Wednesday, June 20, 2012

महर्षि श्री राम का दर्शन

जिस विचार पद्ति से मनुष् अपने जीवन में प्रतिदिन आने वाली समस्याओं को आसानी से सुलझा सकता है, सही नतीजे पर पहुँच सकता है, ठीक मार्ग का अवलम्बन कर सकता है, उसे èयात्मवाद कहते हैं। व्यापार में धिक लाभ, नौकरी में अधिक सुविधा ओर तरक्की, पत्नी-प्रेम, पुत्र-शिष्य और सेवकों का आज्ञापालन, मित्रों का भ्रातृभाव, गुरुजनों का आशीर्वाद, परिचितों में आदर, समाज में प्रति्ठा, निर्मल कीर्ति, अनेक हृदयों पर शासन, निरोग शरीर, सुन्दर स्वास्थ्य, प्रसन्नचित्त, हर घड़ी आनन्द, दु:-शोकों से छुटकारा, विद्वता का सम्पादन, तीव्र बुद्धि, शत्रुओं पर विजय, वशीकरण का जादू, अकाटय नेतृत्व, प्रभावशाली प्रतिभा, धन-धन्य, इंद्रियों के सुखदायक भोग, वैभव-ऐश्वर्य, ऐश-आराम, सुख-संतो, परलोक में सद्गति यह सब बातें प्राप्त करने का सच्चा सीध मार्ग èयात्मवाद है। इस पथ पर चलकर जो सफलता प्राप्त होती है, वह धिक दिन ठहरने वाली, धिक आनंद देने वाली और धिक आसानी से प्राप्त होने वाली होती है। एक शब्द में यों कहा जा सकता है कि सारी इच्छा, आकांक्षाओं की पूर्ति का अद्वितीय साधन èयात्मवाद है। इस तत्त्व को जो जितनी धिक मात्रा में जिस निमित्त संग्रह कर लेता है, वह उस वि में उतना ही सफल हो जाता है। सच्ची सफलता की सारी भित्ति इसी महाविज्ञान के ऊपर खड़ी हुर्इ है, फिर चाहे उसे èयात्मवाद नाम से पुकारिये अथवा इच्छा शक्ति, पौरु, कुशलता आदि कोर्इ और नाम रखिए।
      èयात्मवाद पुरुार्थी लोगों का धर्म है। तेजस्वी, उन्नतिशील, महत्त्वाकांक्षी और आगे बढ़ने की इच्छा रखने वाले ही उसे अपना सकते हैं। मुक्ति सबसे बड़ा पुरुार्थ है, इसे वे लोग प्राप्त कर सकते हैं, जिसमें अटूट धैर्य, नि्ठा, साहस और पराक्रम है। कायर और काहिल लोग अपने हर काम को कराने के लिए देवी-देवता, संत-महन्त, भाग्य, र्इश्वर आदि की ओर ताकते हैं अपना हुक्का भी र्इश्वर से भराकर पीना चाहते हैं, ऐसे कर्महीनों के लिए उचित है कि किसी सनक में पड़े-पड़े झोंक खाया करें और ख्याली पुलाव पकाया करें। सच्चे èयात्मवाद का दर्शन उन बेचारों को शायद ही हो सके।
      आप ब्रह्म विद्या की शिक्षा ग्रहण कीजिए, जिससे सुलझा हुआ दृष्टिकोण प्राप्त कर सकें। इस ज्ञान दीपक को अपने मन-मंदिर में जला लीजिए, जिससे हर वस्तु को ठीक-ठीक रूप से देख सकें। इस धुव्र तारे को पहचान लीजिए, जिससे दिशाओं का निश्चित ज्ञान रख सकें। इस राजपथ को पकड़ लीजिए, जिससे बिना इधर-उधर भटके अपने लक्ष्य स्थान तक पहुँच सकें। ब्रह्मविद्या नकद धर्म है। इसका फल प्राप्त करने के लिए परलोक की प्रतीक्षा में नहीं ठहरना पड़ता। वरन् इस हाथ दे उस हाथ ले’, की नीति के अनुसार प्रत्यक्ष फल मिलता है। जब, जितनी मात्रा में, जिस निमित्त इस तत्त्व का आप उपयोग करेंगे; तब उतनी ही मात्रा में उस कार्य में लाभ प्राप्त करेंगे, परन्तु स्मरण रखिए यह विद्या कुछ मंत्र याद कर लेने से, अमुक पुस्तक का पाठ करने, माला जपने, तिलक लगाने, आसन जमाने, साँस खींचने तक ही सीमित नहीं है। कर्मकाण्ड इस विद्या की प्राप्ति में कुछ हद तक सहायक हो सकते हैं; वे साधन हैं साè नहीं। कर्इ व्यक्ति इन कर्मकाण्डों को ही अंतिम सीढ़ी समझ कर लगे रहते हैं और इच्छित वस्तु को नहीं पाते, तो उन पर से मन हटा लेते हैं।
