प्रभु अपने अनन्त रूपो में किसी एक का युगानुरूप प्राकट्य
करते है
हाँ उनके
हर अवतार
का एक
ही उद्देश्य
रहता है- युग का परिवर्तन। अपने इसी शाश्वत संकल्प के पूरा करने के लिए र्इश्वरीय चेतना ‘‘महर्षि श्री राम’’ के रूप में अवतरित हुई
आश्विन कृषण त्रयोदशी विक्रमी
संवत् 1967 (20 सितम्बर 1911) को स्थूल शरीर से आँवलखेड़ा ग्राम जनपद आगरा जो जलसेर मार्ग पर आगरा से पंद्रह मील की दूरी पर स्थित है, में जन्मे श्रीराम जी का बाल्यकाल-कैशोर्य काल ग्रामीण परिसर
में ही
बीता। वे जन्मे तो थे एक जमींदार घराने में, जहाँ उनके पिताश्री पंñ रूपकिशोर जी शर्मा आसपास के दूर-दराज के राजघरानों के
राजपुरोहित, उद्भट विद्वान, भागवात कथाकार थे किन्तु, उनका अंत:करण मानव मात्रा की पीड़ा से सतत विचलित रहता था। साधना
के प्रति उनका झुकाव बचपन में ही ई देने
लगा। जब
वे अपने
सहपाठियों को, छोटे बच्चों को अमराइयों में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का
शिक्षण दिया करते थे। छटपटाहट के कारण हिमालय के ओर भाग निकलने व पकड़े जाने पर उनने संबंधियो को बताया कि हिमालय ही उनका घर है एवं वहीं वे जा रहे थे। किसे मालूम था कि हिमालय की ऋषि चेतनाओं का समुच्चय बनकर आयी यह सत्ता वस्तुत: अगले दिनों अपना घर वहीं बनाएगी। जाति-पाँति का कोर्इ भेद नहीं। जातिगत मूढ़ता भरी मान्यता से
ग्रसित तत्कालीन भारत
के ग्रामीण
परिसर में एक अछूत वृद्ध महिला की जिसे कुष्ठ रोग हो गया था, उसी के टोले में जाकर सेवाकर उनने घरवालों का विरोध तो मोल ले लिया पर अपना व्रत नहीं छोड़ा। उस महिला ने स्वस्थ होने पर उन्हें ढेरों आशीर्वाद दिये। एक अछूत कहलाने वाली जाति का व्यक्ति जो उनके आलीशान घर में घोड़ों की मालिश करने आता था, एक बार कह उठा कि मेरे घर कथा कौन कराने आएगा, मेरा ऐसा सौभाग्य कहाँ।
नवनीत जैसे हृदय वाले पूज्यवर उसके घर जा पहुँचे एवं कथा विधन से कर पूजा की, उसको स्वच्छता का पाठ सिखाया, जबकि सारा गाँव उनके विरोध में बोल रहा था।
किशोरावस्था में ही समाज सुधार की रचनात्मक प्रवृत्तियाँ उन्होने चलाना
आरम्भ कर दिया था। औपचारिक शिक्षा पाँचवी तक ही पायी थी किन्तु, उन्हें इसके बाद आवश्यकता भी नहीं थी क्योंकि जो जन्मजात प्रतिभा सम्पन्न
हो वह
स्कूली पाठ्यक्रम तक
सीमित कैसे रह सकते थे। हाट-बाजारों में जाकर स्वास्थ्य-शिक्षा प्रधन परिपत्रा बाँटना, पशुधन को कैसे सुरक्षित रखें तथा स्वावलम्बी कैसे
बनें, इसके छोटे-छोटे पैम्फलेट्स लिखने, हाथ की प्रेस से छपवाने के लिए उन्हें किसी शिक्षा की आवश्यकता नहीं थी। वे चाहते थे, जनमानस आत्मावलम्बी बने, राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान उसका
