(गुरू वचन पलटे नही, पलट जाऐ ब्रàमाण्ड)
योगी कथामृत पुस्तक से साभार (Autobiography of a Yogi by Yogananda Paramhansa)
यह घटना उस काल की है, जब मैंने श्री युक्तेश्वर गिरि जी अपने गुरुदेव लाहिड़ी महाशय जी से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लिया था। मेरी एक गुरु-भार्इ राम से गहरी मित्रता हो गर्इ। हम अधिकतर समय आध्यात्मिक विषयों पर और गुरुदेव लाहिड़ी महाशय जी की महानता की चर्चा करते।
परंतु कुछ समय के बाद भाग्य ने करवट बदली। राम एक भयंकर रोग से पीड़ित हो गया। उसकी स्थिति दिन-प्रतिदिन दयनीय होती गर्इ। गुरुदेव के कहने पर दो बड़े डॉक्टरों को भी बुलवाया गया। निरीक्षण कर उन्होंने कहा- ‘इनका रोग असाध्य हो चुका है।’ इस वाक्य को सुनकर मैं भावुक हो गया और व्याकुल मन से गुरुदेव के पास पहुँचा। गुरुदेव को प्रणाम कर मैंने जैसे ही सिर ऊपर उठाया, गुरुदेव ने प्रश्न कर दिया- ‘कहो युक्तेश्वर, राम कैसा है? अब उसकी स्थिति कैसी है?’ मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा- ‘गुरुदेव, डॉक्टर कह रहे हैं कि रोग असाध्य हो चला है। उसकी स्थिति खराब होती जा रही है।’
‘चिंता मत करो। डॉक्टर अपना प्रयास कर रहें हैं.... वह अवश्य रोग-मुक्त हो जाएगा।’ स्नेहापूर्ण वाणी में गुरुदेव ने कहा। मैं वहाँ से लौटकर आया, तो देखा डॉक्टर जा चुके थे और एक पर्ची मेरे लिए छोड़ गए थे। उस पर लिखा था। ‘हम जितना प्रयास कर सकते थे, कर लिया है। यह व्यक्ति अधिक-से-अधिक एक या दो घंटे का ही मेहमान है।’ यह पढ़ते ही मेरे मन में द्वन्द्व उत्पन्न हो गया- ‘गुरुदेव ने तो कहा था कि डॉक्टर अपना प्रयास कर रहे हैं.... राम अवश्य रोग-मुक्त हो जाएगा। पर यहाँ डॉक्टर कह रहे हैं कि मृत्यु आने वाली है।’ मैं देख रहा था, राम की स्थिति निरन्तर बिगड़ रही थी।
पर गुरु के वचन असत्य कैसे हो सकते हैं? यह कैसे संभव है? इसी ऊहापोह की स्थिति में मुझे राम ने पुकारा और कहा- ‘युक्तेश्वर ! मैं अधिक समय तक जीवित नहीं रहूँगा। परंतु मित्र, मेरी एक आखिरी इच्छा पूरी करना। गुरुदेव को मेरा प्रणाम करना और उन्हें कहना कि वे अपने शिष्य के अंतिम संस्कार में आकर उसके शव को आशीष अवश्य दें।’ मैं उसे समझाने लगा- ‘नहीं राम! तुम स्वस्थ हो जाओगे। गुरुदेव ने कहा है कि तुम अवश्य ही स्वस्थ...’ मैं पंक्ति पूरी भी नहीं कर पाया कि मृत्यु ने राम की सांसों की डोर उसके जीवन के हाथों से खींच ली.... राम दीर्घ श्वास ले मृत्यु की गोद में लुढ़क गया।
मैं काफी समय तक उसके पास बैठकर रोता रहा। फिर कुछ अन्य शिष्यों को वहाँ बिठाकर आग्रह किया कि जब तक मैं लौट न आऊँ, अंतिम क्रिया मत करना। इतना कहकर मैं शीघ्रता से गुरुदेव के घर की ओर बढ़ा। मुझे नहीं पता कि यह स्वयं को असहाय मानकर उनके सहारे को पाने का प्रयास था या फिर उनके वाक्य की सत्यता को जानने की जिज्ञासा थी। पर मैं जैसे ही गुरुदेव के पास पहुँचा, तो ऐसा लगा मानो वे मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। मुझे देखते ही प्रश्न किया - ‘युक्तेश्वर! अब राम कैसा है? अब तो वह स्वथय हो गया होगा?’ गुरुदेव के वाक्य सुन मैं भावावेष में कहने लगा- ‘गुरुदेव, राम कैसा है? यह तो आप स्वयं ही जान लेगें, जब उसकी शव यात्रा को देखेंगे।’
गुरुदेव तुरंत बोले- ‘युक्तेश्वर! धैर्य धारण करो। इस प्रकार तुम्हें आवेश में नहीं आना चाहिए।’ कुछ क्षण मौन रहने के बाद गुरुदेव ने फिर कहा- ‘ध्यान धरो।’ मैं कहने को उत्सुक था- ‘गुरुवर, ध्यान! इस समय ध्यान?’ पर गुरुदेव ने पुन: आज्ञा देते हुए नेत्र मूंद लिए- ‘युक्तेश्वर! ध्यान धरो।’ मैं समझ नहीं पा रहा था, यह क्या हो रहा है? यह समय ध्यान का नहीं है, अपितु राम के शव का संस्कार करने का है। इस समय हमें वहाँ होनेा चाहिए। यही विचार करते हुए मैं ध्यान में बैठ गया। बैठ तो गया, लेकिन मन बहुत विचलित था। कभी राम की स्थिति को याद कर रहा था, तो कभी गुरु के व्यवहार को समझने की कोशिश।