      आत्म साधना के पथ पर चलने की इच्छा करने वाले हर एक पथिक को, यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि अपने विश्वास, विचार और कार्यो को उन्हें एक सुदृढ़ साँचे में ढालना होगा। मनुष् जैसी कुछ भली-बुरी बाह्य परिस्थितियों में पड़ा हुआ दिखार्इ पड़ता है, वह उसकी मानसिक तैयारी का फल मात्रा है। भीतर जैसे तत्त्वों का समावेश है, जैसे विश्वास, विचार, संस्कार जमा हैं, उन्हीं के कारण बाहरी जीवन की अच्छार्इ-बुरार्इ का निर्माण होता है। èयात्मवाद का निश्चित सिद्धान्त है कि मनु्य की उन्नति-अवनति में, सुख-दु: में कोर्इ सत्ता हस्तक्षेप नहीं करती। वह स्वयं ही अपने भीतरी जगत् को जैसा बनाता है, उसी के अनुसार दूर-दूर से खिंचकर परिस्थितियाँ उसके चारों ओर इकट्ठी हो जाती है।
      वह कल्पवृक्ष जो हर प्रकार की इच्छाओं को पूरा करता है, आपके निज के भीतर मौजूद है, उसके पास पहुँचने का जो मार्ग है उसे ही èयात्मवाद, ब्रह्मविद्या और योग साधना कहते हैं। गेहूँ की फसल काटने के लिए गेहूँ का बीज बोना पड़ता है और उसे ठीक रीति से सींचना, निराना पड़ता है। मनचाही परिस्थितियाँ प्राप्त करने के लिए ऐसे विचार, विश्वास और संस्कारों को मनोभूमि में बोना और सींचना पड़ता है, जो बीज की तरह उगते हैं और निश्चित रूप से अपनी ही जाति के पौधे उपजाते हुए फूलते-फलते है इसी मानसिक कृि को संस्कृत भा में ब्रह्म विद्या नाम से उल्लेख किया है। यह विद्या उस प्रत्येक व्यक्ति को सीखनी पड़ती है, जो प्रफुल्लित-आनंदमय जीवन जीने की इच्छा करता है। हमारे देश को तो विशे रूप से इस शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे इस देश के निवासी वर्तमान दुर्दशा से स्वयं छूट सकें और अपने देश को छुड़ा सकें। भारत संसार का पथ प्रदर्शक धर्मगुरु रहा है। हम भारतीय सच्ची èयात्मिकता के आधर पर अपनी दशा में चमत्कार पूर्ण परिवर्तन करके, संसार के सामने अपना गौरव प्रकट कर सकते हैं और प्राचीन महानता को पुन: प्राप्त कर सकते हैं।
परिस्थितियों का जन्मदाता अपने आपको मानिए हर व्यक्ति अपने लिए एक अलग संसार बनाता है और उसकी रचना उस पदार्थ से करता है, जो उसके अंदर होता है। वास्तव में संसार बिल्कुल जड़ है, उसमें किसी को सुख-दु: पहुँचाने की शक्ति नहीं है। मकड़ी अपना जाला खुद बुनती है और उसमें विचरण करती है। आप अपने लिए अपना संसार स्वतंत्र रूप से बनाते हैं और जब चाहते हैं, उसमें परिवर्तन कर लेते हैं। 
      एक व्यक्ति क्रोधी है- उसे प्रतीत होगा कि सारी दुनिया उससे लड़ती-इगड़ती है, कोर्इ उसे चैन से नहीं बैठने देता, किसी में भलमनसाहत है ही नहीं, जो आता है उससे उलझता चला आता है। एक व्यक्ति झूठ बोलता है- उसे लगता है कि सब लोग अविश्वासी हैं, संदेह करने वाले है, किसी पर भरोसा ही नहीं करते। एक व्यक्ति नीच है- वह देखता है कि सारी दुनिया घृणा करने वाले, घंमडियों, स्वार्थियों से भरी हुर्इ है, किसी में सहानुभूति है ही नहीं। एक व्यक्ति निकम्मा और आलसी है- उसे मालूम होता है कि दुनिया में काम है ही नहीं, सब जगह बेकारी फैली हुर्इ है, व्यापार ष् हो गया, नौकरियाँ नहीं हैं, लोग बहुत काम लेकर थोड़ा पैसा देना चाहते हैं। एक व्यक्ति बीमार है- उसे दिखार्इ पड़ता है कि दुनिया में सारे भोजन अस्वादिष्, हानिकारक और नुकसान पहुँचाने वाले हैं। इसी प्रकार व्याभिचारी, लम्पट, मूर्ख कंजूस, अशिक्षित, सनकी, गँवार, पागल, भिखारी, चोर तथा अन्यान्य मनोविकारों वाले व्यक्ति अपने लिए अलग दुनिया बनाते हैं। वे जहाँ जाते हैं, उनकी दुनिया उनके साथ जाती है।