जागे, इसलिए गाँव में जन्मे इस लाल ने नारी शक्ति व बेराजेगार युवाओं
के लिए
गाँव में
ही एक
बुनताघर स्थापित किया
व उसके
द्वारा हाथ से कैसे कपड़ा बुना जाय अपने पैरो पर कैसे खड़ा हुआ जाए, यह सिखाया! पंद्रह वर्ष की आयु में वसंत पंचमी की वेला में सन् 1926 में उनके घर की पूजा स्थली में, जो उनकी नियमित उपासना का तब से आगरा थी, जबसे महामना पंñ मदन मोहन मालवीय जी ने उन्हें काशी में गायत्री मंत्र
की दीक्षा
दी थी, उनकी गुरुसत्ता का
आगमन हुआ
अदृश्य छायाधरी सूक्ष्म
रूप में।
उनने प्रज्जवलित दीपक की लौ में से स्वयं को प्रकट कर उन्हें उनके द्वारा विगत कर्इ जन्मों में संपन्न क्रिया कलापों का दिग्दर्शन कराया तथा उन्हें बताया कि वे दुर्गम हिमालय से आये हैं एवं उनसे अनेकानेक ऐसे क्रियाकालाप कराना चाहते हैं, जो अवतारी स्तर की ऋषि सत्ताँए उनसे अपेक्षा रखती हैं। चार बार कुछ दिन से लेकर एक साल तक की अवधि तक हिमालय
आकर रहने, कठोर तप करने का भी उनने संदेश दिया एवं उन्हें तीन संदेश दिए- 1. गायत्री महाशक्ति
के चौबीस-चौबीस लक्ष के चौबीस महा-पुरश्चरण जिन्हें पाँच
छटाक गौ
व सवा
सेर छाछ
के प्रतिदिन
के आहार
के कठोर
तप के
साथ पूरा
करना था।
2. अखण्ड घृतदीप की स्थापना एवं
जन-जन
तक इसके
प्रकाश को फैलाने के लिए समय आने पर ज्ञानयज्ञ अभियान चलाना, जो बाद में अखण्ड ज्योति पत्रिका के
1938 में प्रथम प्रकाशन से लेकर विचार-क्रांति अभियान के विश्वव्यापी होने के रूप में प्रकट तथा 3. चौबीस महापुरश्चरणों के दौरान युगधर्म का
निर्वाह करते हुए राष्ट्र के निमित्त भी स्वयं को खपाना, हिमालय यात्रा भी करना तथा उनके संपर्क से आगे का मार्गदर्शन लेना।
यह कहा जा सकता है कि युग निर्माण मिशन, गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान, पूज्य गुरुदेव जो सभी एक दूसरे के पर्याय हैं, की जीवन यात्रा का यह एक महत्वपूर्ण मोड़
था, जिसने भावी रीति-नीति का निर्धरण कर
दिया। पूज्य गुरुदेव अपनी पुस्तक ‘हमारी वसीयत और विरासत’ में लिखते हैं कि ‘‘प्रथम मिलन के दिन समर्पण सम्पत्रा हुआ।
दो बातें
गुरु सत्ता
द्वारा विशेष रूप से कही गर्इ, संसारी लोग क्या करते हैं और क्या कहते हैं, उसकी ओर से मुहँ मोड़कर निर्धरित लक्ष्य की ओर एकाकी साहस के बलबूत चलते रहना एवं दूसरा यह कि अपने को अधिक पवित्रा ओर
प्रखर बनाने की तपश्चर्या में
जुट जाना- जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह कर आत्मानुशासन सीखना। इसी से वह सामर्थ्य विकसित होगी जो विशुद्धत: परमार्थ प्रयोजनों में
नियोजित होगी। वसंत पर्व का यह दिन गुरु अनुशासन का अवधरण ही हमारे लिए नया जन्म बन गया। सदगुरु की प्राप्ति हमारे जीवन का अनन्य एवं परम सौभाग्य रहा।’’
