राम कृष्ण परमहंस
श्री
रामकृष्ण का जन्म
17 फरवरी
1836 को
एक श्रेष्ठ
ब्राह्मण परिवार में बर्दवान के पास कामारपुकुर गाँव में
हुआ था। इनके पिता
श्री क्षुदिराम चट्टोपाèयाय
जहाँ परम सन्तोषी, सत्यनिष्ठ व
त्यागी पुरुष थे
वहीं उनकी माता चन्द्रमणि देवी दयालुता एवं सरलता
की साक्षात मूर्ति थी।
बचपन में श्री रामकृष्ण का
नाम गदाधर था। पाँच वर्ष
की आयु में उन्हें पाठशाला भेजा गया जहाँ
सांसारिक शिक्षा उन्हें मे
नहीं रूचि थी परंतु
एक विलक्षण बात यह
थी कि वे
रामायण, महाभारत, गीता के
श्लोक या उपाख्यान एक बार सुनकर ही
अधिकांश को कंठस्थ कर लेते थे। गाँव
की अतिथि शाला में
ठहरे साधु-संतों के
साथ यह बालक
घंटों बैठा रहता,
उनके बीच हो रही
चर्चा को ध्यान
पूर्वक सुनता तथा उनकी
सेवा करने में विशेष आनन्द की अनुभूति करता। कहा जाता है
अवतारी पुरुषो
में कितने ही ऐसे
गुण छिपे रहते हैं
कि उनका अनुमान करना
कठिन होता है। बालक
गदाधर की स्मरण
शक्ति तो विशेष तीव्र थी ही
साथ ही उन्हें गाने की भी
रूचि थी,
विशेषत: भक्तिपूर्ण गानों के
प्रति। एक बार
पास के गाँव
जाते समय बालक गदाधर
रास्ते में काले बादलों के बीच उड़ते हुए
बगुलों की श्वेत
पंक्ति को देखकर
संज्ञा शून्य हो गया
परंतु वास्तव में वह
भाव समाधि थी। बाल्यावस्था में पिता की मृत्यु के बाद श्री रामकृष्ण अपने
ज्येष्ठ
भ्राता श्री रामकुमार के
साथ कलकत्ता आ गये
जहाँ वे दक्षिणेश्वर में रानी रासमणि द्वारा निर्मित काली मंदिर में
पुजारी नियुक्त हुए। साधारण पुजारियों की भाँति
वे कोरी पूजा ही
नहीं करते थे। वरन्
एक अलौकिक भावादेश में
èयानावस्थित हो श्री
काली देवी पर पुष्प चढ़ाते थे, आँखों
में अश्रुधारा,
तन-मन की सुध
नहीं, हाथ
काँप रहे हैं,
हृदय में उल्लास,
मुख से शब्द
नहीं निकले,
घंटी, आरती
सब किनारे ही पडी
रहीं बस श्री
काली जी पर
पुष्प
चढा रहे हैं स्वयं
में भी उन्हीं को देख रहे हैं
कम्पित हाथों से अपने
ही ऊपर फूल चढाने
लगते हैं कहते हैं
माँ-माँ-तुम-मैं-मैं-तुम...........और
समाधिस्थ हो जाते
हैं। उनके हृदय की
पराकाष्ठा
उस दिन हो गयी
जब व्यथित होकर माँ
के दर्शन के लिए
मंदिर में लटकती तलवार
उठाकर अपना शरीरान्त करने
को उद्यत हुए तो
उन्हें जगन्माता का अपूर्व अद्भुत दर्शन हुआ और
वे देहभाव भूलकर बेसुध
होकर जमीन पर गिर पड़े। तदन्तर उनके अंत: करण में केवल एक प्रकार का अद्भुत आनन्द का प्रवाह बहने लगा। घर के लोगों ने समझा कि श्रीरामकृष्ण के मष्तिष्क में कुछ वायु विकार हो गया है। किसी ने सलाह दी कि इनका विवाह कर दिया जाये तदनुसार मई 1859 में इनका विवाह जयराम बाटी ग्राम के श्रीरामचन्द्र मुखोपाèयाय की कन्या श्री सारदामणि से हो गया जिन्होंने जीवन भर पति को ईश्वर मानकर उनके सुख में अपना सुख देखा तथा आदर्श जीवन साथी बनकर उनकी सेवा की।
