सन 1861 में काशी के एक एकाकी कोने में एक महान आध्यात्मिक पुनरुत्थान का श्रीगणेश हुआ। साधारण लोक समाज इससे पूर्णत: अनभिज्ञ था। जिस प्रकार फूलों की सुगन्ध को छिपा कर नहीं रखा जा सकता, उसी प्रकार आदर्श गृहस्थ का जीवन चुपचाप व्यतीत करते लाहिड़ी महाशय अपने स्वाभाविक तेज को छिपाकर नहीं रख सके। भारत के कोने कोने से भक्त-भ्रमर इस जीवन्मुक्त सद्गुरु से सुधापान करने के लिये मँड़राने लगे।
लाहिड़ी महाशय को प्यार से ‘‘आनन्दमग्न बाबू’’ कहने वाले अंग्रेज ऑफिस सुपरिंटेन्डेन्ट के ध्यान में सबसे पहले यह बात आयी कि उनके कर्मचारी में कोर्इ अज्ञात श्रेष्ठ परिवर्तन आ रहा हैं।
‘‘सर, आप दु:खी लगते हैं। क्या बात है?’’ एक दिन सुबह लाहिड़ी महाशय ने अपने सुपरिंटेन्डेन्ट से पूछा।
‘‘इंग्लैण्ड में मेरी पत्नी गम्भीर रूप से बीमार है। मुझे बहुत चिंता हो रही है।’’
‘‘मैं आपको उनका कुछ समाचार ला देता हूँ।’’ लाहिड़ी महाशय वहाँ से चले गये और एक एकान्त स्थान में जाकर कुछ देरे बैठे रहे। जब वापस आये तो धीरज देने के अंदाज में मुस्करा रहे थे।
‘‘आपकी पत्नी की हालत सुधर रही है; अभी वे आपको पत्र लिख रही हैं।’’ सर्वज्ञ योगीवर ने पत्र के कुछ अंश भी सुना दिये।
‘‘आनन्दमग्न बाबू! उतना तो मैं पहले ही जान गया हूँ, कि आप साधारण मनुष्य नहीं हैं। फिर भी मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा है कि आप अपनी इच्छा मात्र से ही देश और काल की सीमाओं को मिटा सकते हैं।’’
अन्तत: वह पत्र आ पहुँचा। देखकर सुपरिंटेन्डेन्ट चकित रह गया कि पत्र में न केवल उसकी पत्नी के अच्छी होने का शुभ समाचार था, बल्कि उन्हीं शब्दों में वह वाक्य भी थे जो महान् गुरु ने कर्इ सप्ताह पूर्व कह सुनाये थे।
कुछ महीनों बाद पत्नी भी भारत आ गयी। जब लाहिड़ी महाशय से मुलाकात हुर्इ तो वह श्रद्धा और आदर के साथ उन्हें देखती ही रही। फिर बोली: ’’सर, महीनों पहले लंदन में अपनी रुग्णशय्या के पास तेजस्वी प्रकाश में मैंने आपको ही देखा था। उसी क्षण मैं पूर्ण स्वस्थ हो गयी! और थोड़े ही दिन बाद भारत की लम्बी समुद्र-यात्रा करने में समर्थ हो गयी।’’
दिन प्रति दिन महान् गुरु एक-दो साधकों को क्रिया योग की दीक्षा देते थे। अपने इन आध्यात्मिक कर्त्तव्यों एवं व्यावसायिक तथा पारिवारिक जीवन के उत्तरदायित्वों के अलावा वे शिक्षा के क्षेत्र में भी सोत्साह हिस्सा लेते थे। उन्होंने कर्इ घरों में छोटी-छोटी पाठशालाएँ शुरू करवा दी थीं और काशी के बंगाली टोला मुहल्ले में एक बड़े हाइस्कूल के विकास में सक्रिय योगदान दिया था। साप्ताहिक सभाओं में, जो बाद में ‘‘गीता-सभा’’ के नाम से प्रतिष्ठित हुर्इ, महान गुरु अनेक जिज्ञासुओं को शास्त्रों का अर्थ समझाते थे।
इन बहुमुखी गतिविधियों द्वारा लाहिड़ी महाशय उस सामान्य प्रतिवाद का उत्तर देने की चे”टा कर रहे थे: ‘‘व्यावसायिक और सामाजिक कर्त्तव्यों को निभाते-निभाते ध्यान-धारणा का समय ही कहाँ बचता है?’’ इस महान गृहस्थ-योगी गुरु का पूर्ण संतुतिल जीवन हजारों नर-नारियों के लिये प्रेरणा का स्त्रोत बना। केवल साधारण-सा वेतन पाते हुए भी, किफायती खर्च करते हुए ये आड़म्बरहीन गुरु, जिनके पास कोर्इ भी पहुँच सकता था, अत्यंत स्वाभाविक तरीके से सुखपूर्वक संयमित सांसारिक जीवन व्यतीत कर रहे थे।