राष्ट्र के परावलम्बी होने
की पीड़ा
भी उन्हें
उतनी ही
सताती थी जितनी कि गुरुसत्ता के आदेशानुसार तपकर सिद्धियों के उपार्जन की ललक उनके मन में थी। उनके इस असमंजस को गुरुसत्ता ने
ताड़कर परावाणी से
उनका मार्गदर्शन किया कि युगधर्म की महत्ता व समय की पुकार देख सुन कर तुम्हें अन्य आवश्यक कार्यों को
छोड़कर अग्निकाण्ड में
पानी लेकर
दौड़ पड़ने
की तरह
आवश्यक कार्य भी करने पड़ सकते हैं। इसमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी
के नाते
संघर्ष करने का भी संकेत था। 1927 से 1933 तक का समय उनका एक सक्रिय स्वयं सेवक-स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बीता, जिसमें घरवालों के
विरोध के बावजूद पैदल लम्बा रास्ता पारकर वे आगरा के उस शिविर में पहुँचे, जहाँ स्वतन्त्रता आन्दोलन का
शिक्षण दिया जा रहा था, अनेकानेक मित्रों-सखाओं-मार्गदर्शकों के साथ भूमिगत हो कार्य करते रहे तथा समय आने पर जेल भी गये। छह-छह
माह की
उन्हें कर्इ बार जेल हुर्इ। जेल में भी वे बच्चों को शिक्षण देकर व स्वयं अंग्रेजी सीखकर
लौटे। आसन-सोल जेल में वे श्री जवाहर लाल नेहरू की माता श्रीमती स्वरूपरानी नेहरू, श्री रफी अहमद किदवर्इ, महामना मालवीय जी, देवीदास गाँधी
जैसी हस्तियों के साथ रहे व वहाँ से एक मूलमंत्र सीखा जो मालवीय जी ने दिया था कि जन-जन की साझेदारी बीस पैसा नित्य या एक दिन की आय एक माह में तथा एक मुट्ठी अन्न रोज डालने के माèयम से धर्मघट की स्थापना का स्वरूप लेकर लाखों-करोड़ों की भागीदारी वाला गायत्री परिवार बनाता चला गया, जिसका आधर था प्रत्येक व्यक्ति की यज्ञीय भावना का उसमें समावेश।
स्वतंत्राता की लड़ार्इ के दौरान कुछ उग्र दौर भी आये, जिनमें शहीद भगत¯सह को फाँसी दिये जाने पर फैले जन आक्रोश के समय उनने भी वे कार्य किये, जिनसे आक्रान्ता शासकों
के प्रति
असहयोग जाहिर होता था।, नमक आन्दोलन के दौरान वे आततायी शासकों के समक्ष झुके नहीं, दुष्ट अंग्रेज मारते
रहे परंतु
समाधि स्थिति को प्राप्त राष्ट्र देवता के पुजारी को बेहोश होना स्वीकृत था
पर आंदोलन
से पीठ
दिखाकर भागना नहीं। बाद में फिरंगी सिपाहियों के जाने पर लोग उठाकर घर लेकर आए। जरारा आन्दोलन के दौरान उनने झण्डा छोड़ा नहीं जबकि, फिरंगी उन्हें पीटते रहे, झण्डा छीनने का प्रयास करते रहे। उनने मुहँ से झण्डा पकड़ लिया, गिर पड़े, बेहोश हो गये पर झण्डे का टुकड़ा चिकित्सकों द्वारा
दाँतों में भींचे गये टुकड़े के रूप में जब निकाला गया तब सब उनकी सहनशक्ति देखकर आश्चर्य चकित रह गये। उन्हें तब से ही आजादी के मतवाले उन्मत्त श्रीराम
मत्त नाम
