महर्षि अरविन्द
श्री अरविन्द का जन्म 15 अगस्त 1872 को कलकत्ते में हुआ था। उनके पिताजी एक सुयोग्य एवं सुदृढ़ व्यक्तित्व वाले आदमी थे। उन्होंने निश्चय कर रखा था कि वे अपने बच्चों को पूर्ण रूप से यूरोपीय शिक्षा ही दिलायेगें। इसलिए 1879 में वे अपने तीनों लड़को को इग्लैण्ड ले गए। वहाँ उन्होंने इन्हें एक अंग्रेज पादरी और उसकी स्त्री को सौंप दिया तथा यह कठोर निर्देश दे दिया कि उनके बच्चों को किसी भारतीय से परिचय न करने दिया जाये और न उन पर किसी प्रकार का भारतीय प्रभाव पड़ने दिया जाए। इन निर्देशों का अक्षरश: पालन किया गया और श्री अरविन्द भारतवर्ष, इसकी जनता, इसके धर्म एव संस्कृति से पूर्णतया अनभिज्ञ रहते हुए ही बड़े हुए।
श्री अरविन्द ने इंग्लैण्ड रहकर 20 वर्ष की आयु से पूर्व ग्रीक, लैटिन और अग्रेंजी भाषाओं पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिया था व जर्मन, फ्रेंच, इटालियन जैसी यूरोपीय भाषाओं का भी उन्होंने पर्याप्त परिचय प्राप्त कर लिया था। लंदन में शिक्षा प्राप्त करते समय उन्हे कई बार बड़े कष्टों का सामना करना पड़ा था। पूरे एक वर्ष भर प्राय: सेंडविच के एक दो टुकड़े, रोटी और मक्खन तथा एक प्याला चाय ओर शाम को एक आने का कवाब यही उनका भोजन रहा। घर वालो के दबाव में वो भारतीय प्रशासनिक सेवा (ICS) की परीक्षा में भी सम्मिलित हुए एवम् अच्छा स्थान प्राप्त किया परंतु इग्लैण्ड में छोटी सी अवस्था में ही उन्होंने अपने देश को स्वतन्त्रा कराने का निश्चय कर लिया था इस कारण वो स्वयं को ICS से अलग करना चाहते थे। अपने आप सिविल सर्विस का परित्याग करने की जगह-जिसके लिए उनके घर वाले अनुमति न देते- कुछ युक्तियों सें उन्होंने अपने को घुड़सवारी के अयोग्य सिद्ध करने का उपाय निकाल लिया।
ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही श्री अरविन्द को इस बात का तीव्र अनुभव हो गया था कि जगत में एक सार्वभौम उथलपुथल और महान क्रांतिकारी परिवर्तनों का समय आ रहा है और स्वंय उनका भी उसमें भाग लेना देवनिर्दिष्ट है। तब उनका èयान भारत की ओर आकृष्ट हुआ ओर शीघ्र ही वह अनुभव अपने देश को स्वतन्त्रा कराने के विचार में परिणत हो गया।
परंतु उस ‘‘दृढ़ निश्चय’’ ने अपना परिपक्व रूप और चार वर्षो बाद ग्रहण किया। लन्दन में रहने वाले भारतीय विद्यार्थियों ने एक गुप्त संस्था की स्थापना की थी जिसका नाम उन्होंने ‘कमल ओर कटार’ (Lotus and Dagger) रखा था। इसमें प्रत्येक सदस्य ने प्रतिज्ञा की थी कि सामान्य रूप से वह भारत को स्वतन्त्र कराने के लिए कुछ न कुछ कार्य करेगा ओर इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए कोई विशेष कार्य भी अपने ऊपर लेगा। इग्लैण्ड में उनके पिताजी ने उन्हें ‘अरविन्द एक्रायड घोष’ नाम दिया था। इग्लैण्ड छोड़ने से पूर्व उन्होंने अपने नाम से ‘‘एक्रायड’’ शब्द निकाल दिया था और इसका प्रयोग उन्होंने फिर कभी नहीं किया।
