Monday, June 25, 2012

गहना कर्मणोगति (कर्म फल सिद्धान्त) कर्म की गति गहन हैं


भारतीय संस्कृति की मान्यता है कि आज मनुष्य जिस भी सुख दुख की परिस्थिति में है वह उसके पुराने जन्मों के कर्मों को परिणाम है। इतिहास में बड़े-बड़े महामानवों ने भी अपने कर्म फलों की हँसते-हँसते भोगा है। जब र्इसा को क्रूस पर चढ़ाया जाने लगा तो उन्होंने कोर्इ शिकायत नहीं की अपितु प्रसन्नतापूर्वक उसको स्वीकार किया। उस समय उनके मुँह से निकले ये शब्द सहनशीलता करूणा की पराकाष्ठा को दर्शाते हैं, ‘‘हे र्इश्वर इन अबोध मनुष्यों को क्षमा करना क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या करने जा रहे हैं।’’ इसी प्रकार गुरू अर्जुन देव पर मुगलों ने भीषण अत्याचार किए। जंटागीर द्वारा कैद में गुरू जी को तरह-तरह की यातनाएँ दी गर्इ। उबलती देग में उबाला गया, गर्म तवे पर बिठाकर गर्म रेत सारे बदन पर डाली जाती रही। परंतु वो चुपचाप सभी कष्ट सहते रहे और ये वाक्य बोलते रहें, ‘‘तेरा कीआ मीठा लागे, हरि नाम पदारथ नानक मांगे।’’ 

मनुष्य का जीवन एक खेत है, जिसमे कर्म बोए जाते हैं और उन्ही के अच्छे-बुरे फल काटे जाते हैं। जो अच्छा कर्म करता है, वह अच्छे फल पाता है। बुरे कर्म करने वाला बुरार्इ समेटता है। कहावत है, आम बोएगा वह आम खाएगा, बबूल बोएगा वह कांटे पाएगा। बबूल बोकर आम प्राप्त करना जिस प्रकार प्रकृति का सत्य नही, उसी प्रकार बुरार्इ के बीज बोकर भलार्इ पा लेने की कल्पना भी नही की जा सकती। 

प्रारब्धों का भुगतान

इस समय व्यक्ति का जीवन जो कुछ है वह उसके प्रारब्धों के कारण है यदि व्यक्ति अच्छी स्थिति में है ये भी प्रारब्ध है और यदि व्यक्ति बुरी स्थिति में है वह भी उसके प्रारब्ध है क्या इन कारणों से बचने का कोर्इ हल है? क्या इन प्रारब्धों को किसी प्रकार काटा जा सकता है?
किसी भी प्रकार के प्रारब्ध को काटना सरल नहीं है जप-तप-तीर्थ दान-स्नान इत्यादि बहुत से क्रिया कलापों द्वारा पाप से मुक्ति की बात शास्त्रों में आती है इस तथ्य में सच्चार्इ तो अवश्य है परन्तु यह तभी सम्भव है जब मनुष्य अपने किए दुष्कर्मों के लिए प्रायश्चित पश्चाताप करें तथा भविष्य में नए कुकर्म करने का संकल्प करें यदि व्यक्ति ऐसा नहीं करता तो उसके द्वारा किए गए समस्त आध्यात्मिक क्रियाकलाप व्यर्थ हो जाते हैं