मिला। अभी भी आगरा में उनके साथ रहे या उनसे कुछ सीख लिए अगणित व्यक्ति उन्हें मत्त जी नाम से ही जानते हैं। लगानबन्दी के
आँकड़े एकत्र करने के लिए उनने पूरे आगरा जिले का दौरा किया व उनके द्वारा प्रस्तुत वे
आँकड़े तत्कालीन संयुक्त
प्रान्त के मुख्य मंत्री श्री गोविन्द वल्लभ
पंत द्वारा
गाँधी जी के समक्ष पेश किये गये। बापू ने अपनी प्रशस्ति के साथ वे प्रामाणिक आँकड़े ब्रिटिश पार्लियामेण्ट भेजे, इसी आधर पर पूरे संयुक्त प्रान्त
के लगान
माफी के
आदेश प्रसारित
हुए। कभी
जिनने अपनी इस लड़ार्इ के
बदले कुछ
न चाहा
उन्हें सरकार ने अपना प्रतिनिधि
भेजकर
पचास वर्ष
बाद ताम्रपत्र
देकर शांतिकुज
में सम्मानित
किया। उसी सम्मान व स्वाभिमान के साथ सारी सुविधाएँ व पेंशन उन्होने प्रधान
मंत्री राहत फण्ड, हरिजन फण्ड के नाम समर्पित कर दीं। वैरागी जीवन का, सच्चे राष्ट्र संत होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है?
1935 के बाद उनके जीवन का नया दौर शुरु हुआ, जब गुरुसत्ता की प्रेरणा से वे श्री अरविन्द से मिलने पाण्डिचेरी, गुरुदेव ऋषिवर रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने शांति निकेतन तथा बापू से मिलने साबरमती आश्रम अहमदाबाद गये। सांस्कृतिक आèयात्मिक मोर्चे पर राष्ट्र को कैसे परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त किया जाय, वह निर्देश लेकर अपना अनुष्ठान यथावत् चलाते हुए उनने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया जब आगरा में ‘सैनिक’ समाचार पत्र के कार्यवाहक संपादक के रूप में श्री कृष्णादत्त पालीवाल जी ने उन्हें अपना सहायक बनाया। बाबू गुलाब राय व पालीवाल जी से सीख लेते हुए सतत् स्वाèयायरत रह कर उनने अखण्ड ज्योति नामक पत्रिका का पहला अंक 1937 की वसंत पंचमी पर प्रकाशित किया। प्रयास पहला था, जानकारियाँ कम थी अत: पुन: सारी तैयारी के साथ विधिवत् 1940 से जनवरी से उनने परिजनों के नाम पाती के साथ अपने हाथ से बने कागज पर पैर से चलने वाली मशीन से छापकर ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका का शुभारंभ किया जो पहले तो दो सौ पचास पत्रिका के रूप में निकली, किन्तु क्रमश: उनके अथक प्रयासो व हृदय स्पश्री लेखनी द्वारा बढ़ती-बढ़ती नवयुग के मत्स्यावतार की तरह आज दस लाख से भी अधिक संख्या में विभित्रा भाषाओं में छपती व एक करोड़ से अधिक व्यक्तियों द्वारा
पढ़ी जाती
है।
पत्रिका के साथ-साथ ‘मैं क्या हूँ’ जैसी पुस्तकों का लेखन आरम्भ हुआ, स्थान बदला, आगरा से मथुरा आ गये, दो-तीन घर बदलकर घीयामण्डी में जहाँ आज अखण्ड ज्योति संस्थान है, आ बसे। पुस्तकों का