इग्लैंड से शिक्षा प्राप्त कर लगभग 20 वर्ष की आयु में वे भारत लौटे ओर सन 1893 से बड़ौदा में रहना प्रारम्भ किया। भारत आने के बाद शीघ्र ही उन्होने दैनिक पत्रों में राजनीतिक विषयों पर लेख लिखने प्रारम्भ कर दिए थे। बड़ौदा में वो बड़ौदा रियासत के भूमि व्यवस्था विभाग (Land Settlement Deptt), स्टाम्पस आफिस (Stamps
Office), राजस्व कार्यालय (Revenue Office), मंन्त्रालय (Secretariat)
में विभिन्न पदो पर तथा कालेज में अग्रेंजी के प्रोफेसर, वाइस प्रिसिपल पर कार्यरत रहें।
सन 1900 के आस पास उन्होंने आèयात्मिक जीवन एंव योगाभ्यास में भी रूचि लेना प्रारम्भ कर दिया था। राजनीति और भारतीय स्वतन्त्राता आन्दोलन उस समय बड़ी निराशा व विषाद की स्थिति से गुजर रहा था इस कारण वो एक ऐसी आèयात्मिक शक्ति प्राप्त करना चाहते थे जो उन्हें सहारा दें व उनका पथ प्रदर्शन करें। सन 1904 के आस पास उन्होंने विभिन्न धर्मिक गुरुओं एवम् समकालीन योगियों से संपर्क परामर्श कर (जैसे - ब्रह्मानन्द जी, इन्द्रस्वरूप जी, माधवदास जी आदि) योग साधना व आèयात्मिक प्रगति में रूचि ली। सन 1893 से 1906 तक वो नौकरी, योग साधना- राजनीति (स्वतन्त्रता आन्दोलन) तीनों कार्य करते रहें। सन 1906 से 1910 तक वो भारतीय राजनीति में सक्रिय रूप से भारतीय राष्ट्रीयता के नायक बनकर उभरें। सन् 1901 मे उनका विवाह रॉंची (बिहार) के निवासी श्री भूपालचन्द्र की कन्या मृणालिनी देवी से हो गया। यद्यपि अपनी पत्नी के साथ श्री अरविन्द का व्यवहार सदैव प्रेम पूर्ण रहा, पर ऐसे असाधरण व्यक्तित्व वाले महापुरुष की सहधर्मिणी होने से उसे सांसारिक दृष्टि से कभी इच्छानुसार सुख की प्राप्ति नहीं हुई। प्रथम तो राजनीतिक जीवन की हलचल के कारण उसे पति के साथ रहने का अवसर ही कम मिल सका, फिर आर्थिक दृष्टि से भी श्री अरविन्द का जीवन जैसा सीध-सादा था, उसमे उसे कभी वैभवपूर्ण जीवन के अनुभव करने का अवसर नही मिला, केवल जब तक वे बड़ोदा मे रहे, वह कभी-कभी उनके साथ सुखपूर्वक रह सकी। फिर जब वे पांडिचेरी जाकर रहने लगे, तो उनकी बढी हुई योग-साधना की दृष्टि से पत्नी का साथ रहना निरापद न था तो भी कर्तव्य-भावना से उसे पांडिचेरी आने कों कह दिया। पर उसी अवसर पर इन्फ्रलुऐंजा महामारी के आक्रमण से उनका देहावसान हो गया।
श्री अरविन्द के राजनीतिक विचारों ओर कार्यो के तीन पहलू थे। सबसे पहला था वह कार्य जिसे उन्होंने आरम्भ किया- अर्थात वह गुप्त क्रांतिकारी प्रचार और संगठन जिसका मुख्य उद्देश्य था सशस्त्र विद्रोह की तैयारी करना। जब वे राजनीतिक क्षेत्र में उतरे तब अधिकतर भारतीय इसे एक अव्यवहार्य और प्राय: पागलों की सी कल्पना समझते थे। यह समझा जाता था कि ब्रिटिश साम्राज्य अत्यन्त शक्तिशाली है और भारत अत्यन्त दुर्बल;