साक्षात परमात्मा के आसन पर विराजमान होते हुए भी लाहिड़ी महाशय बिना किसी भेदभाव के सभी लोगों का आदर करते थे। जब उनके भक्त उन्हें प्रणाम करते, तो वे भी उत्तर में उन्हें नमस्कार करते। गुरु के पाँव छूने की प्राचीन प्रथा होते हुए भी वे स्वयं ही शिशु सुलभ विन्रमता के साथ दूसरों के पाँव छू लेते थे, पर दूसरों को कभी अपने पाँव नहीं छूने देते थे।
हर धर्म के लोगों को क्रिया योग दीक्षा का दान लाहिड़ी महाशय के जीवन की एक उल्लेखनीय विशि”टता थी। केवल हिंदू ही नहीं, बल्कि उनके प्रमुख शिष्यों में मुसलमान और र्इसार्इ भी थे। द्वैतवादी हो या अद्वैतवादी, चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी हो या किसी भी प्रचलित धर्म को न मानता हो, विश्वगुरु सबका निष्पक्ष रूप से स्वागत करते और उन्हें शिक्षा देते थे। उनके एक मुसलमान शिष्य अब्दुल गफूर खान अत्यंत ऊँची अवस्था में पहुँचे हुए थे। स्वयं सर्वोच्च ब्राह्मण जाति के होते हुए भी लाहिड़ी महाशय ने अपने समय की कट्टर जाति व्यवस्था को तोड़ने की दिशा में साहसिक कदम उठाये थे। जीवन के सभी क्षेत्रों के लोगों को इस गुरु की सर्वव्यापी छत्रछाया में आसरा मिलता था। सभी र्इश-प्रेरित संतो ंके समान ही लाहिड़ी महाशय ने भी समाज के पतित-दलितों के हृदयों में आशा की नयी किरण जगायी।
‘‘यह याद रखो कि तुम किसी के नहीं हो और कोर्इ तुम्हारा नहीं है। इस पर विचार करो कि किसी दिन तुम्हें इस संसार का सब कुछ छोड़कर चल देना होगा, इसलिये अभी से ही भगवान को जान लो,’’ महान गुरु अपने शिष्यों से कहते। ‘‘र्इश्वरानुभूति के गुब्बारे में प्रतिदिन उड़कर मृत्यु की भावी सूक्ष्म यात्रा के लिये अपने को तैयार करो। माया के प्रभाव में तुम अपने को हाड़-मांस की गठरी मान रहे हो, जो दु:खों का घर मात्र है।’’ अनवरत ध्यान करो ताकि तुम जल्दी से जल्दी अपने को सर्व-दु:ख-क्लेशमुक्त अनन्त परमतत्त्व के रूप में पहचान सको। क्रियायोग की गुप्त कुंजी के उपयोग द्वारा देह-कारागार से मुक्त होकर परमतत्त्व में भाग निकलना सीखो।’’
गुरुवर अपने विभिन्न शिष्यों को अपने-अपने धर्म के अच्छे परम्परागत नियमों का निष्ठा के साथ पालन करने के लिये प्रोत्साहित करते थे। मुक्ति की व्यावहारिक प्रविधि के रूप में क्रियायोग के सर्वसमावेशक स्वरूप के महत्व को स्पष्ट करने के बाद फिर लाहिड़ी महाशय अपने शिष्यों को अपने-अपने वातावरण एवं पालन-पोषण के अनुसार अपना जीवन जीने की स्वतन्त्रता देते थे।
वे कहते थे: ‘‘मुसलमान को रोज पाँच बार नमाज पढ़ना चाहिये। हिन्दू को दिन में कर्इ बार ध्यान में बैठना चाहिये। र्इसार्इ को रोज कर्इ बार घुटनों के बल बैठकर प्रार्थना करके फिर बाइबिल का पाठ करना चाहिये।’’
