे। इस अग्नि-वेदी के समक्ष मुझे मुक्तिदायक क्रियायोग की दीक्षा मिली।
‘‘भोर होते-होते सारे विधि-संस्कार संपन्न हो गये। परमानन्द की उस अवस्था में मुझे निद्रा की कोर्इ आवश्यकता प्रतीत नहीं हुर्इ। दीक्षा के बाद मैं महल के अमूल्य वस्तुओं और उत्कृष्टतम कलाकृतियों से सुसज्जित कमरों में भटकता हुआ उद्यानों में गया। वहाँ आसपास वही गुफाएँ और पर्वत-शिलाएँ मुझे दिखायी दीं जो मैंने कल देखी थीं; परंतु कल वे किसी महल या पुष्पोद्यान के समीप तो नहीं लगी थी।
‘‘हिमालय के शीतल सूर्य प्रकाश में वह मल अब कल्पनातीत आभा के साथ चमक रहा था। मैं महल में वापस जाकर अपने गुरु के सामने खड़ा हो गया। वे अभी भी सिंहासन पर विराजमान थे और उनके इर्दगिर्द अनेक शिष्य चुपचाप बैठे हुए थे।
‘‘ ‘लाहिड़ी, तुम्हें भूख लगी है।’ बाबाजी ने फिर कहा, ‘अपनी आँखे बन्द करो।’
‘‘जब मैंने पुन: आँखें खोलीं, तो अपने उद्यानों सहित वह मंत्रमुग्ध कर देने वाला महल अदृश्य हो गया था। मैं, बाबाजी और उनके सभी शिष्य अब केवल भूमि पर, ठीक उसी स्थान पर बैठे हुए थे, जहाँ थोड़ी देर पहले तक वह अद्भूत महल खड़ा था। यह स्थान सूर्यप्रकाश में स्पष्ट दिखते गुफाओं के प्रवेश-द्वारों से दूर नहीं था। मुझे याद आया कि मेरे उस पथ प्रदर्शक ने मुझे बताया था कि महल विसर्जित कर दिया जायेगा, उसमें पकड़कर रखे हुए सब अणु-परमाणुओं को मुक्त कर उनके मूल विचार स्वरूपों में विलीन कर दिया जायेगा, जहाँ से वे आये थे। मैं स्तम्भित हो गया था, फिर भी मैंने पूर्ण विश्वास के साथ अपने गुरु की ओर देखा। चमत्कारों से भरे इस दिन आगे क्या होने वाला है, मालूम नहीं था।
‘‘ ‘जिस उद्देश्य के लिये महल का सृजन किया गया था, वह उद्देश्य पूरा हो चुका है,’ बाबाजी ने स्प”ट किया। उन्होंने भूति से एक हाँड़ी उठायी।
‘‘ ‘इस पर अपना हाथ रखो और जो भी खाने की तुम्हारी इच्छा होगी, वह इसमें से निकाल लो।’
‘‘मैंने उस चौड़ी, खाली हाँड़ी का स्पर्श किया। घी में तली गरम-गरम पूरियाँ, रस्सेदार भाजी और मिठाइयाँ उसमें प्रकट हो गयी। जैसे-जैसे मैं खाता जा रहा था, मैंने देखा कि हाँडी सदा वैसी की वैसी भरी ही रहती थी। जब भोजन पूरा हो गया, तो मैं पानी के लिये इधर-उधर देखने लगा। मेरे गुरु ने मेरे सामने रखी हाँड़ी की ओर इशारा किया। सारे खाद्य पदार्थ उसमें से गायब हो गये थे और उनके स्थान पर अब शुद्ध, निर्मल जल उसमें दिखायी दे रहा था।
‘‘उस दिन दोपहर को मैं पिछले जन्म की दैवी उपलब्धियों से पुनीत हुए अपने कंबल पर बैठा। मेरे र्इश्वरतुल्य गुरु मेरे पास आये और उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा। मैं निर्विकल्प समाधि में पहुँच गया और सात दिन तक उसी परमानन्द की अखंड अवस्था में रहा। आत्मज्ञान के एक के बाद एक आने वाले स्तरों को पार करते हुए मैंने अंतिम, अक्षय सत्य की अनुभूति कर ली। माया के सभी बंधन टूट कर गिर गये और मेरी आत्मा परमात्मा की वेदी पर पूर्ण रूप से प्रतिठापित हो गयी।
‘‘आठवें दिन मैं अपने गुरु के चरणों में लोट गया और मुझे इस पवित्र वन में सदा अपने पास ही रखने का उनसे अनुरोध करने लगा।
‘‘बाबाजी ने मुझे अपने आलिंगन पाश में बांधते हुए कहा: ‘मेरे पुत्र! इस जन्म में तुम्हें जनसाधारण की आँखों के सामने ही अपनी भूमिका निभानी है। इस जन्म से पूर्व अनेक जन्मों में निर्जन प्रदेशों में तपस्या कर तुम धन्य हो चुके हो, अब तुम्हें मनुष्यो के संसार में जाकर उनमें मिल जाना होगा।’