उसे पूरी तरह नि:शस्त्र कर दिया गया है और वह इतना निर्वीर्य हो गया है कि ऐसे प्रयत्न में सफल होने का स्वप्न भी नहीं देखा जा सकता। दूसरा पहलू था एक सार्वजनिक प्रचार जिसका प्रयोजन था सम्पूर्ण राष्ट्र को स्वाधीनता के आदर्श की शिक्षा देना। तीसरा पहलू था जनता का संगठन करना जिसमें कि अधिकाधिक बढते हुए अहसहयोग व प्रतिरोध के द्वारा विदेशी शासन का सार्वजनिक ओर संयुक्त रूप से विरोध करके उसकी जडें खोखली कर दी जाँए।
श्री अरविन्द भारत की तत्कालीन स्थिति से निराश नहीं थे। यद्यपि यह सत्य था कि भारत नि:शस्त्र कर दिया गया था परंतु श्री अरविन्द का यह ख्याल था कि समुचित संगठन और बाहरी सहायता से यह कठिनाई पार की जा सकती हैं। भारत जैसे विशाल देश में तथा नियमित ब्रिटिश सैन्य की अल्पता को देखते हुए एक देशव्यापी प्रतिरोध और विद्रोह के साथ-साथ गुरिल्ला युद्ध भी फलप्रद हो सकता हैं। इसके अतिरिक्त भारतीय सेना में भी व्यापक विद्रोह कराने की संभावना थी। साथ ही उन्होंने ब्रिटिश लोगों के स्वभाव, उनके चारित्राय की विशेषताओं और उनकी राजनीतिक प्रवृत्तियों के झुकाव का अèययन भी कर रखा था। उनकी समझ में ये स्पष्ट था कि अंग्रेज लोग भारतीय जनता के स्वतन्त्रा होने के हरेक प्रयत्न का विरोध करेगें और बहुत हुआ तो, अत्यंत धीमे- धीमे केवल ऐसे सुधार ही स्वीकार करेगें जिससे उनका साम्राज्य प्रभुत्व दुर्बल न होता हों। यदि उन्होंने देखा कि प्रतिरोध एंव विद्रोह व्यापक ओर अदम्य होते जा रहे हैं तो अंत में, वे अपने साम्राज्य का जितना अंश बचा सकें उतना बचाने के लिए कुछ समझौता करने का यत्न करेगें अथवा यदि विद्रोह पराकाष्ठा को पहुँच गया तो इसके बजाय कि स्वतन्त्राता उनके हाथों से जबरदस्ती छीन ली जाए तो वे स्वंयमेव दे देना पसन्द करेगें। श्री अरविन्द का सार्वजनिक कार्य ‘इन्दु प्रकाश’ में लेख लिखने से आरम्भ हुआ था। उनके ‘पुराने दीपको के स्थान पर नए दीपक’ (New Lamps For Old) शीर्षक के अन्तर्गत लिखे गए सात लेखो की जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई थी जिसमें उन्होंने उस समय की कांग्रेस की आवेदन, निवेदन और प्रतिवाद की नीति की कड़े शब्दों में निन्दा की थी और स्वावलम्बन तथा निर्भीकता पर आधरित सक्रिय नेतृत्व के लिए आव्हान किया था। उन्होंने तिलक से भी सम्पर्क किया था जिन्हें वे क्रान्तिकारी दल के लिए एक मात्रा सम्भवनीय नेता मानते थे और अहमदाबाद कांग्रेस में उनसे भेंट की।
उनका विचार यह था कि वे कांग्रेस को अपने हाथ में कर लें, उसे क्रान्ति का एक यन्त्र बना दें जब कि वह अभी तक भीरूतापूर्ण वैधनिक हलचल का एक केन्द्र थी, जो केवल प्रस्तावों पर बहस करता, उन्हें पास करता और फिर विदेशी सरकार से सिफारिश करता रहता था। यदि कांग्रेस पर अधिकार न किया जा सके तो एक केन्द्रीय क्रान्तिकारी दल का निर्माण करना होगा जो इस कार्य को सम्पन्न कर सकता हैं। वह दल राज्य के भीतर एक ऐसा राज्य होना