पांडिचेरी आने पर श्री अरविन्द प्रथम दिन से ही योगाभ्यास में अधिकाधिक तल्लीन होते गए। किसी भी सार्वजनिक राजनीतिक कार्य में भाग लेना उन्होंने बिल्कुल बंद कर दिया। कुछ वर्षो तक उन्होंने दो एक व्यक्तियों के द्वारा उन क्रान्तिकारी दलो के साथ, जिनके वो नेता रहे थे, कुछ गुप्त संबंध् जारी रखा, परंतु कुछ समय बाद वह भी छोड दिया और राजनीति से पूर्णरूपेण संबंध् विच्छेद कर लिया। इस सबके अतिरिक्त उनके सम्मुख जो महान आèयात्मिक कार्य उपस्थित था उसकी महानता उनके सामने अधिकाधिक स्पष्ट होती गई और उन्होंने देखा कि इसमें अपनी समस्त शक्तियों को एकाग्र कर देना आवश्यक हैं। ब्रिटिश सरकार तथा और बहुत से लोग इस पर विश्वास ही नहीं कर पाते थे कि श्री अरविन्द ने समस्त राजनीतिक कार्य से संबंध् तोड़ लिए हैं। उनका ख्याल था कि वे क्रांति की प्रवृत्तियों में गुप्त रूप से भाग ले रहे हैं और यहाँ तक कि फ्रेंच भारत के आश्रय में एक गुप्त संगठन का निर्माण कर रहे हैं। परंतु यह सब केवल कोरी कल्पना एवं किवदतीं थी और वास्तव में इस प्रकार की किसी भी चीज का नाम तक नहीं था।
परंतु इसका अर्थ यह नहीं था, जैसा कि बहुत से लोग समझते थे, कि वे आèयात्मिक अनुभव के किसी शिखर पर रहने लगे थे और अब उन्हें जगत में तथा भारत के भाग्य में कोई दिलचस्पी नहीं रही थी। अपने एकान्तवाद में भी श्री अरविन्द जगत तथा भारत में घटने वाली सभी घटनाओं का बडी सूक्ष्मता से निरीक्षण करते रहें और जब कभी आवश्यकता हुई सक्रिय हस्तक्षेप भी किया, परंतु केवल आèयात्मिक बल और मौन आèयात्मिक क्रिया के द्वारा ही क्योंकि जो योग में काफी आगे बढ़ हुए है उन सभी का यह अनुभव है कि प्रकृति में मन, प्राण और शरीर की साधरण शक्तियों और व्यापारों के अतिरिक्त अन्य बल एंव शक्तियाँ भी है जो पीछे से तथा ऊपर से कार्य करती हैं। इसी प्रकार एक आèयात्मिक कर्म शक्ति भी है जिसे वे लोग जो आèयात्मिक चेतना में आगे बढ़े हुए हैं, प्राप्त कर सकते हैं, यद्यपि इसे प्राप्त करने अथवा प्राप्त करके प्रयोग में लाने की परवाह सब योगी नहीं करते। यह शक्ति अन्य किसी भी शक्ति की अपेक्षा अधिक महान और फलोत्पादक हैं। इसी शक्ति को श्री अरविन्द ने प्राप्त करते ही प्रयोग में लाना प्रारम्भ कर दिया था।
पहला अवसर द्वितीय विश्व युद्ध का था। आरम्भ में उन्होंने इससे किसी प्रकार का सक्रिय संबंध नहीं रखा, परंतु जब ऐसा दिखने लगा मानो हिटलर अपना विरोध करने वाली सभी शक्तियों को कुचल डालेगा और संसार पर नात्सीवाद का प्रभुत्व हो जाएगा, तब उन्होंने हस्तक्षेप आरम्भ किया। उस समय जबकि प्रत्येक व्यक्ति यह आशा कर रहा था कि इंग्लैण्ड का शीघ्र पतन हो जाएगा और हिटलर की निश्चित रूप से जीत होगी वो अपनी आèयात्मिक शक्ति से मित्रा राष्ट्रों की सहायता करने लगे और उन्हें यह देखकर संतोष हुआ कि जर्मनी की विजय का वेग लगभग तुरंत ही रुक गया और युद्ध का पासा पलट गया। ऐसा