भावावेश होना, अन्तर-मुखी होना,
प्रेमाश्रु बहाना इनका स्वभाव बन चुका था। इस
अवस्था से आगे
सविकल्प समाधि एवम् अंतिम निर्विकल्प समाध
तक पहुँचने के लिए उनको मार्गदर्शक की आवश्यकता थी। यदि हम रामकृष्ण जी
की साधना
पर विचार करें तो
यह निष्कर्ष निकलता है कि इनकी
साधना को पूर्णता तक पहुँचाने के लिए
तीन अलग-अलग स्तरों पर तीन महाशक्तियों का हाथ
रहा है। उनके जीवन
दर्शन का विस्तृत अèययन करने
पर पता चलता है
कि उनके तीन पथ
प्रदर्शक थे। जब कभी
साधना के क्षेत्र में वो उलझ
जाते थे तो
उन्हें एक अदभुत
मार्गदर्शन मिलता था। इसका
एक दृष्टान्त उन्हीं के शब्दों में दिया जा रहा
है।
‘‘कोठरी के
अंदर मैं रो रहा
था। कुछ देर बाद
मैं क्या देखता हूँ
कि फर्श से एकाएक
ओस की तरह
धुआँ निकलने लगा ओर
सामने के कुछ
स्थल को उसने
ढ़क दिया। तदन्तर उसके
अंदर वक्ष:
स्थलपर्यन्त लम्बी दाढ़ीयुक्त एक गौरवर्ण, सौम्य,
जीवन्त मुखमण्डल दिखायी दिया।
मेरी ओर निश्चल दृषिट
से देखते हुए उस
मूर्ति ने गंभीर
स्वर में कहा-
‘अरे तू भावमुखी रह, भावमुखी रह, भावमुखी रह’।
इस
प्रकार तीन बार इन
शब्दों का उच्चारण करने के पश्चात वह मूर्ति धीरे-धीरे पुन: उसी ओर
विलीन हो गयी
और ओस की
तरह वह धुआँ
भी अन्तनिर्हित हो गया।
इस प्रकार दर्शन पाकर
मैं शान्त हुआ।’’
प्रश्न उठना
स्वाभाविक है यह
छाया कौन थी?
जब कोई व्यक्ति साधना
के प्रति बहुत इच्छुक होता हैं, कहीं
किसी बिंदु पर कठिनाई में फंस जाता है, छटपटाने लगता
है व किसी
जीवित गुरु
का मार्गदर्शन नहीं मिल पाता,
ऐसी स्थिति में हिमालय की ऋषि संसद के
महावतार बाबा उसको दिशा निर्देश देने
वहीं पहुंच जाते हैं।
ऐसा दृषटान्त कई बार देखने
को मिलता है।
उच्चस्तरीय साधना में प्रत्यक्ष व स्थूल देहधरी गुरु
का अपना बहुत महत्व
है। श्रीराम कृष्ण के
जीवन में ऐसी दो
महान विभूतियाँ थीं योगेश्वरी नामक भैरवी ब्राह्मणी एवम्
श्रीयुत तोतापुरी जी महाराज।
योग्य
व्यक्ति को शिक्षा प्रदान करने का अवसर
उपस्थित होने पर गुरु
के हृदय में परम
तृप्ति तथा आत्म प्रसन्नता स्वत: ही
उदित होती है। अत: श्री राम
कृष्ण देव जैसे उत्तम
अधिकारी को शिक्षा प्रदान करने का सुयोग
प्राप्त कर ब्राह्मणी का हृदय आनंद से
परिपूर्ण हो उठा।
ब्राह्मणी को उस समय
साधक, विद्वान एवम् पण्डित वर्ग में
विशेष सम्मान प्राप्त था। वह तन्त्रा, योग,
शास्त्रा सभी में पारंगत थी। दैवी प्रेरणा से