चाहिए जो जनता को आदेश-निर्देश दे तथा ऐसे संगठित दल और सस्थाएं बनाए जो इसके आंदोलन के लिए साधना का काम करें; उत्तरोत्तर एक ऐसा तीव्र असहयोग और प्रतिरोध करना होगा जिससे कि विदेशी सरकार के लिए इस देश का शासन करना कठिन या पूर्ण रूप से असम्भव हो जाए, एक ऐसा विक्षोभ पैदा करना होगा जो दमन को शांत कर दे और अंत में, यदि जरूरत हो तो, देश में सर्वत्रा खुला विद्रोह भी करना होगा। ब्रिटिश व्यापार का बहिष्कार, सरकारी संस्थाओं के स्थान पर राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना, ऐसी पंचायती अदालतो का निर्माण जिनमें जनता साधरण अदालतों की जगह अपने विवादों का निपटारा कर सकें, स्वंयसेवक-संघो का संगठन जो खुला विद्रोह करने वाली सेना के आधर बिन्दु हो सकें-ये सब इस योजना के अन्तर्गत थे और साथ ही वे सब अन्य कार्य भी जो इस प्रोग्राम को पूर्ण बना सकते हों। इस प्रकार हम देखते है कि असहयोग एंव प्रतिरोध को प्रणाली बनाकर स्वतन्त्राता रूपी लक्ष्य को पाने का सूत्र सर्वप्रथम अरविन्द ने दिया था। परंतु भारतीय राजनीति में श्री अरविन्द ने बहुत थोड़े समय के लिए खुलकर भाग लिया, क्योंकि 1910 में वे इससे अलग होकर पांडिचेरी चले गए।
अपनी राजनीति में श्री अरविन्द ने किसी प्रकार के विद्वेष को कभी स्थान नहीं दिया। उनके विचारों में इग्लैण्ड या अंग्रेजों के प्रति घृणा कभी नहीं दिखायी दी; भारतीय स्वतन्त्राता प्राप्त करने के लिए उन्होंने सरकार पर कुप्रबन्ध् या अत्याचार का दोष नहीं लगाया, अपितु स्वराज्य के जन्मसिद्ध अधिकार होने के नाते स्वराज्य का दावा किया सन 1907 से उन्होंने ‘वन्दे मातरम’ का सम्पादन अपने हाथ में लिया।
उस समय के प्रसिद्ध अखबार ‘स्टेट्समैन’ के सम्पादक की यह शिकायत थी कि वन्दे मातरम के सम्पादकीय लेख अत्यधिक चतुराई से लिखे जाते हैं, इनकी पंक्ति पंक्ति में राजद्रोह कूट कूट कर भरा रहता है, पर भाषा की चतुराई के कारण इन पर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती। उनकी स्थापना यह थी कि उत्तम से उत्तम शासन भी राष्ट्रीय शासन या स्वराज्य का स्थान कभी नहीं ले सकता। इन्हीं दिनों उन पर एक मुकदमा चला, पंरतु मुकदमा असफल रहा और वे छूट गए। हाँ कोई सफलता मिली तो यह कि श्री अरविन्द पर्दे के पीछे से जनता के सामने आ गए और भारत का शिक्षित वर्ग ‘‘वन्दे मातरम’’ को पढ़ने के लिए अधिक उत्सुक हो उठा।
सन 1893 से 1906 तक श्री अरविन्द पर्दे की ओट में रहकर ही लेख लिखते तथा जनता का नेतृत्व करते थे। अपना विज्ञापन करने या अपने आपको सामने ले आने की उन्होंने कभी परवाह न की। परंतु क्योंकि अन्य नेता या तो जेल में बंद थे या उन्हें देश से निर्वासित कर दिया गया था, और फिर एक मुकदमे के सिलसिले में उनका नाम भी देश में सर्वत्रा फैल गया था, अत: श्री अरविन्द को जनता के सामने आना और खुले रूप में नेतृत्व करना पड़ा।