इसी स्थिति में शाम से रात तक बीत गर्इ। अगली प्रात: गुरुदेव ने नेत्र खोले और कहा - ‘ युक्तेश्वर! तुमने मुझे कहा क्यों नहीं कि तुम मुझसे राम के लिए कोर्इ दवा चाहते हो? ऐसा करो कि सामने पड़े दीए के तेल को एक शीशी में भर लो और उसकी सात बूँदे राम के मुख में डाल देना।’ इस बात को सुन मैं विस्मय से कह उठा- ‘गुरुदेव, अब इसकी जरूरत नहीं, वह तो कल दोपहर से मृत्यु को प्राप्त है। अब इसे डालने का कोर्इ लाभ नहीं।’ लाहिड़ी जी ने कहा - ‘युक्तेश्वर! जैसे कहा है, उसे पूर्ण करो।’ गुरुदेव की आज्ञा को पूर्ण करने के लिए मैं पुन: राम के शव के पास पहुँचा। अब तक वह पूरी तरह से अकड़ चुका था। मैंने एक-एक कर बूँद डालनी आरम्भ की। जैसे ही सातवीं बूँद डाली, राम के शरीर में तीव्र स्पन्दन शुरू हो गया। उसी क्षण वह झटके से उठा और कहने लगा- मित्र! अभी-अभी मैंने एक दिव्य स्वप्न देखा। मैंने देखा कि सूर्य जैसा तेज प्रकाश आकाश में उदित हुआ और गुरुदेव उस प्रकाश पुँज में सुशोभित है। उन्होंने मुझसे कहा-पुत्र, इस न्रिदा का त्याग करो और शीघ्र ही युक्तेश्वर के संग मुझसे आकर मिलो।’
मैं हतप्रभ हुआ सब देख रहा था, यह क्या चमत्कार है? यह कैसे संभव है? यह क्या घटित हुआ है? हम जैसे ही गुरुदेव के पास पहुँचे, तो गुरुदेव के दर्शन कर राम की आँखे बरस पड़ी। गुरुदेव व राम दोनों उस अलौकिक घटना से परिचित थे, क्योंकि दोंनो उसके पात्र थे। एक बस मैं ही अपरिचित सा विचारों में डूबा था। तभी गुरुदेव ने व्यंग्यात्मक ढंग से कहा- ‘क्यों युक्तेश्वर! इस तेल में तो अथाह शक्ति है। अरे, इसकी शक्ति तो यम को भी परास्त कर डाले। अब तो तुम हमेशा इसे अपने पास रखना। जहाँ किसी को मृत देखा, तेल की सात बूँदे मुख में डाल दी। वह जीवित हो जाएगा।’ गुरुदेव ठहाका लगाकर हँस दिए। मैंने हाथ जोड़कर कहा- ‘गुरुदेव! मुझे क्षमा कर दें। परंतु मैं इस लीला को समझ नहीं पाया।’ तब गुरुदेव ने समझाया- ‘युक्तेश्वर! मैंने तुम्हें जोड़कर कहा-’गुरुदेव। मुझे क्षमा कर दें। परंतु मैं इस लीला को समझ नहीं पाया।’ तब गुरूदेव ने समझाया-’युक्तेश्वर! मैंने तुम्हें जब कहा था कि राम स्वस्थ हो जाएगा, तो उसे स्वस्थ होना ही था। पर तुम्हें मेरे वचनों से अधिक डॉक्टर के वचन सच्चे लगे। इसलिए वह मृत्यु को प्राप्त हुआ, अन्यथा यह घटना नहीं घटती।’
गुरुवर के इस वाक्य को सुनकर मैंने उनके चरणों में शीश रख दिया। अपनी भूल की क्षमा माँगी। उस दिन मैं जान गया- ‘असंभव को संभव करने का सामर्थय है गुरु वचनों में।’
‘समझे कुछ!’ - अनुभव सुनाकर युक्तेश्वरगिरि जी ने अपने शिष्यों से प्रश्न किया।सबने भावपूर्ण ढंग से ‘हाँ’ में सिर हिला दिया। तभी एक शिष्य कह उठा- ‘गुरुदेव, इसमें तो कोर्इ संदेह नहीं कि गुरु-वचनों में अनंत सामथ्र्य है। पर फिर उस तेल का सहारा क्यों लिया गया?’ शिष्य के निश्छल भाव और जिज्ञासा को देख युक्तेश्वरगिरि जी ने समझाया- ‘क्योंकि उस समय मेरी बुद्धि उनकी कृपा को स्थूल रूप में चाहती थी। शायद मैं उनकी अदृश्य कृपा को समझ नहीं पाता। इसलिए मेरी श्रद्धा को जागृत करने के लिए उनके समझ जो था, वही मुझे दे दिया। जबकि शक्ति तो उनके वचनों और शब्दों में ही थी।’
योगी कथामृत पुस्तक से साभार (Autobiography of a Yogi by Yogananda Paramhansa)
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