प्रकाशन व कठोर तपश्चर्या, ममत्व विस्तार तथा पत्रों द्वारा जन-जन के अंत: स्थल को छूने की प्रक्रिया चालू रही। साथ देने आ गयी परम वंदनीया माताजी भगवती देवी शर्मा, जिन्हें भविष्य मे अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका
अपने आराèय इष्ट गुरु के लिए निभानी थी। उनके मर्मस्पश्री पत्रों ने, भाव भरे आतिथ्य ने, हर किसी को जो दुखी था- पीड़ित था, दिये गये ममत्व भरे परामर्श ने
गायत्री परिवार का आधार खड़ा किया, इसमें कोर्इ सन्देह नहीं। यदि विचारक्रांति में साहित्य ने मनोभूमि बनायी तो भावात्मक क्रांति
में ऋषियुगल के असीम स्नेह ने ब्राह्मणत्व भरे जीवन ने शेष बची भूमिका निभायी। ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका लोगों के मनों को प्रभावित करती रही, इसमें प्रकाशित ‘गायत्री चर्चा’ स्तम्भ से लोगों को गायत्री व यज्ञमय जीवन जीने का संदेश मिलता रहा, साथ ही एक आना से लेकर छह आना सीरिज की अनेकानेक लोकोपयोगी पुस्तकें छपती चली गयीं। इसी बीच हिमालय के बुलावे भी आये, अनुष्ठान भी चलता रहा जो पूरे विधि विधान के साथ 1953 में गायत्री तपोभूमि की स्थापना, 108 कुण्डी यज्ञ व उनके द्वारा दी गयी प्रथम दीक्षा के साथ समाप्त हुआ। गायत्री तपोभूमि की स्थापना के निमित्त धन की आवश्यकता पड़ी तो परम वंदनीया माताजी ने जिन्होने हर कदम पर अपने आराèय का साथ निभाया, अपने सारे जेवर बेच दिये, पूज्यवर ने जमींदार के बाण्ड बेच दिये एवं जमीन लेकर अस्थायी स्थापना कर दी गयी। धीरे-धीरे उदाचेताओं के माèयम से गायत्री तपोभूमि एक साधनापीठ बन गयी। 2400 तीर्थो के जल व रज की स्थापना वहाँ की गयी, 2400 करोड़ गायत्री मंत्र लेखन वहाँ स्थापित हुआ, अखण्ड अग्नि हिमालय के एक अति पवित्र स्थान से लाकर स्थापित की गयी जो अभी तक वहाँ यज्ञशाला में जल रही हैं। 1941 से 1971 तक का समय परमपूज्य गुरुदेव का गायत्री तपोभूमि, अखण्ड ज्योति संस्थान में सक्रिय रहने का समय है। 1956 में नरमेध् यज्ञ, 1958 में सहस्त्रकुण्डी यज्ञ करके लाखों गायत्री साधको को एकत्र कर उनने गायत्री परिवार का बीजारोपण कर
दिया। कार्तिक पूर्णिमा
1958 में आयोजित इस कार्यक्रम में
दस लाख
व्यक्तियों ने भाग लिया, इन्हीं के माèयम से देश भर में प्रगतिशील गायत्री
परिवार की दस हजार से अधिक शाखाएँ स्थापित हो
गयी। संगठन
का अधिकाधिक
कार्यभार पूज्यवर परमवंदनीया माताजी पर सौंपते चले गये एवम् 1959 में पत्रिका का संपादन उन्हें देकर पौने दो वर्ष के लिए हिमालय चले गये, जहाँ उन्हें गुरुसत्ता से मार्गदर्शन लेना था, तपोवन नंदनवन में ऋषियों से साक्षात्कार करना
था तथा
गंगोत्री में रहकर आर्ष ग्रन्थों का भाष्य करना था। तब तक वे गायत्री महाविद्या
पर विश्वकोश
स्तर की