जनवरी 1908 में श्री अरविन्द को एक महान महाराष्ट्रीयन योगी विष्णु भास्कर लेले का सान्निèय मिला। बडौदा में लेले के साथ 3 दिन èयान करने से उन्हें जो स्थिति प्राप्त हुई वह मन की नीरवता की स्थिति थी। èयान कराने से पूर्व लेले ने उनसे प्रश्न किया था कि: ‘‘क्या आज अपने आपको अपने भीतर के ‘अन्तरस्थ मार्गदर्शक’ के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित कर सकते है और क्या आप वैसे चलने को तैयार है जैसे वे आपको चलाँए?’’ यदि ऐसा है तो आपको लेले या और किसी व्यक्ति से शिक्षा लेने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। यह बात श्री अरविन्द ने स्वीकार कर ली ओर उसे अपनी साधनाएं व जीवन का नियम बना लिया। लेले से भेंट होने से पूर्व भी उन्हें कुछ आèयात्मिक अनुभव हो चुके थे, परंतु यह उस समय की बात है जबकि उन्हें योग के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं था, यहां तक कि वे यह भी नहीं जानते थे कि योग क्या है? उदाहरणार्थ दीर्घकालीन प्रवास के बाद जब उन्होंने पहले पहल भारत की भूमि पर पदापर्ण किया, सच पूछिए तो ज्यों ही उन्होंने मुम्बई में अपोलो बन्दरगाह पर चरण रखा, उनके भीतर एक विशाल शांति का अवतरण हुआ (इस शांति ने उन्हें सब ओर से व्याप्त कर लिया और बाद में कई महीनों तक बनी रहीं) काश्मीर में तख्त-ए-सुलेमान-नामक पर्वत श्रृंखला पर भ्रमण करते हुए शून्य अनन्त की उपलब्धि; नर्मदा के तट पर एक मंदिर में काली की जीवंत उपस्थिति का अनुभव, बडौदा में अपने निवास के प्रथम वर्ष ही गाड़ी दुर्घटना के खतरे के समय अपने भीतर से प्रकट हुए ईश्वर का साक्षात्कार आदि आदि। परन्तु ये आंतरिक अनुभव थे जो एकाएक, अप्रत्याशित रूप में तथा स्वयमेव प्राप्त हुए, ये साधना के अंग नहीं थे। उन्होंने योग अपने आप बिना किसी गुरु के ही शुरू किया था। प्रारम्भ में उनका योग प्राणायाम की कृच्छ क्रिया तक ही सीमित रहा ;एक समय तो वे प्रतिदिन छ: या इससे भी अधिक घंटे प्राणायाम किया करते थे। उनके अंदर योग और राजनीति के सम्बन्ध में कोई संघर्ष या द्वन्द्व नहीं चलता था। वे दोनों को साथ-साथ चलाते रहे और इनके पारस्परिक विरोध का विचार तक उनके मन में नहीं आता था। तथापि वे एक गुरु की खोज में थे। खोजते-खोजते वे एक नागा सन्यासी से मिले, किंतु उन्हें गुरु के रूप में वरण नहीं किया। तथापि उनके द्वारा योग शक्ति में उनका विश्वास और भी दृढ़ हो गया, क्योंकि उन्होंने देखा कि उन्होंने (सन्यासी ने) बारीन (श्री अरविन्द के भाई ) को पल भर में ही एक भयंकर और दु:साèय पहाडी ज्वर से मुक्त कर दिया था। वह केवल इस प्रकार कि उन्होंने एक गिलास भर जल लेकर उसे मन ही मन एक मंत्र जपते हुए, चाकू से आडे बल चीरा और फिर बारीन से उसे पी जाने को कहा। बारीन उसे पीते ही अच्छे हो गए। वे रामकृष्ण मिशन के स्वामी ब्रह्मानन्द जी से भी मिलकर बहुत प्रभावित हुए। लेले के साथ भी उनका सम्पर्क थोड़े दिन तक ही रहा। श्री अरविन्द ने नियमित रूप से दीक्षा कभी किसी से ग्रहण नहीं की।