      इसी प्रकार विज्ञानी, साधु, कर्मनि्ठ, उत्साही साहसी, सेवाभावी, उपकारी, बुद्धिमानी और आत्म-विश्वासी लोगों की दुनिया अलग होती है। बुरे व्यक्तियों को जो दुनिया बुरी मालूम होती थी, वही अच्छे व्यक्तियों के लिए अच्छी बन जाती है। सांसारिक पदार्थ जड़ हैं, वे तो किसी को सुख दे सकते हैं और दु:ख। मनुष् एक प्रकार का कुम्हार है, जो वस्तुओं को मिट्टी से अपनी इच्छानुसार बनाता है। संसार किसी के लिए दु: का हेतु है, किसी के लिए सुख का। वास्तव में वह कुछ नहीं है। अपनी छाया ही संसार के दर्पण में प्रतिबिम्बित हो रही है। अपना दृष्टिकोण बदलने से दुनिया की सारी रूपरेखा बदल जाती है। हमारे विचार और कार्य जैसे होते हैं, ठीक उसी के अनुरूप बाह्म परिस्थितियों में अंतर जाता है।
      मनोविज्ञान बताता है कि मनुष् में यह एक बड़ी भारी त्रुटि है कि वह अपनी भूल या न्यूनता को स्वीकार नहीं करता। अपने ऊपर उत्तरदायित्व लेने  को तैयार नहीं होता। अपने दोों को दूसरों के ऊपर थोपने का प्रयास करके, वह स्वयं निर्दो बनता है। यह आत्मवंचना की वृत्ति इतनी सूक्ष्म होती है कि मोटी बुद्धि से वह पकड़ में नही आती। भूल करने वाले लोगों में से अधिकांश के मन में यह दृढ़ विश्वास होता है कि वे निर्दो हैं और दूसरे लोग ही उस दो के भागी हैं। मानव स्वभाव की यह कमजोरी, सत्य की खोज में बड़ी भारी बाध है, सुख-शान्ति को मिटा कर क्लेश, कलह उत्पत्रा करने वाली प्रधन पिशाची है।
      खबरदार! ऐसा मत कहना कि यह संसार बुरा है, दुष् है, पापी है, दु:खमय है, र्इश्वर की पुण्य कृति, जिसके कण-कण में उसने कारीगरी भर दी है, कदापि बुरी नहीं हो सकती। सृ्टि पर दोारोपण करना, तो उसके कर्ता पर आक्षेप करना होगा। ‘‘यह घडा बहुत बुरा बना है’’ इसका अर्थ है कुम्हार को नालायक बताना। र्इश्वर की पुण्य भूमि में दुख का एक अणु भी नहीं है। हमारा अज्ञान ही हमारे लिए दुख है। आइए अपने अन्दर के समस्त कुविचारो और दुर्गुणों को धेकर अन्त:करण को पवित्रा कर लें, जिससे दुखो की आत्यंतिक निवृत्ति हो जाए और हम परम पद को प्राप्त कर सकें।
      आप दु:खो से डरिए मत। घबराइए मत, काँपिए मत, उन्हें देखकर चिंतित या व्याकुल मत होइए वरन उन्हें सहन करने को तैयार रहिए। कटुभा किन्तु सच्चे सहृदय मित्र की तरह उससे भुजा पसारकर मिलिए। वह कटु शब्द बोलता है, अप्रिय समालोचना करता है, तो भी जब जाता है तो बहुत सा माल खजाना उपहार स्वरूप दे जाता है। बहादुर सिपाही की तरह सीना खोलकर खडे हो जाएइ और कहिए कि आने वाले दु:खो! आओ!! मेरे बालको, चले आओ!! मैंने ही तुम्हें उत्पन्न किया है, मैं ही तुम्हें अपनी छाती से लगाऊँगा। दुराचारिणी वेश्या की तरह तुम्हें जार पुत्र समझकर छिपाना या भगाना नहीं चाहता वरण सती