उन्होंने इसलिए किया कि उन्हें यह प्रत्यक्ष हो गया था कि हिटलर और नात्सीवाद के पीछे अंधकारमय आसुरिक शक्तियाँ कार्य कर रही हैं और उनकी सफलता का अर्थ यह होगा कि मनुष्य जाति दुष्टो के अत्याचारपूर्ण शासन के अधीन हो जाएगी और उसका सामान्य क्रमविकास तथा विशेष रूप से आèयात्मिक विकास रूक जाएगा। इसके परिणामस्वरूप केवल यूरोप ही नहीं बल्कि एशिया ओर इसके अंदर भारत भी गुलाम हो जाएगा। भारत की यह गुलामी, उन सब गुलामियों से, जिन्हें यह पहले कभी भोग चुका है, कहीं अधिक भयानक होगी और इससे वह सब कार्य जो इसकी स्वतन्त्राता के लिए किया जा चुका है मिट्टी में मिल जाएगा।
श्री अरविन्द ने सन 1910 में ही भारत की स्वतन्त्राता के बारे में अपना दृषिटकोण स्पष्ट दिया था- ‘‘चार वर्ष बाद युद्धो, जगद्व्यापी महा परिवर्तनों एवं क्रान्तियों का एक लम्बा काल आरम्भ होगा जिसके पश्चात भारत अपनी स्वतन्त्राता प्राप्त कर लेगा। स्वाधीनता शीघ्र ही आ रही है और कोई चीज उसे रोक नहीं सकती।’’
जिन उद्देश्यों, क्रान्तियों, नीतियों को वे स्वतन्त्राता के लिए उपयुक्त समझ रहे थे उनको ऊर्जा, शक्ति देना उन्होंने प्रारम्भ कर दिया था। वह शक्ति अग्रेंजो की दमन शक्ति से अध्कि प्रभावपूर्ण सिद्ध हुई अत: भारत स्वतन्त्रा हुआ। वो अपनी आèयात्मिक शक्ति एंव साधना के परिणामों के बारे में लिखते हैं-
‘‘मैं आèयात्मिक शक्ति को भौतिक स्तर पर उतार लाने के लिए आवश्यक शक्तियों का विकास कर रहा हूँ, और अब मैं इस योग्य हो गया हूँ कि मैं स्वंय मनुष्यों में घुस सकूँ और उन्हें बदल सकूँ, उनका अंध्कार दूर कर उनमें ज्योति ला सकूँ और उन्हें नया हृदय और नया मन दे सकूँ। यह कार्य मैं उन लोगों में अध्कि तेजी ओर पूर्णता के साथ कर सकता हूँ जो मेरे निकट है, परंतु मैं उन लोगों में भी करने में सफल हुआ हूँ जो मुझसे सैकडो मील दूर हैं। मुझे मनुष्य का चरित्रा और हृदय यहाँ तक कि उनके विचार भी जान लेने की शक्ति प्राप्त हो गयी हैं महज संकल्प शक्ति का प्रयोग कर क्रिया कराने की शक्ति भी विकसित हो रही हैं। 12-07-1911
‘‘ऐसे समयों में, जो वास्तव में विश्व व्यापी विनाश के काल है, निरूत्साहित न होने के लिए शांत हृदय, सुदृढ़ संकल्प, सम्पूर्ण आत्मोत्सर्ग तथा आँखो के परे को ओर निस्तर लगाए रहने की आवश्यकता होती हैं। मैं स्वयं बस दिव्य वाणी का अनुसरण करता हूँ ओर अपने दाहिने या बाँए किसी ओर नहीं ताकता। परिणाम मेरा नहीं है और अब तो प्रयास भी एकदम मेरा नहीं हैं।
06-05-1915
भारत की स्वतन्त्राता के लिए आèयात्मिक प्रयास उनकी साधनाका एक हिस्सा था। 15 अगस्त 1947 को स्वतन्त्राता दिवस के विष्य में वो लिखते हैं।