लाहिड़ी महाशय अत्यंत विचारपूर्वक अपने अनुयायियों को उनकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के अनुसार भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग या राजयोग के मार्ग पर चलाते थे। संन्यास लेने की इच्छा रखने वाले शि”यों को वे आसानी से उसकी अनुमति नहीं देते थे; हमेशा उन्हें संन्यास-जीवन की उग्र तपश्चर्या पर पहले भलीभाँति विचार कर लेने का परामर्श देते थे।
अपने शि”यों को वे शास्त्रों की अनुमानमूलक चर्चा में न उलझने का परामर्श देते थे। वे कहते: ‘‘केवल वही बुद्धिमान है, जो प्राचीन दर्शनों का केवल पठन-पाठन करने के बजाय उनकी अनुभूति करने का प्रयास करता है। ध्यान में ही अपनी सब समस्याओं का समाधान ढूँढ़ो। व्यर्थ अनुमान लगाते रहने के बदले र्इश्वर से प्रत्यक्ष सम्पर्क करो। शास्त्रों के किताबी ज्ञान से उत्पन्न मतांध धारणाओं के कचरे को अपने मन से निकाल फेंको और उसके स्थान पर प्रत्यक्ष अनुभूति के आरोग्यप्रद मीठे जल को अंदर आने दो। अन्तरात्मा के सक्रिय मार्गदर्शन से मन की तार को जोड़ लो; उसके माध्यम से बोलने वाली र्इश्वर-वाणी के पास जीवन की प्रत्येक समस्या का उत्तर है। अपने आप को संकट में डालने के मामले में मनुष्य की प्रतिभा का कोर्इ अंत प्रतीत नहीं होता, पंरतु उस परम दयालु र्इश्वर के पास सहायता की युक्तियों की भी कोर्इ कमी नहीं है।’’
एक दिन भगवतगीता पर लाहिड़ी महाशय का प्रवचन सुन रहे शिष्यों को उनकी सर्वव्यापकता की झलक देखेने को मिली। लाहिड़ी महाशय सकल स्पन्दनशील सृष्टि में व्याप्त कूटस्थ चैतन्य का अर्थ समझा रहे थे। तभी हठात् वे हाँफने लगे मानो उनका दम घुट रहा था, और साथ ही चिल्ला उठे:
‘‘जापान के समुद्र तट के पास मैं अनेक लोगों के शरीरों के माध्यम से डूब रहा हूँ।’’
कुछ दिनों बाद शिष्यों ने समाचार पत्रों में उस दिन जापान के पास डूबे एक जहाज में यात्रा कर रहे अनेक लोगों की डूबने से मृत्यु का समाचार पढ़ा।
अनेक दूर-दूर तक रहने वाले शिष्यों को अपने इर्दगिर्द लाहिड़ी महाशय की संरक्षक एवं मार्गदर्शक उपस्थिति का अनुभव होता था। जो शिष्यगण परिस्थितिवश उनके पास नहीं रह सकते थे, उन्हें लाहिड़ी महाशय सांत्वना देते हुए कहते थे: ‘‘जो क्रिया का अभ्यास करते हैं, उनके पास मैं सदैव रहता हूँ। तुम्हारी अधिकाधिक व्यापक बनती जाती आध्यात्मिक अनुभतियों के माध्यम से मैं परमपद प्राप्त करने में तुम्हारा मार्गदर्शन करूँगा।’’
लाहिड़ी महाशय के एक मुख्य शिष्य श्री भूपेन्द्रनाथ सन्याल ने बताया कि 1892 र्इस्वी में, जब वे किशोरावस्था में थे, तो काशी जाने में असमर्थ होने के कारण उन्होंने आध्यात्मिक उपदेश के लिये लाहिड़ी महाशय से प्रार्थना की। लाहिड़ी महाशय ने उनके स्वप्न में आकर उन्हें दीक्षा दी। बाद में किशोर भूपेन्द्रनाथ काशी गये और वहाँ उन्होंने लाहिड़ी महाशय से दीक्षा के लिये अनुरोध किया। लाहिड़ी महाशय ने उत्तर दिया: ‘‘मैंने स्वप्न में तुम्हें पहले ही दीक्षा दे दी है।’’
यदि कोर्इ शिष्य किसी सांसारिक दायित्व की उपेक्षा करता, तो लाहिड़ी महाशय उसे प्यार से समझाकर रास्ते पर ले आते।