ब्राह्मणी रामकृष्ण के पास
पहुँचती है। उसे यह
देख कर अदभुत
आश्चर्य होता है कि
जिसे लोग पागल,
वायुविकार ग्रस्त समझते हैं
वह अवतारी स्तर की
आत्मा है। वह दक्षिणेश्वर में पण्ड़ितों विद्वानों,
साधको की एक
सभा बुलाती है जिसमें विद्वानों के पाण्डित्यपूर्ण वाद
विवाद के पश्चात वह सभी धर्मिक सम्प्रदायों के आचार्यो के सम्मुख यह सिद्ध करती
है- ‘‘शास्त्रो में अवतारों के जो
लक्षण होते हैं वो
सभी रामकृष्ण देव के
शरीर तथा मन में
विद्यमान हैं।’’
इसके पश्चात उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैलने
लगती है। विभिन्न पंथों
के यात्री,
साधू सन्यासी, फकीर, विचारक उनसे
सलाह व शिक्षा लेने आने लगते हैं।
परंतु अपने जीवन के
अंतिम दिन तक रामकृष्ण एक सरल व्यक्ति ही
बने रहे उनके अन्दर
दम्भ व गर्व
लेशमात्रा भी
न था। वे भगवत
उन्मत्तता में इस प्रकार विलीन रहते थे कि
अपने बारे में सोचने
का अवसर ही उन्हें न मिलता था।
भैरवी
समस्त धर्मानुष्ठानों व साधनाओं में प्रवीण थी व ज्ञान
के सब वर्गो
से परिचित थी। इसलिए
उसने शास्त्रोक्त विधि के सभी
मार्गो की साधना करने के
लिए रामकृष्ण को प्रोत्साहित किया। उसने रामकृष्ण को
दो प्रकार की साधनाँए करायी। प्रेम मार्ग की, भक्ति मार्ग
की साधनाँए एवं कठोर
मार्ग की साधनाँए। प्रेमा भक्ति के द्वारा भगवान से मिलने
के उन्नीस भावों का
शास्त्रों में वर्णन मिलता
है जैसे-
स्वामी, सखा, भृत्य भाव, माता-पुत्र व
पति-पत्नी भाव आदि। भक्त
गण इन भावों
में से किसी
एक का आश्रय
लेकर भगवान से अपना
सम्बन्ध स्थापित करते हैं
परंतु रामकृष्ण ने उन सभी भावों पर अपना अधिकार कर लिया था। जिन साधनाओं की सिध्दि में व्यक्ति को बारह-बारह वर्ष लगते है वो साधना अपनी अद्भुत एकाग्रता, समर्पण के कारण वो मात्रा तीन दिन में सिध्दि कर लेते थे।
दूसरे
प्रकार की साधनामें वह रामकृष्ण देव को कठोर
तन्त्रा साधना कराती है। यह
मार्ग अत्यन्त पिच्छल तथा
दुर्गम होता है,
जिससे गुजरते हुए हर समय
अर्ध पतन तथा पागलपन की गंभीर खंदक में
गिरने का भय
रहता है। इस पथ
पर चलने का जिन्होंने भी साहस किया है, उनमें से
बहुत ही कम
व्यक्ति वापस आ सके
हैं। परंतु पवित्रा रामकृष्ण उक्त पथ पर
यात्रा करने से पूर्व
जिस प्रकार निष्कंलक थे,
उसी निष्कलक अवस्था में,
बल्कि अग्नि में तपाए
हुए इस्पात के समान
पहले से भी
दृढ़तर होकर वापस आए।
भैरवी
ब्राह्मणी विभिन्न प्रकार के
साधना अनुष्ठानों से गुजारती हुयी उन्हें सविकल्प समाधि की अवस्था तक पहुँचा देती है। जब वे
उस उच्च स्थान पर
पहुँच गए,
जिसे कि अन्य
सब व्यक्ति,
यहाँ तक कि