‘‘15 अगस्त स्वधीन भारत का जन्मदिन है। यह दिन भारत के लिए पुराने युग की समाप्ति और नए युग का प्रारम्भ सूचित करता है। परंतु इसका महत्व हमारे लिए ही नहीं अपितु एशिया और सम्पूर्ण संसार के लिए भी हैं; क्योंकि यह राष्ट्रों की बिरादरी में एक नयी शक्ति के प्रवेश का सूचक है जिसमें अवर्णनीय सम्भाव्यशक्तियाँ है और जिसे मानवजाति के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवम् आèयात्मिक भविष्य के निर्धरण में एक बडी भूमिका अदा करनी है।’’
‘‘एक
गुह्यवेत्ता के रूप में मैं, अपने जन्मदिन के भारतीय स्वाधीनता दिवस के साथ इस प्रकार एक हो जाने को कोई दैवयोग या आकस्मिक संयोग नहीं मानता बल्कि यों मानता हूँ कि जिस कार्य को लेकर मैंने अपना जीवन आरंभ किया था मेरा पथ प्रदर्शन करने वाली भागवत शक्ति ने अपनी अनुमति दे दी हैं और उस पर अपनी मुहर भी लगा दी है।’’
साधना के प्रारम्भ में उन्होंने अपना अधिकाँश प्रयास अपनी साधना को पूर्णता तक पहुँचाने एवम् भारतीय स्वतन्त्राता आन्दोलन में प्राण फूँकने के लिए किया। सन 1926 के पश्चात वो क्रम विकास के नेता के रूप में उभर कर आने लगे थे साथ-साथ पूरे विश्व की समस्याओं को सुलझाने के लिए अपनी आèयात्मिक शक्ति का प्रयोग करने लगे थे।
इस संदर्भ में उन्ही के शब्दों में
‘‘एक सत्य चेतना है जिसे वेद में Íतचित् कहा गया है और मैंने Supermind
(अतिमानस) नाम दिया है, जिसे ज्ञान उपलब्ध् है और अतएव उसे उसकी खोज नहीं करनी होती ओर न उसे पाने से बारम्बार वचिंत ही रहना पडता है। एक उपनिषद में विज्ञानमय पुरूष को मनोमय पुरूष के ऊपर का अगला सोपान कहा गया है। हमारी आत्मा को उसमें आरोहण कर उसके द्वारा आèयात्मिक सत्ता का पूर्ण आनन्द प्राप्त करना होता है। यदि उसे इस ध्रा पर क्रम विकास की प्रक्रिया में प्रकृति के अगले सोपान के रुप मे उपलब्ध किया जा सके तो प्रकृति का उद्देश्य चरितार्थ हो जाएगा और हम यह परिकल्पना कर सकेंगे कि जीवन यहीं परिपूर्णता प्राप्त कर लेगा और इस शरीर में ही या सम्भवत: एक पूर्णताप्राप्त शरीर में पूर्ण आèयात्मिक जीवन की उपलब्धि हो जाएगी। यहाँ तक कि हम इस भूतल पर दिव्य जीवन की चर्चा भी कर सकेगें; पूर्णता प्राप्त कर सकने का हमारा मानव स्वप्न की चरितार्थ हो जाएगा और उसके साथ पृथ्वी पर स्वर्ग की हमारी वह अभीप्सा भी पूरी हो जाएगी जो कोई धर्म सम्प्रदायों में तथा आèयात्मिक द्रष्टाओं और मनीषिायों में समान रूप से पायी जाती हैं।’’
सत्य को पाने वाले व्यक्ति को संकीर्ण मानसिकता का न होकर एक उदारवादी मानसिकता लिए हुए किसी प्रकार की सीमा में अपने को नहीं बाँध्ना चाहिए यह वर्णन करते हुए वे अपने एक शिष्य का फटकार लगाते है-
‘‘तुम कहते हो कि तुम्हें केवल सत्य की चाह है, तो भी तुम एक ऐसे संकुचित और अज्ञानपूर्ण धर्मान्ध् व्यक्ति की भांति बातें करते हो, जो उस धर्म के सिवा, जिसमें वह पैदा हुआ था, और किसी भी वस्तु के मानने से इंकार करता है। समस्त मतान्ध्ता मिथ्या वस्तु हैं, क्योंकि वह परमेश्वर और सत्य के वास्तविक स्वरूप के विरूद्ध हैं।’’