‘‘जब किसी शिष्य के दोषो के बारे में खुले आम बोलने के लिये उन्हें विवश होना पड़ता, तब भी लाहिड़ी महाशय अत्यंत सौम्य और शान्तिदायक शब्दों में बोलते थे, ‘‘श्रीयुक्तेश्वरजी ने एक बार मुझे बताया। फिर विचारमग्न होते हुए आगे कहा: ‘‘कोर्इ भी शिष्य कभी हमारे गुरुदेव की फटकार से बचने के लिये भागा नहीं।’’ मैं अपनी हँसी को रोक नहीं सका, परंतु मैंने सच्चे हृदय से अपने गुरु को विश्वास दिलाया कि तीखा हो या कोमल, उनका हर शब्द मेरे कानों के लिये मधुर संगीत के समान है।
लाहिड़ी महाशय ने अत्यंत विचारपूर्वक क्रियायोग को साधक की प्रगति के अनुसार चार क्रमों में दी जाने वाली दीक्षाओं में विभाजित किया। साधक की एक निश्चित हद तक उन्नति होने के बाद ही वे उसे तीन उच्चतर क्रियाओं की दीक्षा देते थे। एक शिष्य को ऐसा लग रहा था कि उसका उचित मूल्यांकन नहीं हो रहा है। एक दिन उसने अपना असंतोष शब्दों में प्रकट किया।
उसने कहा : ‘‘गुरुदेव! अब तो मैं निश्चय ही द्वितीय दीक्षा पाने के योग्य हो गया हूँ।’’ उसी समय दरवाजा खुला और एक विन्रम साधक, वृन्दा भगत ने कमरे में प्रवेश किया। वे काशी में पोस्टमैन थे।
‘‘वृन्दा! यहाँ मेरे पास आकर बैठो।’’ महान् गुरु उनकी ओर देखकर स्नेहापूर्वक मुस्कराये। ‘‘यह बताओ कि क्या तुम द्वितीय क्रिया के योग्य हो गये हो?’’
पोस्टमैन ने दीनभाव से हाथ जोड़ दिये और चौकन्ने होकर कहा : ‘‘गुरुदेव! अब मुझे और कोर्इ दीक्षा नहीं चाहिये! किसी उच्चतर शिक्षा को अब मैं कैसे आत्मसात् कर सकता हूँ? आज तो मैं आपका आशीर्वाद माँगने ही आया था, क्योंकि प्रथम क्रिया से ही मुझे ऐसा दिव्य नशा चढ़ जाता है कि ठीक से अपना पत्र बाँटने का काम भी नहीं कर पा रहा हूँ।
‘‘वृन्दा ब्रह्मानन्द सागर में पहले ही तैर रहा है।’’ लाहिड़ी महाशय के मुख से ये शब्द सुनकर उस द्वितीय दीक्षा माँगने वाले शि”य ने शर्म से अपना सिर झुका लिया और कहा :
‘‘गुरुदेव! मेरी समझ में आ गया है कि मैं एक ऐसा घटिया कारीगर हूँ, जो अपने औजारों को ही दोष दिया करता है।’’
बाद में उस दीन, अशिक्षित पोस्टमैन ने क्रिया के द्वारा अपनी अंतदृष्टि को इतना विकसित कर लिया कि कभी-कभी विद्वान और पंडित भी शास्त्रों के जटिल मुद्दों पर उसका मत जानने के लिये उसके पास पहुँच जाते थे। वाक्यों और शब्दों की रचना से तथा अहंकार और पाप से अनभिज्ञ वृन्दा विद्वान पंडितों में प्रख्यात हो गया।
काशी के असंख्य शि”यों के अतिरिक्त भारत के सुदूर भागों से भी सैंकड़ो लोग लाहिड़ी महाशय के पास आते थे। लाहिड़ी महाशय स्वयं भी अपने दो पुत्रों के ससुराल वालों से मिलने के लिये अनेक बार बंगाल में जाते थे। इस प्रकार बार-बार उनकी उपस्थिति से पावन हुए बंगाल में क्रिया योगियों की छोटी-छोटी मंडलियों का जाल-सा बन गया। विशेषत: कृष्णनगर एवं विष्णुपुर जिलों में चुपचाप अपनी साधना करने वाले अनेकानेक साधकों ने आज तक आध्यायित्मक ध्यान की अदृश्य धारा को बहती रखा है।