उनकी पथ प्रदर्शिका गुरु भैरवी भी अन्तिम शिखर मानती थी,
तब भी वे
वहाँ नहीं रूके और
आरोहण की अन्य
चोटी अन्तिम पर्वत शिखर
की ओर देखने
लगे, और
वे उस शिखर
तक पहुँचने के लिए
बाèय थे।
सन्त 1864 के
अन्त में ठीक
उस समय जब रामकृष्ण ने साकार भगवान पर
विजय प्राप्त कर ली
थी, निराकार भगवान का सन्देशवाहक दक्षिणेश्वर में आया। ये
अनन्य वैदान्तिक पण्डित व
साधाक; दिगम्बरद्ध तोतापुरी थे।
वे एक परिव्राजक सन्यासी थे,
जिन्होंने निरन्तर चालीस वर्ष की कठोर साधाना के उपरान्त सिद्धि प्राप्त की थी। वे मुक्तात्मा थे- उनकी दृषिट सर्वथा निर्लिप्त भाव से इस मायामय विश्व का
अवलोकन करती थी। उन्होंने देखा, मन्दिर का तरूण पुरोहित मंदिर
की सीढ़ी पर बैठा
हुआ अपने èयान
के गुप्त आनन्द में
निमग्न है। तोतापुरी उन्हें देखकर विस्मित हो गए।
उन्होंने कहा,
‘‘वत्स! मैं देखता
हूँ कि तुम
पहले ही सत्य
के मार्ग पर काफी
दूर तक अग्रसर हो चुके हो। यदि
तुम चाहो तो मैं
तुम्हें इससे भी अगली
सीढी तक पहुँचा सकता हूँ। मैं तुम्हें वेदान्त की शिक्षा दूँगा।’’
रामकृष्ण ने सहज सरल भाव
से उत्तर दिया,
‘माँ से पूछ
लूँ।’ उनकी
इस सरलता ने उस
कठोर सन्यासी को भी
मुग्ध् कर दिया
और वह मुस्कराने लगे। माँ ने अनुमति दे दी, और रामकृष्ण ने अत्यन्त नम्रतापूर्वक इस भगवत्प्रेरित गुरु के चरणों में पूर्ण विश्वास के साथ आत्म समर्पण कर दिया। रामकृष्ण समाधि की अन्तिम मंजिल-निर्विकल्प समाधि पर जिसमें कि द्रष्टा और दृश्य दोनों का ही लोप हो जाता हैं- पहुँच गए। विश्व का लोप हो गया। स्थान का भी विलय हो गया। प्रारम्भ में मन की गम्भीरता में विकारों की अस्पष्ट परछाइयाँ तैरने लगी। अहम की एक दुर्बल चेतना स्पन्दित होने लगी। परंतु बाद में वह भी शान्त हो गयी। अस्तित्व के अतिरिक्त और कुछ भी शेष न रहा। आत्मा परम सत्ता में विलीन हो गयी। द्वैत का लोप हो गया। ससीम व नि:सीम का विस्तार एकाकार हो गया। शब्द और विचार से अतीत होकर उन्होंने ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर लिया।
जिस
सिध्दि को प्राप्त करने के लिए
तोतापुरी को सुदीर्घ चालीस वर्ष
का समय लगा था, रामकृष्ण ने
वह अल्प समय में
प्राप्त कर ली।
जिस परम ज्ञान की
प्राप्ति के लिए
तोतापुरी ने रामकृष्ण को प्रबुध्द किया था
उसके फल को देखकर
वे स्वयं विस्मित हो
गए। कई दिन तक
रामकृष्ण का शरीर
एक शव के
समान कठोर अवस्था में
बना रहा,
जिसमें से ज्ञान
की चरम सीमा को
प्राप्त आत्मा के प्रशान्त प्रकाश की ज्योति विकीर्ण हो रही
थी।
तोतापुरी अपने नियम के अनुसार तीन दिन से अधिक कहीं नहीं ठहर
सकते थे। परंतु जो
शिष्य