फिर भी पूर्वकाल में मूर्खतावश जो कुछ भी  हम बैठे है, उसके परिणाम तो भोगने ही होंगे। र्इश्वरीय न्याय तो अपना कार्य करेगा ही। संचित  और क्रियमाण कर्म तो नष्ट हो जायेगें पर प्रराब्ध तो एक बँधी हुर्इ फाइल की तरह साथ-साथ चलता है। कभी-2 कोर्इ समर्थ गुरू आता है, उस गुरू की कृपा होती है, तो वह प्रराब्ध भी उसकी कृपा से घटता चला जाता है-परिष्कृत होता चला जाता है। फिर मनुष्य साक्षी भाव में जीने लगता है। शरीर कष्ट , कष्ट नही लगता। सदा आन्नद भाव से जीने की मन में इच्छा होती है। कष्ट आते हैं तो साधक उनहे तप बना लेता है। कर्म विधान की भी अवहेलना नही होती। 
सद्कार्यों से पाप क्षीण हो जाते हैं
     दो मित्र थे- एक कुमार्गी और कुसंगी तो दूसरा सुमार्गी और सुसंगी। दोनों अपनी-अपनी राह पर जा रहे थे। मार्ग में कुसंगी को स्वर्णमुद्रा मिली और सुसंगी को कांटा चुभा। कुछ दूरी पार कर दोनों मित्र मिले। कुसंगी मित्र ने अपने सुमार्गी मित्र से पूछा, ‘‘मित्र तुझे धर्म मार्ग पर चलने से क्या मिला?’’
     सुमार्गी मित्र ने बड़ी पीड़ा के साथ कहा, ‘‘मुझे रास्ते में तीक्ष्ण कांटा चुभा, जिसकी वेदना अभी तक हो रही है।’’
     फिर उसने कुमार्गी मित्र से पूछा, ‘‘मित्र, तुझे क्या मिला?’’
     ‘‘मुझे यह स्वर्ण मुद्रा मिली है।’’ उसने बड़े अभिमान के साथ कहा। सुमार्गी मित्र को बड़ा आश्चर्य हुआ। सुमार्ग का फल कांटा और कुमार्ग का फल स्वर्णमुद्रा। अंत में वे दोनों एक ज्ञानी संतक पास शंका के समाधान के लिए पहुंचे।
संत ने दोनों का कहना बड़े प्रेम से सुना। उस पर उन्होंने गहरार्इ से चिंतन किया। फिर उन्होंने कुमार्गी मित्र की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘बेटा तुम्हें तो तुम्हारे पूर्व के पुण्य कर्मों के बदले पूरा राज्य मिलने वाला था। परंतु तुम्हारे कुकर्मों से तुम्हारा पुण्य क्षीण हो गया और राज्य के बदले केवल एक स्वर्ण मुद्रा मिली है। अत: वस्तुत: तुम्हें लाभ नहीं अपितु बहुत बड़ी हानि हुर्इ है। कुकर्मो से तुम पूरा राज्य गंवा बैठे  हो।’’
फिर संत ने सुमार्गी मित्र को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘ तुम्हें अपने पूर्व जन्म के जघन्य पापों के कारण इस जन्म में सूली मिलने वाली थी, परंतु सुमार्ग एवं सत्संग के प्रताप से तुम्हें केवल कांटा ही चुभा है। दूसरे शब्दों में तुम्हारे इस जन्म के सद्कार्यों से तुम्हारे भयानक पाप क्षीण हो गए है। तुम्हें सद्कार्यों से बड़ा लाभ हुआ है।