एक पत्र के उत्तर में वो अपनी साधनात्मक अनुभतियों का वर्णन करते हुए कहते है- ‘‘जो कुछ मैं लिखूँ उसका यदि तुम जानबूझकर गलत अर्थ लगाओ तो कुछ भी कहने का लाभ ही क्या? मैंने स्पष्ट रूप से कहा था कि प्राणयाम से मुझे किसी प्रकार के आèयात्मिक सक्षात्कार की जरा सी झांकी भी तो नहीं प्राप्त हुई। मैंने प्राणायाम करना बहुत पहले ही बन्द कर दिया था। ब्रह्म की अनुभूति तब प्राप्त हुई जब मैं उसके लिए रास्ता टटोल रहा था, किसी प्रकार की भी साधना नहीं कर रहा था, जरा भी प्रयत्न नहीं कर रहा था क्योंकि मुझे पता ही नहीं था कि क्या यत्न कँरू, पहले के सारे प्रयत्न तो विफल ही हो चुके थे। तब तीन दिनों में ही मुझे एक अनुभव प्राप्त हुआ जिसे बहुतेरे योगी योगाभ्यास के अंत में ही प्राप्त करते हैं। वह अनुभव मुझे बिना चाहे या बिना यत्न किए ही प्राप्त हो गया। मेरे उसे पाने पर लेले भी आश्चर्यचकित रह गए क्योंकि वे मुझे एक बिल्कुल भिन्न चीज प्राप्त कराने के लिए यत्न कर रहे थे। पर मेरी समझ में तुम यह सब नहीं समझ सकते, अत: मैं अधिक कुछ नहीं कहता।’’ (24-1-1936, श्री अरविन्द)
(अपने विषय में पुस्तक से पृष्ठ 84)
(अपने विषय में पुस्तक से पृष्ठ 84)
उनकी आèयात्मिक अनुभूतियों को तीव्रतम दिशा देने के लिए उन्हें एकांत की आवश्यकता थी जो उनके सामाजिक जीवन के चलते संभव नहीं थी। इस आवश्यकता की पूर्ति हेतु उनके जीवन में एक नया मोड़ आया जबकि 5-5-1908 को उन्हें पुलिस पकड़कर ले गयी उन्हें अलीपुर जेल में लगभग एक वर्ष एकान्तवास-अज्ञातवास में रखा गया।
अलीपुर जेल में श्री अरविन्द ने गीता पढ़ना तथा उसकी साधना
के अनुसार जीवन बिताना आरम्भ किया। वहाँ उन्हें ‘‘सनातन धर्म’’ के सच्चे आंतरिक स्वरूप एवम् माहात्म्य का पूर्ण रूप से अनुभव हुआ था। महर्षि अरविन्द के अपने ही शब्दो में - अलीपुर जेल में रहते हुए भगवान वासु देव ने उनसे कहा: ‘‘मैंने तुम्हें एक काम सौंपा है। तुम्हें इस राष्ट्र को उठाना है। .......... मैं इस देश को अपना संदेश पफैलाने के लिए उठा रहा हूँ। यह संदेश उस सनातन धर्म का संदेश है, जिसे तुम अभी तक नहीं जानते थे पर अब जान गये हो। तुम बाहर जाओ तो अपने देशवासियों से कहना कि तुम सनातन धर्म के लिए उठ रहे हो, तुम्हें स्वार्थ सिध्दि के लिए नहीं, अपितु संसार के लिए उठाया जा रहा है। ......... मेरी शक्ति काम कर रही है और वह दिन दूर नहीं जब काम में सफलता प्राप्त होगी।
उन पर मुकदमा अलीपुर के मजिस्ट्रेट की कचहरी में 19 मई 1908 को आरम्भ हुआ और रूक-रूक कर वर्ष भर चलता रहा। प्रारम्भिक सुनवाई विरले (Birley) के सामने हुई जो एक युवक थे और श्री अरविन्द से परिचित नहीं थे, यथा समय मुकदमा ऊपर सेशन्स अदालत में भेज दिया गया और वहाँ अक्टूबर सेशन्स कोर्ट के जज मिस्टर बीचक्राफ्रट श्री अरविन्द के कैम्ब्रिज के साथी थे और श्री अरविन्द की प्रतिभा से बहुत प्रभावित थे।