अपने गुरु से भी
कहीं आगे बढ गया
था, उससे
संलाप करने के लिए
ग्यारह मास तक वहीं
बने रहें। तोतापुरी ‘नागा’; नग्न रहने वालेद्ध सम्प्रदाय के अनुयायी थे वे
विशालकाय तथा बलिष्ठ थे। उनका शारीरिक गठन बडा शानदार था।
सिंहाकृति चट्टान के समान
वे एकदम कठोर व
दुर्धर्ष थे। उनका
मन व शरीर
दोनों ही इस्पात के बने हुए थे।
कष्ट
व बीमारी क्या वस्तु
है, यह
वे जानते ही न
थे ओर उन्हें तुच्छ व उपहासास्पद समझते थे। परिव्राजक का
जीवन व्यतीत करने से
पूर्व वे पंजाब
के एक मठ
के सर्वेसर्वा थे,
जिसमें सात सौ साधु
रहते थे। वे एक ऐसी
साधना-प्रणाली के गुरु
थे, जो
मनुष्यों
के शरीर व मन
को पत्थर के समान
कठोर बना देती है।
संसार व दुरूह
माया पर विजय
प्राप्त करने के लिए
स्वयं को निष्ठुर व कठोरतम बना लेना व इस
माया रूपी जंजाल को
कुचलकर उस परम
ब्रह्म तक पहुँचना ही इस साधनाप्रणाली का
आधर है।
इस
कठोर साधना प्रणाली का अभ्यास करने व लक्ष्य प्राप्त करने के उपरान्त भी हिमालय की ऋषि सत्ताँए लोक शिक्षण के उद्देश्य से रामकृष्ण देव को सौम्य व भावप्रधन देखना चाहती है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस की मनोरम छवि का वर्णन नोबेल पुरूस्कार विजेता रोमाँ रोला अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ("The Life of Sri Ramakrishna by
Romain Rolland") में
इस प्रकार करते हैं-
‘‘रामकृष्ण का कद
छोटा, रंग
गोरा व छोटी
दाढ़ी थी। उनकी सुन्दर, विस्तृत काली
आँखे, जो
प्रकाश के परिपूर्ण, तनिक तिरछी
व अर्ध निमीलित मुद्रा में रहती थी,
कभी पूरी न खुलती
थी परंतु अदित अवस्था में भी वह
बाहर और भीतर
दूर दूर तक देख
सकती थी। उनका मुख, उनकी शुभ्रदन्तावलि पर
एक जादू भरी मुस्कान सबको अपने स्नेहपाश में
बाँध्ती थी। क्षीणकाय व
अत्यन्त कोमल उनकी प्रकृति असाधरण रूप से भावुक
थी।
उनकी
बोली घरेलू बंगला थी, जिसमें एक
हल्का सा आनन्ददायक तोतलापन था। परंतु उनके
शब्द, आèयात्मिक अनुभव की
समृद्धि, उष्मा व
रूपक के अक्षय
कोष,
विलक्षण निरीक्षण-शक्ति, उज्जवल तथा सूक्ष्म व्यंग-परिहास, आश्चर्यजनक सहानुभूति की उदारता और ज्ञान के अनन्त
प्रवाह के द्वारा श्रोता को अपने
वश में कर लेते
थे।’’
श्रीयुत तोतापुरी जी महाराज गदाधर से स्वामी रामकृष्ण परमहंस के रूप
में अपने शिष्य को विभूषित,
प्रतिषिठत
कर अपने गन्तव्य पथ
पर आगे बढ़ जाते
हैं। अब रामकृष्ण परमहंस जी वैदिक
साधना पध्दति
का अन्तिम शिखर पार
कर अन्य धर्मो की ओर
आकृष्ट
होते हैं। सर्वप्रथम सन
1866 में
वो सूफी गोविन्द राय
से दीक्षा लेकर विधिवत इस्लाम धर्म के साधन में प्रवृत्त हुए।