अपनी रचना
गायत्री महाविज्ञान के
तीन खण्ड
लिख चुके
थे, जिसके अब तक प्राय: पैंतीस संस्करण छप
चुके हैं।
हिमालय से लौटते ही उनमें महत्वपूर्ण निधि के
रूप में
वेद, उपनिषद्, स्मृति, आरण्यक, ब्राह्मण, योगवाशिष्ठ, मंत्र महाविज्ञान, तंत्र महाविज्ञान जैसे
ग्रन्थों को प्रकाशित कर देव संस्कृति की
मूल थाती
को पुनर्जीवन
दिया।
परमवंदनीया माताजी ने उन्हीं वेदों को पूज्यवर की इच्छानुसार 1992-93 में विज्ञान सम्मत आधर देकर पुनर्मुर्द्रित कराया एवं वे आज घर-घर में स्थापित हैं।
युग निर्माण योजना
व ‘युग निर्माण सतसंकल्प’ के रूप में मिशन का घोषणा पत्र 1983 में प्रकाशित हुआ।
तपोभूमि एक विश्वविद्यालय का रूप लेती चली गयी तथा अखण्ड ज्योति संस्थान एक
तप:पूत की निवास स्थली बन गया, जहाँ रहकर उनने अपनी शेष तप साधना
पूरी की थी, जहाँ से गायत्री परिवार का बीज डाला गया था। तपोभूमि में
विभिन्न शिविरों का
आयोजन किया जाता रहा, पूज्यवर स्वयं
छोटे-बड़े जन सम्मेलनों, यज्ञायोजनों के
द्वारा विचार क्रांति की पृष्ठभूमि बनाते रहे, पूरे देश में 1970-71 में पाँच 1008 कुण्डी यज्ञ आयोजित हुए। स्थायी रूप से विदार्इ लेते
हुए एक
विराट सम्मेलन (जून 1971) में परिजनों को विशेष कार्य भार सौंप, परम वंदनीया माताजी को शांतिकुंज हरिद्वार
में अखण्ड
दीप के
समक्ष तप हेतु छोड़ कर स्वयं हिमालय चले गये। एक वर्ष बाद वे गुरुसत्ता का
संदेश लेकर लौटे एवं अपनी आगामी बीस वर्ष की क्रिया पदति बतायी। ऋषि परम्परा का
बीजारोपण, प्राण प्रत्यावर्तन संजीवनी व
कल्प साधनासत्रों का मार्गदर्शन जेसे
कार्य उन्होने शांतिकुंज
में सम्पत्र
किए।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थापना
अपनी हिमालय
की इस
यात्रा से लौटने के बाद ब्रह्मवर्चस शोध्
संस्थान की थी, जहाँ विज्ञान और
अèयात्म के समन्वयात्मक प्रतिपादनों पर
शोध् कर
एक नये
धर्म वैज्ञानिक
धर्म के
मूलभूत आधर रखे जाने थे। इस संबंध् में पूज्यवर ने विराट् परिमाण में साहित्य लिखा, अदृश्य जगत के अनुसंधन से लेकर मानव की प्रसुप्त क्षमता
के जागरण
तक साधना से
सिध्दि एवं दर्शन-विज्ञान के तर्क, तथ्य प्रमाण के आधर पर प्रस्तुतीकरण तक। इसके लिए एक विराट ग्रन्थागार बना व एक सुसज्जित प्रयोगशाला। वनौषाधि उद्यान भी
लगाया गया तथा जड़ी बूटी, यज्ञविज्ञान तथा मंत्र शक्ति पर प्रयोग हेतु साधको पर परीक्षण प्रचुर
परिमाण में किये गये। निष्कर्षो ने प्रमाणित किया कि èयान साधनामंत्र चिकित्सा व
यज्ञोपैथी एक विज्ञान सम्मत विध है। गायत्री नगर क्रमश: एक तीर्थ, संजीवनी विद्या
के प्रशिक्षण
की एकेडमी
का रूप
लेता चला
गया एवं
जहाँ 9-9 दिन के साधनाप्रधान, एक-एक
माह के