‘‘ ‘इस बात के पीछे एक गहरा उद्देश्य था कि इस जन्म में तुम विवाह कर गृहस्थ बनने और परिवार एवं पारिवारिक उत्तरदायित्वों से घिरे जाने से पहले मुझसे नहीं मिले। हिमालय में हमारी इस गुप्त मंडली में शमिल होने का विचार तुम्हें त्यागना ही पड़ेगा। तुम्हारा जीवन आदर्श गृहस्थ-योगी का उदाहरण बनकर शहरों की भीड़भाड़ के बीच रहने के लिये है।
‘‘वे आगे कहते गये: ‘व्याकुल संसारी नर-नारियों का आर्तनाद महापुरूंषों के कानों से टकराकर अनसुना नहीं हो गया। तुम्हें सच्चे जिज्ञासुओं को क्रियायोग के माध्यम से आध्यात्मिक दिलासा देने के लिये चुना गया है। पारिवारिक बन्धनों और भारी सांसारिक कर्त्तव्यों से दबे लक्ष-लक्ष लोगों
को उनके समान ही गृहस्थ-जीवन व्यतीत करने वाले तुम से नयी हिम्मत मिलेगी। यह समझने में तुम्हें उनकी सहायता करनी होगी कि उच्चतम यौगिक उपलब्धियाँ गृहस्थों के लिये दुष्प्राप्य नहीं हैं। संसार में रहकर भी जो योगी व्यक्तिगत स्वार्थ और आशक्तियों को त्याग का पूर्ण निष्ठा के साथ अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करता है, वह ब्रह्मज्ञान प्राप्ति के सुनिश्चित मार्ग पर ही चल रहा होता है।
‘‘ ‘तुम्हारे लिये संसार को त्यागने की कोर्इ आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आन्तरिक स्तर पर तुमने पहले ही इसके प्रत्येक कर्म-बंधन को तोड़ दिया है। इस संसार के न होते हुए भी तुम्हें उसी में रहना है। अभी कर्इ वर्षों तक तुम्हें पूर्ण अन्त: करणपूर्वक अपने पारिवारिक, व्यावसायिक, नागरिक और आध्यात्मिक कर्त्तव्यों को पूरा करना है। संसारी मनुष्यों के रुक्ष हृदयों में एक नयी मधुर दिव्य आशा का संचार करना है। तुम्हारे संतुलित जीवन से यह बात उनकी समझ में आ जायेगी कि मुक्ति बाह्म त्याग पर नहीं, बल्कि आंतरिक वैराग्य पर निर्भर करती है।’
‘‘जब मैं हिमालय के उच्च निर्जन प्रदेश में अपने गुरु की बातें सुन रहा था, गुरु से शिष्य को योगाविद्या के दिये जाने के संबंध में बाबाजी ने मुझे प्राचीन कठोर नियमों का ज्ञान कराया। ‘‘उन्होंने कहा: ‘केवल योग्य शि”यों को ही क्रिया की यह कुंजी देना। ध्यान के विज्ञान द्वारा जीवन के अंतिम रहस्यों का पता लगाने के लिये केवल वही योग्य है, जो र्इश्वर की खोज में अन्य सब कुछ त्याग देने का संकल्प करता है।’
‘‘ ‘दयामय गुरुदेव! विलुप्त हुर्इ क्रियायोग विद्या का पुनरुद्धार कर आपने पहले ही मानवजाति पर इतनी बड़ी कृपा की है। अब शिष्यत्व की कठोर आवश्यकताओं को शिथिल करके क्या और थोड़ी कृपा नहीं करेंगे?’ मैं अनुनयपूर्वक बाबाजी की ओर देखता रहा। ‘मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मुझे सभी सच्चे जिज्ञासुओं को क्रियायोग सिखाने की अनुमति प्रदान करें, भले ही वे प्रारम्भ में पूर्ण आन्तरिक वैराग्य की प्रतिज्ञा न कर पाएँ। संसार के त्रिविध तापों से त्रस्त नर-नारियों को विशेष प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। यदि क्रिया दीक्षा से उन्हें वंचित रखा जाय, तो शायद वे कभी मुक्ति के मार्ग पर चलने का प्रयास ही न करें।’
‘‘ ‘तथास्तु! तुम्हारे माध्यम से र्इश्वरीय इच्छा प्रकट हुर्इ है। जो भी विनम्रता के साथ तुमसे सहायता की याचना करें, उन सब को क्रिया दे दो,’ करुणामय गुरुदेव ने कहा।
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