कर्मफल सिद्धांत
हमारा कोर्इ भी कर्म फल निष्फल नहीं होता। देर-सवेर उसका फल हमें मिलता ही है। हम किसी को गाली दें तो वह हमें थप्पड़ मार देता है। कर्म का फल तुरंत मिल गया। कुछ उल्टा-सीधा खा पी लें तो उसका फल कुछ दिनों या वर्षो बाद शरीर में रोग के रूप में फूटता है। इसी प्रकार कुछ कर्मो का फल इसी जीवन में मिल जाता है जबकि कुछ का अगले जन्मों में। भगवान के यहाँ देर है पर अंधेर नहीं।
भगवान को हम किसी भी नाम से पुकारें, उसे निराकार मानें या साकार, पर यह तो मानना ही होगा कि सब कुछ उसी की कृपा से होता है।
र्इशावास्यमिदं सर्वं य​ित्कंच जगत्यां जगत्-इस संसार में जो कुछ भी है, कण-कण में रोम-रोम में र्इश्वर का वास है। वही सारे संसार का निंयता है, नियामक है। हम सारे संसार को भले ही धोखा दे लें पर र्इश्वर को धोखा नहीं दे सकते। हमारे कर्मो का फल तो हमें अवश्य ही भोगना पड़ेगा। हमारे जीवन में जो भी अच्छी-बुरी परिस्थितियाँँ आताी है वे भी हमारे कर्मो का फल है। पूर्व जन्मों के कर्मो के अनुसार ही हमें इस जन्म में विभिन्न परिस्थितियों का सामना करना होता है। कोर्इ अच्छे समृद्ध संस्कारी परिवार में जन्म लेता है, कोर्इ दुराचारी अथवा निर्धन परिवार में। किसी को अनेकानेक सुख-सुविधाएँ सरलता से उपल्बध होती है, तो कोर्इ सदैव अभाव कष्ट में ही रहता है। इस सबके लिए हम किसी अन्य को दोष नहीं दे सकते। अब इस जन्म में भी यदि हम खराब कर्म करते रहेंगे तो अगल जन्म में हमें जीव-जंतुओं की जाने कितनी योनियों में रहकर कष्ट भोगने पड़ेंगे और फिर से मनुष्य शरीर मिला तो संभव है कि उस समय और अधिक विकट परिस्थितियों का सामना करना पड़े। इसके विपरीत यदि अच्छे कर्म करेंगे तो अगले जीवन में और अधिक सुखद परिस्थितियाँ प्राप्त होंगी।
हमें र्इश्वर के अस्तित्व और कर्मफल के सिद्धांत को सदैव ध्यान मेंरखना चाहिए। यदि हम इससे आँखें फेरने का प्रयास करेंगे तो केवल स्वंय को ही धोखा देते रहेंगे। फिर हम तो स्वंय को पहचान पाएंगे और धर्म के वास्ततिक स्वरूप को।
यह मानव जीवन हमें कर्म करने के लिए मिला है। इस योनि में रहते हुए ही हम पूर्वजन्म के कर्मो के फल भी भोगते रहते है और साथ ही नए कर्म भी करते है। शेष सभी योनियाँ तो केवल भोग योनियाँ ही है। वहाँ तो कोर्इ नया कर्म होता ही नहीं, मात्र सामान्य जीवनचर्या ही चलती रहती हैं अब यह हमारे उपर है कि हम किस प्रकार के कर्म करें। परमात्मा ने हमें एक सुअवसर प्रदान किया है कि सत्कर्म करते हुए हम अपने जीवन को उन्नति के मार्ग पर ले जाएं। कुकर्मो द्वारा इसका सर्वनाश करें। भगवान ने अपनी समस्त शक्तियों के साथ अपने प्रतिनिधि के रूप में हमें इस संसार में भेजा है जिससे हम सभी प्राणियों के कल्याण हेतु अपनी प्रतिभा क्षमता का नियोजन कर सकें। अपने पुरूषार्थ से अपने पाप कर्मो का प्रायश्चित भी करें और सत्कर्मो द्वारा पुण्यफल भी प्राप्त करें। इस प्रकार हम स्वंय को पहचानें और पूर्ण आस्था र्इश्वर विश्वास के साथ कर्मपथ पर बढ़ें। हमें पग-पग पर र्इश्वरीय सहायता भी मिलती रहेगी। र्इश्वर केवल उन्ही की सहायता करता है जो अपनी सहायता स्ंवय करना चाहते है। हमें सतर्क रहकर इसी विश्वास के साथ अपनी जीवनचर्या का निर्धारण करना होगा तभी हम सफलतापूर्वक वर्तमान चुनौतियों से पार पा सकेंगे।
                                       (जगदीश पंड़ित)
 

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