साèवी के धर्म पुत्र की तरह तुम मेरे आँचल में सहर्ष क्रीडा करो। मैं कायर नहीं हूँ जो तुम्हें देखकर रोऊँ, मैं नंपुसक नहीं हूँ, जो तुम्हारा भार उठाने से गिडगिडाँऊ, मैं मिथ्याचारी नहीं हूँ। जो अपने किए हुए कर्म का फल भोगने के लिए मुँह छिपाता फिँरू। मैं सत्य हूँ, शिव हूँ, सुन्दर हूँ, आओ मेरे अज्ञान के कुरुप मानस पुत्रो! चले आओ! मेरी कुटी में तुम्हारे लिए भी स्थान है। मैं शूरवीर हूँ, इसलिए हे ष्टो! तुम्हें स्वीकार करने से मुहँ नहीं छिपाता ओर तुमसे बचने के लिए किसी की सहायता चाहता हूँ। तुम मेरे साहस की परीक्षा लेने आए हों, मैं तैयार हूँ, देखो गिडगिडाता नहीं हूँ, साहसपूर्वक तुम्हें स्वीकार करने के लिए छाती खोले खडा हूँ।

युगऋ+ि की अभिला
      हमारे अंतराल में ऐसे अनुयायी ढूँढने की बेचैनी है, जो अपना जीवनक्रम साधु-ब्राह्मण की परंपरा के अनुसार निर्वाह करने का व्रत ले सकें संयम और तप से इसका श्रीगणेश करें, समग्र èयात्म का अवलंबन स्वीकार करें। मात्र पूजा-पत्री से ही सब कुछ मिल जाने के भ्रम जंजाल में भटकें, उपासना, साधना और आराधना की वे तीनों ही शर्तें पूरी करें, जो आध्यात्मिक विभूतियाँ उपार्जित करने के लिए आवश्यक हैं। बात कहने-सुनने भर से नहीं बनती। कदम उठाना और साहस दिखाना पड़ता है। जो कर गुजरते हैं, वे नफे में रहते हैं। आदर्शो पर चलने का मार्ग ऐसा है जिसमें आरंभ के दिनों में थोड़ी कशमकश सहनी पड़ती है, बाद में तो संतो और श्रेय दोनों ही मिलते हैं। हम यह प्रयत्न करेंगे कि जहाँ कहीं भी जाग्रत स्तर की आत्माएँ हों, वे हमारा उद्बोधन, परामर्श, अनुरोध आग्रह सुनें, समझें कि यह समय ऐतिहासिक है। जिनका अंतराल युग चेतना से अनुप्राणित हो, उनका एक ही कर्त्तव्य है कि न्यूनतम में निर्वाह करने और अधिकतम युग धर्म में विसर्जित करने की बात सोचें। यदि साहस साथ दे, तो उसे कर गुजरें। इसमें संबं​धियो, कुटुंबियों, मित्रों की सहमति मिलने की प्रतीक्षा करें। विचार क्रांति के युग धर्म का परिपालन करने के लिए एकनिष् भाव से जुट पड़ें। आज की समस्याएँ अगणित हैं। उनके स्वरूप और प्रतिफल भी भिन्न हैं, किंतु यह मान कर चलना होगा कि सभी का निमित्त कारण एक ही है चिंतन में विकृतियों का भर जाना। आस्था संकट ही अपने युग का सबसे बड़ा विनाश का कारण है। इससे बड़ा दुर्भिक्ष और कोर्इ नहीं हो सकता। निराकरण का उपाय भी एक ही है, उलटे को उलटकर सीध करना। यदि लोकमानस को परिवर्तित, परि्कृत किया जा सके, तो हर समस्या सरलतापूर्वक सुलझने लगेगी। जिन्हें अपना ढिंढोरा पिटवाना ही अभी्ट है, वे चित्र-विचित्र योजनाएँ बनाते रहें, पर जिन्हें एक ही चाबी से सब ताले खोलने का मन हो, वे विचार परिवर्तन के कार्य को सर्वोपरि मानकर उसी से सबंधित कार्यो में हाथ डालें। आप दुनियाँ की समस्याओं को सुलझाने के लिए, गए-गुजरे लोगों को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने के लिए कदम बढ़ाएँ। अपने आप को त्याग के लिए, बड़े कामों के लिए समर्पित कीजिए। यही तो परीक्षा का समय है। अगर आप में हिम्मत है और आपका विवेक साथ देता है, तो मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि नए युग के निर्माण जैसे बड़े कार्यो में अपना समय लगाइए। पिफर देखिए आप कितने मजे में, कितने खुशहाल, कितने प्रसन्नचित्त रहते हैं और कितना संतो, सम्मान और भगवान का अनुग्रह मिलता है।