कार्यकर्त्ता निर्माण हेतु
युग शिल्पी सत्र सम्पत्र होने लगे।
कार्यक्षेत्र में विस्तार हुआ। स्थान-स्थान पर शक्ति पीठें विनिर्मित हुर्इं जिनके निर्धरित क्रियाकलाप थे- सुस्कारिता, आस्तिकता संवर्ध्न एवं
जन जागृति
के केन्द्र
बनना। ऐसे केन्द्र जो 1980 में बनना आरंभ हुए थे, प्रज्ञा संस्थान- शक्तिपीठ-प्रज्ञामण्डल-स्वाèयाय मंडल के रूप में पूरे देश व विश्व में फैलते चले गये। 83 देशों में गायत्री परिवार
की शाखाएँ
फैल गयीं, 2400 से अधिक भारत में निज के भवन वाले संस्थान विनिर्मित
हो गये, वातावरण गायत्रीमय होता
चला गया।
जिनके निर्धरित क्रियाकलाप थे- सुस्ंकारिता, आस्तिकता संवर्ध्न एवं
जन जागृति
के केन्द्र
बनना। ऐसे केन्द्र जो 1980 में बनना आरंभ हुए थे, प्रज्ञा संस्थान- शक्तिपीठ-प्रज्ञामण्डल-स्वाèयाय मंडल के रूप में पूरे देश व विश्व में पफैलते चले गये। 83 देशों में गायत्री परिवार
की शाखाएँ
फैल गयीं, 2400 से अधिक भारत में निज के भवन वाले संस्थान विनिर्मित
हो गये, वातावरण गायत्रीमय होता
चला गया।
परमपूज्य गुरुदेव ने
सूक्ष्मीकरण में प्रवेश कर 1984 में ही पाँच वर्ष के अंदर अपने सारे क्रिया कलाप को समेटने की घोषणा कर दी। इस बीच कठोर तप साधनाकर मिलना जुलना कम कर दिया तथा क्रमश: प्रत्यक्ष क्रिया
कलाप परमवंदनीया माताजी को सौंप दिये। राष्ट्रीय एकता सम्मेलनों, विराट दीप यज्ञों के रूप में नूतन विध को जन-जन को सौंप कर राष्ट्र देवता की कुण्डलिनी जगाने हेतु उनने अपने स्थूल शरीर छोड़ने व सूक्ष्म में
समाने की, विराट से विराटतम होने
की घोषणा कर गायत्री जयन्ती
2 जून 1990 को महाप्रयाण किया।
सारी शक्ति
वे परमवंदनीया माताजी को दे गये व अपने व माताजी के बाद संघशक्ति की प्रतीक लाल मशाल को ही इषट आराèय मानने का आदेश देकर ब्रह्मबीज से
विकसित ब्रह्मकमल की
सुवास को देव संस्कृति दिग्विजय
अभियान के रूप में आरंभ करने का माताजी को निर्देश दे
गये।
एक विराट श्रंद्धाजलि समारोह व शपथ समारोह जो हरिद्वार में सम्पन्न हुए, में लाखों व्यक्तियों ने
अपना समय
समाज के
नव निर्माण, मनुष्य में देवत्व के उदय व ध्रती पर स्वर्ग लाने का गुरु सत्ता का नारा साकार करने के निमित्त देने की घोषणा की। परमवंदनीया माताजी द्वारा भारतीय-संस्कृति को विश्वव्यापी बनाने, गायत्राी रूपी संजीवनी घर-घर पहुँचाने की घोषणा की गयी। वातावरण के परिशोध्न, सूक्ष्मजगत के नव निर्माण एवं
सांस्कृतिक व वैचारिक क्रांति के
निमित्त सौर ऊर्जा के दोहन द्वारा विशिष्ट प्रयोगों के माèयम से विशिष्ट मंत्रआहुतियों द्वारा सम्पत्रा किये गये इन अश्वमेधें ने सारी विश्ववसुध को