वे कहते है कि ईश्वर या सत्य किसी वर्ग, मत, सम्प्रदाय के ही होकर नहीं रहे हैं, ईश्वर या सत्य ऐसे किसी भी ढंग से या किसी भी रूप में अपने आपको नए सिरे से प्रकट करते है जिसे भागवत प्रज्ञा पसंद करें। उनके शब्दों में- ‘‘तुम भगवान को अपने निजी सकुंचित मस्तिष्क की सीमाओं में बंद नहीं कर सकते, न भागवत शक्ति एंव चेतना पर हुक्म चला सकते हों कि वह कैसे या कहां या किसके द्वारा प्रकट हों; भागवत सर्वशक्तिमता के आगे तुम अपनी क्षुद्र बाडें नहीं लगा सकतें। ये भी सीधे सादे सत्य है जिन्हें आज सारे संसार में स्वीकारा जा रहा हैं ; केवल बचकाने मन वाले लोग ही या वे जो अतीत के किसी सूत्रा में बेकार समय बिता रहे है इनसे इंकार करते हैं।
श्री अरविन्द की योग की शक्ति को समझने के लिए निम्नलिखित एक प्रंसग ही पर्याप्त होगा:
‘‘ श्री अरविन्द पांडिचेरी में स्थित अपने आश्रम में èयानस्थ अपने शिष्य नीरोदवरण को ‘सावित्री’ लिखा रहे थे। तभी पांडिचेरी में भंयकर समुद्री तूपफान आया। तूफान ऐसा कि नगर में सभी भवन, पेड़ आदि हिल उठे। श्री माँ यह सोचकर भागी गई कि महर्षि के कक्ष के खिड़की दरवाजे खुले होंगे, तूफान से काफी क्षति हो चुकी होगी, तुरन्त खिड़की, दरवाजे बन्द कर दूँ। परन्तु वहाँ जाकर उन्हें बड़ी हैरानी हुई । उन्होंने देखा कि कक्ष में निस्तब्ध् शाँति है, एक तिनका भी नहीं उड़ रहा है। उन्हें यह देखकर और भी हैरानी हुई कि न केवल कक्ष में अपितु कक्ष से लगभग दस-पन्द्रह फीट की दूरी तक तूफान अप्रभावी था। निश्चित रूप से यह श्री अरविन्द की योग साधना की फलश्रुति ही थी।
श्री अरविन्द की साधना मात्र भारत तक ही समबन्धित नहीं थी वरण पूरे विश्व के कायाकल्प हेतु उनकी साधना पाँच भागों में विभक्त थी जिन्हें वो अपने स्वप्नों के द्वारा व्यक्त करते थे।
इन स्वप्नों में पहला था एक क्रान्तिकारी आन्दोलन जो स्वधीन ओर एकीभूत भारत को जन्म दें। भारत आज स्वाधीन हो गया है पर उसने एकता नहीं प्राप्त की। एक समय प्राय: ऐसा दिखता था मानो अपने स्वाधीन होने की प्रक्रिया में ही वह फिर से उस पृथ्क-पृथ्क राज्यो की अव्यवस्थापूर्ण स्थिति मे जा गिरेगा जो विजय के पहले विद्यमान थी। परंतु सौभाग्य से अब ऐसी प्रबल सम्भावना हो गई है कि यह संकट टल जाएगा और अभी पूर्ण न सही पर एक विशाल तथा शक्तिशाली एकत्व अवश्य स्थापित हो जाएगा।
दूसरा स्वप्न था एशिया की जातियों का पुनरुत्थान तथा स्वातन्त्राय और मानव सभ्यता की उन्नति के कार्य में एशिया का जो महान स्थान पहले था उसी स्थान पर उसका लौट आना। एशिया जग गया है उसके बड़े-बड़े भाग स्वतन्त्रा हो गए है या हो रहे हैं।