लाहिड़ी महाशय से क्रिया दीक्षा प्राप्त करने वाले अनेकानेक संतों में काशी के प्रख्यात स्वामी भास्करानन्द सरस्वती तथा देवघर के अत्यंत उच्च कोटि के तपस्वी बालानन्द ब्रह्मचारी भी थे। कुछ समय के लिये लाहिड़ी महाशय काशी के महाराजा र्इश्वरी नारायण सिंह बहादुर के पुत्र के निजी शिक्षक भी रहे थे। उनकी आध्यात्मिक उपलब्धियों को पहचान कर महाराजा एवं उनके पुत्र, दोनों ने लाहिड़ी महाशय से क्रिया दीक्षा ली। महाराजा ज्योतीन्द्र मोहन ठाकुर ने भी उनसे दीक्षा ली।
वे कहते थे : ‘‘क्रियायोग रूपी पुश्प की सुगंध को स्वाभाविक रूप से अपने आप फैलने दो। क्रिया योग का बीज आध्यात्मिक दृष्टि से उर्वरा हृदय-भूमियों में निश्चित रूप से जड़ पकड़ेगा।
लाहिड़ी महाशय ने संगठन या मुद्रणालय के आधुनिक माध्यम से प्रचार करने की पद्धति का अवलम्ब नहीं किया, तथपि वे जानते थे कि उनके संदेश की शक्ति रोकी न जा सकने वाली बाढ़ की भँति उमड़ पड़ेगी और अपने शक्तिवेग से मानव - मनों में घुस जायेगी। उनके शिष्यों का परिवर्तित और शुद्ध हुआ जीवन क्रिया की अमर-अपार शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण था।
रानीखेत में दीक्षा ग्रहण करने के 24 वर्ष बाद सन 1886 र्इस्वी में लाहिड़ी महाशय पेंशन पर रिटायर हो गये। अब दिन में भी उनके उपलब्ध होने के कारण उनके पास आने वाल भक्तों की संख्या में अधिकाधिक वृद्धि होती गयी। अब महान गुरु अधिकांश समय निश्चल पद्मासन में मौन बैठे रहते थे। वे सदा अपने छोटे से बैठकखाने में ही बैठे रहते थे; यहाँ तक कि कभी टहलने जाने या घर के दूसरे हिस्सों में जाने के लिये भी वे शायद ही कभी वहाँ से उठते थे गुरु के दर्शन के लिय शिष्यों के आगमन का क्रम लगभग अखंड रूप से चलता रहता था।
लाहिड़ी महाशय के शरीर में अधिकांश समय अतिमानवी लक्षणों का दिखायी देना प्राय: दर्शनार्थियों को चिंता और विस्मय में डाल देता था; जैसे श्वासरहितता, निद्रारहितता, नाड़ी और हृदय की धड़कन का रुका हुआ होना, घंटों तक पलकें झपकाये बिना शान्त आँखों का खुला होना, और उनके चारों ओर शान्ति का प्रगाढ़ वलय होना। वहाँ से लौटने वालों में कोर्इ ऐसा नहीं होता था जो दिव्य प्रेरणा से भरित नही हुआ हो। सभी को यह ज्ञान को जाता था कि उन्हें एक सच्चे भगवत-स्वरूप संत का मौन आर्शीवाद प्राप्त हो गया है।
लाहिड़ी महाशय का समान्य जीवन
लाहिड़ी महाशय का जन्म 30 सितम्बर 1828 र्इñ को एक धर्मनिष्ठ प्राचीन ब्राह्मण कुल में बंगाल के नदिया जिले में स्थित घुरणी ग्राम में हुआ था। वे आदरणीय श्री गौरमोहन लाहिड़ी की दूसरी पत्नी श्रीमती मुक्तकाशी की संतानों में एकमात्र पुत्र थें (पहली पत्नी का तीन पुत्रों को जन्म देने के पश्चात् एक तीर्थयात्रा के दौरान देहान्त हो गया था)। उनके माता के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है, सिवाय इस महत्वपूर्ण तथ्य के कि वे शास्त्रों में जिन्हें महायोगीश्वर कहा गया है, उन भगवान शिव की अनन्य भक्त थीं।