गायत्री व यज्ञमय, वासंती उल्लास से भर दिया। स्वयं परमवंदनीया माताजी ने अपनी पूर्व घोषणानुसार चार वर्ष तक परिजनों का मार्गदर्शन कर सोलह यज्ञों का संचालन स्थूल शरीर से किया व फिर भाद्रपद पूर्णिमा 19 सितम्बर 1994 महालय श्राद्धारंभ वाली पुण्य वेला में अपने आराèय के साथ एकाकार हो गयी। उनके महाप्रयाण के बाद दोनों ही सत्ताओं के
सूक्ष्म में एकाकार होने के बाद मिशन की गतिविधिया कर्इ
गुना बढ़ती
चली गयी
एवं जयपुर
के प्रथम
अश्वमेध् यज्ञ (नवम्बर92) से छब्बीसवें अश्वमेध् यज्ञ शिकागो (यूñ एसñ एñ जुलार्इ 95) तक प्रज्ञावतार का प्रत्यक्ष रूप सबको दीखने लगा है।
गुरुसत्ता के आदेशानुसार सतयुग के आगमन तक 108 महायज्ञ देवसंस्कृति को
विश्वव्यापी बनाने हेतु संपत्रा होने
हैं। युग
संधि महापुरश्चरण की अंतिम पूर्णाहुति उसी
के बाद
होगी। प्रथम पूर्णाहुति नवम्बर 1995 में कार्त्तिक पूर्णिमा के
अवसर पर
युगपुरूष पूज्यवर की
जन्मभूमि ऑवलखेड़ा में
मनायी जा रही हैं उनके द्वारा लिखे गये समग्र साहित्य के
वाड्.मय
का जो
सत्तर खण्ड़ों में
फैला है, विमोचन भी यहीं सम्पत्र हो
रहा है।
विनम्रता एवं ब्राह्मणत्व की कसौटी पर खरे उतरने वाले वरिष्ठ प्रज्ञापुत्रा ही उनके उत्तराधिकारी कहे जायेंगे, यह गुरुसत्ता का
उदघोष था एवं इस क्षेत्रा में बढ़ चढ़कर आदर्शवादी प्रतिस्पर्ध करने
वाले अनेकानेक
परिजन अब उनके स्वप्नों को
साकार करने आगे आ रहे हैं। ‘हम
बदलेंगे-युग बदलेंगे’ का उदघोष दिग-दिगन्त तक फैल रहा है एवं इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य, सतयुग की वापसी का स्वप्न साकार होता चला जा रहा है, यह स्पष्ट दिखार्इ दे रहा है।
(वाड.मय
29 से)
गुरु वंदना
जन्म लिया आँवल खेड़ा में सारा जगत् निहाल किया।
हे युग
ऋषि श्रीराम आपने सचमुच बड़ा कमाल किया।।
बचपन से ही थे तेजस्वी, कर्म तुम्हारे सब ओजस्वी,
तुम स्वतंत्र सैनिक
बन धए, मस्त रहे और मत्त कहाए।
सैनिक संत तपस्वी खुद को, हर साँचे में ढाल लिया।।
तुम दुनिया की पीर पी गए, युग के सच्चे पीर हो गए।
तपा दिया अपने जीवन को, जीवन कला सिखार्इ जग
को।
दीन-दु:खी को
गले लगाकर, जन-जन
को खुशहाल
किया।।
तुम्हें हिमालय
अति प्यारा
था, जीवन वैसा ही न्यारा था।
दुनियाँ भर
की हर
ऊँचार्इ, तुमने छोटी कर दिखलार्इ।।
छोटे से छोटे जीवन को, ऊँचा खूब उछाल दिया।।
दिव्य ज्ञान ध्रती पर लाए, युग के भागीरथ कहलाए।
मानव में देवत्व जगाने, इस धरती को स्वर्ग बनाने।
मानवता को दिव्य संपदा, देकर मालामाल किया।।
तप से सूक्ष्म जगत्
शेधित कर, नए सृजन की शक्ति जगाकर।
बदल गए दुनियाँ की
धरा, दे उज्जवल भवि”य
का नारा।
महाकाल बन करके तुमने, अपने वश में काल किया।।
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