तीसरा स्वप्न था एक विश्व संघ जो समस्त मानव जाति के लिए एक सुन्दरतर, उज्जवलतर और महत्तर जीवन का बाहरी आधर निर्मित करें। मानव संसार का वह एकीकरण प्रगति के पथ पर हैं। एक अधूरा प्रारम्भ संगठित किया गया है पर वह बडी भारी कठिनाइयों के विरूद्ध संघर्ष कर रहा है। जो कार्य किया जा रहा है उसमें महान विपत्ति आ सकती हैं और वह उसमें बाधा डाल सकती है तो भी अतिंम परिणाम निश्चित हैं। क्योंकि एकीकरण प्रकृति की आवश्यकता हैं, अनिवार्य गति हैं। इसकी आवश्यकता राष्ट्रों के लिए भी स्पष्ट हैं; क्योंकि इसके बिना छोटे-छोटे राष्ट्रो की स्वाधीनता किसी भी क्षण खतरे में पड़ सकती है और बडे तथा शक्तिशाली राष्ट्रों का भी जीवन असुरक्षित हो सकता हैं। इसलिए इस एकीकरण में ही सबका हित हैं और केवल मानवीय नि:शक्त्ता तथा मूर्खतापूर्ण स्वार्थपरता ही इसे रोक सकती हैं; परंतु ये भी प्रकृति की आवश्यकता और भगवान की इच्छा के विरूद्ध हमेशा नहीं ठहर सकती।
चौथा स्वप्न, संसार को भारत का आèयात्मिक दान, पहले से ही प्रारम्भ हो चुका हैं भारत की आèयात्मिकता यूरोप और अमेरिका में नित्य बढ़ती हुई मात्रा में प्रवेश कर रही हैं। यह आन्दोलन बढ़ेगा; वर्तमान काल की विपदाओं के बीच अधिकाधिक लोगों की आखें आशा के साथ केवल भारत की ओर मुड़ रही है और न केवल उसकी शिक्षाओं का अपितु उसकी आंतरात्मिक और आèयात्मिक साधनाका भी उत्तरोत्तर आश्रय लिया जा रहा हैं।
अतिंम स्वप्न था क्रम विकास का अगला कदम जो मनुष्य को एक उच्चतर और विशालतर चेतना में उठा ले जाएगा और उन समस्याओं का हल करना आरम्भ कर देगा जिसनें मनुष्य जाति को हैरान और परेशान कर रखा हैं। यह अभी तक एक व्यक्ति आशा, विचार और आदर्श मात्रा है जिसने भारत और पश्चिम दोनो जगह दूरदर्शी विचारकों को वश में करना शुरू कर दिया हैं। इस मार्ग की कठिनाइयाँ प्रयास के किसी भी अन्य क्षेत्रा की अपेक्षा बहुत अध्कि जबर्दस्त है, परंतु कठिनाइयाँ जीती जाने के लिए ही बनी हैं और यदि दिव्य परम इच्छा शक्ति का अस्तित्व है तो वे दूर होगी हीं। इसका प्रारम्भ भारतवर्ष ही कर सकता हैं। यद्यपि इसका क्षेत्रा सार्वभौम होगा, तथापि केन्द्रीय आन्दोलन भारत ही करेगा।
महात्मा गाँधी के निधन के अवसर पर अपने एक सन्देश में वो कहते हैं-
‘‘आज
हमारे चारों ओर यह जो परिस्थिति है उसके समाने मैं मौन रहना ही अधिक पसंद करता। क्योंकि ऐसी घटनाओं के समय हम जो भी शब्द कहने के लिए ढूँढ पाए वे बेकार सिद्ध होते हैं। तो भी मैं इतना अवश्य कहूगाँ कि जो ज्योति हमें स्वतन्त्राता तक, अभी एकता तक न सही, ले आयी है वह अब भी जल रही है और तब तक जलती रहेगी जब तक विजय प्राप्त न कर लेगी। मेरा दृढ़ विश्वास है कि एक महान और संगाठित भविष्य ही इस राष्ट्र की तथा इसकी जनता की भवितव्यता है। जो शक्ति हमें इतने संघर्ष और दुख कष्ट के भीतर से स्वतंन्त्राता तक ले आयी है वह, चाहे कैसे भी कलह और कष्ट क्लेश में क्यों न हो उस लक्ष्य को अवश्य अधिगत करेगी जो हमारे ध्राशायी हुए नेता के विचारो से इतनी तीव्रता के साथ प्रकट होता था। जैसे उसने हमें स्वतन्त्राता प्राप्त करायी वैसे ही वह हमें एकता भी प्राप्त कराएगी। निश्चय ही स्वतन्त्रा और संयुक्त भारत अस्तित्व में आएगा और माता अपने बच्चो को अपने पास चारों ओर इकट्ठा करेगी, उन्हें एक महान और ऐक्यब( जाति के जीवन में एक अखण्ड राष्ट्रीय शक्ति के रूप में ढालकर एक कर देगी।