लाहिड़ी महाशय का पूरा नाम श्यामाचरण लाहिड़ी था। उनका बचपन घुरणी में उनके पैतृक निवास में ही बीता। तीन-चार वर्ष की आयु मे ही वे प्राय: बालु में केवल सिर बाहर और अन्य सारा शरीर बालु के अंदर रखते हुए एक विशिष्ट योगासन में बैठे दिखायी देते थे।
1833 र्इस्वी में गाँव के निकट से बहती जलंगी नदी ने अपना मार्ग बदल दिया और वह गंगा में विलीन हो गयी। उसके मार्ग-परिवर्तन के कारण लाहिड़ी परिवार की सारी जमीन-जायदाद नष्ट हो गयी। घर के साथ लाहिड़ी परिवार द्वारा प्रतिष्ठित शिव मन्दिर भी नदी के गर्भ में समा गया। एक भक्त ने उफनते जल में से शिव की प्रस्तर-प्रतिमा को बचाया और उसे एक नये मंदिर में रख दिया, जो अब घुरणी शिव मंदिर के नाम से विख्यात है।
श्री गौरमोहन लाहिड़ी घुरणी को छोड़़कर सपरिवार काशी में जा बसे। वहाँ उन्होंने शीघ्र ही एक शिव मंदिर की स्थापना की। वैदिक धर्म के अनुसार रोज पूजा-पाठ, दानधर्म, शास्त्राध्ययन आदि उनके घर में होता था। वे न्याय परायण तथा उदार दृष्टिकोण वाले व्यक्ति थे, आधुनिक विचारधारा की उपयोगिता की वे अवहेलना नहीं करते थे।
बालक लाहिड़ी ने काशी की पाठशालाओं में हिन्दी और उर्दू की पढ़ार्इ की। उन्होंने जयनारायण घोषाल के विद्यालय में संस्कृत, बंगाली, फ्रेंच तथा अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त की। वेदों का वे गहरा अध्ययन करते थे और विद्वान् ब्राह्मणों की शास्त्र-चर्चाओं को मन लगाकर सुनते थे। इन विद्वानों में एक महाराष्ट्रीय पंडित श्री नागभट्ट भी थे।
श्यामाचरण दयालु, विन्रम और साहसी बच्चा था, जो अपने सभी साथियों में अत्यंत लोकप्रिय था। उसका शरीर सुडौल, स्वस्थ तथा बलि”ठ था। तैराकी तथा शारीरिक पटुता के अनेक कार्यों में वह निश्पात था।
सन् 1846 में श्री देवनारायण सन्याल की सुपुत्री काशीमणि के साथ श्यामाचरण लाहिड़ी का विवाह हुआ। काशीमणि देवी एक आदर्श भारतीय गृहिणी थी, जो अपने गृह-कर्त्तव्यों का और अतिथि सेवा तथा दरिद्रनारायण सेवा के अपने गृहस्थ धर्म का प्रसन्नतापूर्वक पालन करती थी। इस विवाह युति से तीन कौड़ी और दुकौड़ी नाम के दो सन्तवत् पुत्रों का तथा दो पुत्रियों का जन्म हुआ। 1851 में तेर्इस वर्ष की आयु में लाहिड़ी महाशय ब्रिटिश सरकार के मिलिटरी इंजिनियरिंग विमाग में लेखापाल के पद पर नियुक्त हुए। अपने सेवा काल में अनेक बार उनकी पदोन्नति हुर्इ। इस प्रकार वे केवल र्इश्वर की आँखों में ही वे सिद्ध पुरुष थे, बल्कि इस छोटे से मानवीय नाटक में भी, जिसमें वे एक साधारण ऑफिस-कर्मचारी की भूमिका अदा कर रहे थे, उन्होंने सफलता प्राप्त की थी।
मिलिटरी इंजिनियरिंग विभाग
ने भिन्न-भिन्न समय पर गाजीपुर, मिर्जापुर, नैनीताल, दानापुर तथा
वाराणसी में उनका स्थानान्तरण किया।
पिता की
मृत्यु के बाद युवा लाहिड़ी महाशय ने पूरे परिवार का सारा दायित्व अपने
ऊपर ले
लिया। परिवार के लिये उन्होंने काशी में भीड़-भाड़ से दूर गरूड़ेश्वर मुहल्ले में
एक घर
खरीद लिया।
योगी कथामृत पुस्तक से साभार
(Autobiography of a Yogi by
Yogananda Paramhansa)
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