श्री रामकृष्ण कहते थे- ‘‘तब मैं ‘अल्ला’
मन्त्रा का जप
किया करता
था, मुसलमानों की तरह लाँग खोलकर
धोती पहनता था,
त्रिसंèया नमाज
पढ़ता था और
उस समय मेरे मन
से हिन्दुत्व का भाव
एकदम विलुप्त हो जाने
के कारण हिन्दू देव
देवियों को प्रणाम करना तो दूर
रहा, उनके
दर्शन करने तक की
प्रवृत्ति नहीं होती थी।
इस प्रकार तीन दिन
बीतने के बाद
मुझे उस मत
का साधना
फल सम्यक रूप से
हस्तगत हुआ था।’’
इसी
प्रकार सन 1874
र्इñ में उन्होंने र्इसार्इ धर्म की साधना की। कर्इ दिनों तक वह
र्इसार्इ चिन्तन और र्इसा
के प्रेम में ही
निमग्न रहें। उनके दिल
से मंदिर में जाने का विचार निकल गया। इस अवस्था में एक दिन अपराहन बेला में दक्षिणेश्वर के बगीचे में उन्होंने देखा कि एक शान्त मूर्ति, गौरांग पुरूष उनकी ओर चला आ रहा है। यद्यपि वे यह भी न जानते थे कि वह कौन हैं, तथापि वे अपने अज्ञात अतिथि के जादू के वशीभूत हो गए। वह उनके समीप आया और रामकृष्ण की आत्मा की गहरार्इ में किसी का सुमधुर कण्ठस्वर सुनार्इ दिया-
‘‘
उस र्इसा के दर्शन
करो, जिसने
विश्व की मुक्ति के लिए अपने हृदय
का रक्त दिया है, जिसने मनुष्य के
प्रेम के लिए
असीमित वेदना को सहन
किया है। यही वह
श्रेष्ठ
योगी है,
जो भगवान के साथ
शाश्वत रूप से संयुक्त है। यही र्इसा है
जो प्रेम के अवतार
है----।’’
रामकृष्ण तीर्थंकर
जैन धर्म के सस्थांपक तथा दस सिख
गुरु आदि सन्तों के
लिए भी अपने
हृदय में बड़ा आदर
रखते थे। उनके कमरे
में देवताओं के चित्राो के साथ र्इसा का
चित्रा भी विद्यमान था, वे
प्रतिदिन प्रात:
व सायंकाल उनके सम्मुख धूप जलाया करते थे।
बाद में भारतीय र्इसार्इ रामकृष्ण में र्इसा का
प्रत्यक्ष प्रकाश देखने लगे
और उन्हें देखकर भावाविष्ट होने
लगे।
उन्होंने विभिन्न धर्मो की साधनाएं करके यह
निष्कर्ष दिया कि सब
धर्म अन्त में एक ही
लक्ष्य पर पहुँचते है और धर्मिक विरोध भाव रखना मूर्खता है। वे अपने
शिष्यों
से कहते थे-
‘‘मैंने हिन्दू,
मुसलमान, र्इसार्इ सभी धर्मो का अनुशीलन किया है,
हिन्दू धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों के भिन्न
भिन्न पंथो का भी
अनुसरण किया है। मैंने
देखा है कि
उसी एक भगवान
की तरपफ ही सबके
कदम बढ़ रहे हैं, यद्यपि उनके
पथ भिन्न-भिन्न हैं। जिधर
भी दृष्टि डालता हूँ उधर
ही हिन्दू,
मुसलमान, ब्राह्म, वैष्णव व अन्य
सभी सम्प्रदायवादियों को धर्म के नाम
पर परस्पर लड़ते हुए
देखता हूँ। परंतु वे
कभी इस बात
पर विचार नहीं करते
कि जिसे हम कृष्ण के
नाम से पुकारते है, वही
शिव है,
वही आद्य शक्ति है, वही र्इसा
हैं, वही
अल्लाह है,
सब उसी के नाम
हैं- एक