05-02-1948
महर्षि अरविन्द का दर्शन
महर्षि द्वारा ‘सावित्री’ महाकाव्य की रचना की गई है जिसमें उनका समस्त दर्शन निहित है। इस महाकाव्य को महर्षि ने èयान मुद्रा में बैठकर रचा है तथा यह भारतीय दर्शन की अद्भुत कृति है। यद्यपि उनका दर्शन समुद्र की गहरई लिऐ हुये है जिसे समझना आसान बात नहीं है तथपि संक्षेप में उनके दर्शन को हम कुछ ऐसे अभिव्यक्त कर सकते हैं:-
1. सनातन धर्म- अन्य धर्म की भांति सनातन धर्म विश्वासो और क्रियाओं का समुह नहीं है। वह जीवन है- एक उच्चतर जीवन। अगर भारत उठ रहा है तो उस ज्योति को सारे संसार तक पहुँचाने के लिए। भारत अपने लिए नहीं, मानव जाति के लिए है और इसीलिए उसे अपने लिए नहीं, मानव जाति के लिए महान होना होगा। महर्षि के अनुसार हमारे स्वराज्य के आदर्श में घृणा के लिये स्थान नहीं है। हमारा आदर्श प्रेम और भ्रातृत्व के आधर पर खड़ा है। वह केवल राष्ट्र के अंदर एकता के स्वप्न नहीं देखता, वरन राष्ट्रो से परे सारी मानवता में एकता चाहता है।
2. भगवान का धन- महषिर कहते है कि भगवान ने जो गुण, प्रतिभा, शिक्षा, विद्या अथवा अर्थ रूपी धन हमें दिया है, उसमें से हमें उतना ही खर्च करने का अधिकार है जो नितान्त आवश्यक है। बचा हुआ धन धर्म-कार्यो में, परोपकार में उपयोग कर भगवान को लौटा देना ही उचित है।
3. कर्त्तव्य कर्म- महर्षि अरविन्द बताते है कि जो कुछ तुम चाहते हो उसे एक और रख दो और यह जानने की इच्छा करो कि भगवान क्या चाहते हैं। केवल यह जानने की कोशिश करो कि भगवान ने तुम्हारे लिए क्या उचित और आवश्यक निर्धरित किया है। इस प्रकार कर्त्तव्य कर्म की भगवान से जिज्ञासा करते हुए कर्म करना और फल का भार भगवान पर छोड़ देना ही कर्म समर्पण की एक सीढ़ी है।
4. भगवान की कृपा- महर्षि अरविन्द के अनुसार आदमी चाहे कितनी भी ठोकरें खाये, यदि वह भगवान से अभीप्सा करे तो उनकी कृपा हमेशा उसके साथ रहेगी और मुश्किलों में से उसे उबार लेगी।
5. योग साधना- महर्षि अरविन्द का स्पष्ट संदेश है कि जो लोग योग साधना करना चाहते है, उन्हें दिल की सच्याई , आत्म-समर्पण, भोजन से अनासक्ति, काम-वासना का दमन, कर्म से मुँह न मोड़ना तथा धन को भगवान का धन समझकर खर्च करने जैसे सात्विक गुण अपनाने होंगे। इसके बिना योग साधना संभव नहीं है।
श्री अरविन्द ने 5 दिसम्बर, 1950 को रात्रि एक बजकर 26 मिनट पर महासमाधि ले ली। पूरे 111 घंटे तक श्री अरविन्द के शरीर में दिव्य ज्योति की प्रभा बनी रही। मालूम होता था कि मत्र्य में अमरत्व उतर आया है। शरीर कांचन की तरह अपनी सहज आभा बनाए हुए था, उस में किसी प्रकार का विकार नहीं था।
सच महर्षि अरविन्द सरीखे देव मानव मानव जाति के कल्याण के लिए ही जन्म लिया करते हैं। ऐसे देव मानवों को हमारा बारम्बार प्रणाम है।
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