हमारा संकल्प
      लक्ष्य विशाल विस्तृत है। जनमानस के परिष्कार के लिए प्रज्ज्वलित ज्ञानयज्ञ के विचार क्रांति के, लाल मशाल के टिमटिमाते रहने से काम नहीं चलेगा। उसके प्रकाश को प्रखर बनाने के लिए जिस तेल की आवश्यकता है, वह पूज्य गुरुदेव की प्रत्येक संतान के भाव भरे त्याग से निचोड़ा जा सकेगा। मनुष् में देवत्व का उदय संसार के समस्त उत्पादनों की तुलना में धिक महत्त्वपूर्ण उपार्जन है। इस कृि कर्म में हमें शीत वर्षा की परवाह करके निष्ठावान कृ की तरह लगना चाहिए। धरती पर स्वर्ग का अवतरण एक नंदन वन खड़ा करने के समान है।
       पूज्य गुरुदेव के आदर्शो की रक्षा और युग निर्माण योजना के विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी हमें सौंपी गर्इ है। हम प्रतिज्ञा करते हैं कि इस जिम्मेदारी को सभी कार्यकर्त्ता व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं को भूलाकर परस्पर एक शक्ति, एक मन होकर काम करके पूरा करेंगे। परम पूज्य गुरुदेव ने हमारे हाथों में जो नव जागृति की मशाल सौंपी है। जब तक हमारे शरीरों में रक्त की एक भी बूँद शे रहती है, तब तक उसे बुझने देंगे, भले ही अपना सारा जीवन ही जल-खप जाए।
      जिसे तुम अच्छा मानते हो यदि तुम उसे आचरण में नही लाते हो तो यह तुम्हारी कायरता है। हो सकता है कि भय तुम्हें ऐसा करने देता हो, लेकिन इससे तुम्हारा तो चरित्र ऊँचा उठेगा और तुम्हें गौरव मिलेगा। मन में उठने वाले अच्छे विचारो केा दबाकर तुम बार-बार जो आत्महत्या कर रहे हो, आखिर इससे तुमने किस लाभ का अन्दाजा लगाया है। शान्ति ओर तृप्ति आचारवान व्यक्ति को ही प्राप्त होती है।

दृष्टिकोण में परिवर्तन जरूरी
      परिवर्तन के महान क्षण में पूज्यवर लिखते हैं- ‘‘¯चतन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृ्टता का असाधरण मात्रा में अभिवरन होगा तो वे सभी समस्याएँ अनायास ही सुलझती चली जाएँगी, जिन्हें इन दिनों सर्वनाशी और खंड प्रलय जैसी विभीिकाएँ माना जा रहा है।’’ वस्तुत: जैसा ¯चतन होता है, वैसा ही वातावरण में अभिव्यक्त होता है। मन: स्थिति ही परिस्थिति की निर्मात्री है। आज यदि भोगवाद एवं बाजारवाद ही सत्य दिखार्इ देता है तो यह हमारे दृष्टिकोण के कारण है। ज्यों-ज्यों हम भोग से योग की ओर एवं बाजार से परिवार की ओर बढ़ेंगे, परिवर्तन स्वत: होता नजर आने लगेगा। अब सबकी आँखें खुल रही हैं एवं क्रमश: विलासिता का भोगवाद का जीवन छोड़कर सादगी भरा जीवन जीना एक क्रम बनने जा रहा है। लोकहित के लिए लोग जीने लगेंगे तो विभीिाकाएँ आएँगी ही क्यों?
चूकने वाले पछताएँगे
      आगे आचार्यश्री लिखते हैं- ‘‘इन दिनों मनुष् का भाग्य और भवि्य नए सिरे से लिखा और गढ़ा जा रहा है। ऐसा विलक्षण समय कभी हजारों-लाखों र्षो बाद आता है। इसे चूक जाने वाले सदा पछताते ही रहेंगे। गोवर्धन एक बार ही उठाया गया था। समुद्र पर सेतु एक बार ही बना था। ऐसे समय बार-बार नहीं आते (प्रज्ञावतार की विस्तार प्रक्रिया-पृ्ठ 24)।’’

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