ही राम के सहसत्रो नाम है। एक तालाब
के अनेक घाट है।
एक घाट पर हिन्दू अपने कलशों में पानी
भरते हैं और उसे
‘जल’ कहते हैं, दूसरे घाट
पर मुसलमान अपनी मश्कों में पानी भरते हैं
और उसे पानी नाम
देते हैऋ तीसरे घाट
पर र्इसार्इ लोग जल
लेते है और
वे उसे ‘वाटर’ की संज्ञा देते हैं। क्या हम कभी यह कल्पना कर सकते हैं कि यह वारि ‘जल’ नहीं हैं, अपितु केवल ‘पानी’ अथवा ‘वाटर’ ही हैं? कितनी हास्यापद बात है। भिन्न-भिन्न नामो के आवरण के नीचे एक ही वस्तु है, और प्रत्येक उसी वस्तु की खोज कर रहा है; मात्रा नाम ही भिन्न है, अन्यथा और कोर्इ भेद नहीं हैं। प्रत्येक मनुष्य को अपने मार्ग पर चलने दो। यदि उसके अन्दर हार्दिक भाव से भगवान को जानने की उत्कट लालसा है, तो उसे शान्तिपूर्वक चलने दो। वह अवश्य ही उसे पा लेगा।’’
सन
1874 तक
39 वर्ष
की आयु में वो
अपना साधनाकाल पूर्ण कर
चुके थे। अब आरम्भ
होता है-
लोक शिक्षण का काल, जिसमें उनके
भीतर गुरु भाव का
उदय होता है। लगभग
12 वर्षो तक वो
सनातन धर्म के पुर्नप्रतिष्ठान के लिए
दृढ़ संकल्पित रहें। इस
काल में वो तीर्थ
भ्रमण द्वारा तथा लोगों
से मिलकर उनकी आèयात्मिक प्रगति के
लिए प्रयत्नशील रहें।
सनातन
धर्म को देश
विदेश में पहुँचाने हेतु
उन्हें कुछ सशक्त सहयोगियों की आवश्यकता थी जो
उनका संदेश आत्मसात कर
उनकी आवाज को जन-जन तक पहुँचा सके।
सन
1883 में
उन्हें यह अन्तर्बोध हुआ कि बहुत
सी विश्वासी व पवित्रा हृदय आत्माएँ उनके पास
आँएगी। उनके अधिकाँश सन्देशवाहक सन 1883 और
1884 के
मèय उनके
पास पहुँचे थे। अपने
जीवन के अन्तिम काल तक उन्होंने 24 शिष्यों की एक
सशक्त टीम गठित कर
उनको कर्म क्षेत्र में
उतारा। जिसने बाद में
धर्म क्रान्ति,
कर्म क्रान्ति वैदिक क्रान्ति का बिगुल बजाया। इस
टीम के युवा
बालकों नरेन्द्र,
राखाल, लाटू, काली,
शशी, गोपाल
ने क्रमश:
विवेकानन्द, ब्रह्मानन्द, अदभुतानन्द,
अभेदानन्द, रामकृष्णानन्द,
अद्वैतानन्द नामक सन्यासी बनकर
सनातन धर्म को गौरान्वित किया।
15
अगस्त सन 1886
की रात में गले
के रोग के पीड़ित हो श्री रामकृष्ण ने
महासमाधि ले ली,
परंतु महासमाधि में गया केवल
उनका पंच भौतिक शरीर।
उनके मार्मिक वचन आज
संसार भर में
कोने-कोने में गूँज
रहे हैं और उनसे
असंख्य जीवों का उद्धार हो रहा है।
बहुत ही भाव पूर्ण जानकारी मिली .. मैं यहाँ गुरुजी "रामकृष्ण परमहंस" जी की "भाव अवस्था" के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए आए किंतु पूरा लेख पढ़ने के लिए आकर्षित कर गया... बहुत सुन्दर भाव...
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