मुकदमे के समय विशेष बात यह रही कि जेल में वे अपना सारा समय गीता और उपनिषदो के स्वाèयाय, गंभीर èयान तथा योगाभ्यास में व्यतीत करते थे वे सारा दिन èयान में लीन रहते थे, मुकदमे की ओर èयान नहीं देते थे न गवाहों के कथनो पर ही èयान देते थे वे मुकदमे का पूरा कार्यभार अपने वकीलों के ऊपर छोड़ना चाहते थे।, उनकी ओर से सब बातें वकील ही कहेगें। वे न तो स्वय कोई व्यक्तव्य देना चाहते थे ओर न अदालत के प्रश्नों का उत्तर ही। सीñआरñ दास जो उनके एक राष्ट्रवादी सहयोगी और एक विख्यात वकील थे, अपनी भरी पूरी वकालत को एक तरफ रखकर श्री अरविन्द की पैरवी में जुट गए और महीनों इस कार्य में लगे रहें। श्री अरविन्द ने अपने मुकदमे का भार पूरी तरह उन पर छोड़ दिया और इसकी कुछ भी चिन्ता नहीं की। उन्हें अंदर से आश्वासन मिल चुका था कि वे छूट जाँएगे।
श्री अरविन्द जब जेल से बाहर आए तो वे क्या देखते है कि देश की सम्पूर्ण राजनीतिक स्थिति कुछ की कुछ हो गई है, बहुत से राष्ट्रवादी नेता जेल में पडे हैं और कई देश छोडकर चले गए हैं तथा सर्वत्रा निरूत्साह और विषाद छाया हुआ हैं। सभाओं में जहाँ उपस्थिति सहत्रों की सँख्या में होती थी और उत्साह का सागर उमड़ पड़ता था, वहाँ अब केवल सैकड़ों की सँख्या रह गई ओर उनमें पहले जैसा उत्साह एंवम् जीवन की दृषिटगोचर नहीं होता था। उन्होंने कई स्थानों पर भाषण दिए, इन्हीं में से एक स्थान (उत्तर पाडा) में दिया हुआ भाषण उत्तरपाडा अभिभाषण के नाम से प्रसिद है जिसमें उन्होंने पहली बार जनता के सामने अपने योग ओर आèयात्मिक अनुभवों की चर्चा की। उन्होंने ‘कर्मयोगिन’ और ‘धर्म’ नाम से दो साप्ताहिक भी चलाए एक अग्रेजी में दूसरा बंगला में। एक रात ‘कर्मयोगिन’ के कार्यालय में श्री अरविन्द के सूचना मिली कि सरकार उनको बन्दी बनाकर पुन: उन पर मुकदमा चलाने की तैयारी कर रही हैं। सहसा ऊपर से आदेश मिला कि वे फ्रेंच भारत में चंदननगर चले जाएँ। उन्होंने तुरंत उस आदेश का पालन किया, क्योंकि तब उन्होंने नियम बना रखा था कि भगवान उन्हें जैसी प्ररेणा देगें उसके अनुसार ही वे कार्य करेगें, उसका प्रतिरोध् कभी नहीं करेगें, न उसके विचलित होगें। उन्होंने किसी से सलाह करने की प्रतिक्षा नहीं की बल्कि 10 मिनट में ही नदी के घाट पर पहुँच गए और गंगा में चलने वाली नौका पर सवार हो लिए। कुछ ही घण्टों में वे चंदननगर पहुँच गए जहाँ वे एक गुप्त स्थान में रहने लगें। उन्होंने बहिन निवेदिता को एक संदेश भेजा कि मेरी अनुपस्थिति मे ‘कर्मयोगिन’ के सम्पादन का कार्य आप सम्भाल लें। चंदननगर में वे पूर्ण रूप से एकांत èयान में डूब गए और अन्य सब काम काज बन्द कर दिया वहाँ उन्हे पांडिचेरी चले जाने की पुकार आयी। उत्तरपाडा के कुछ क्रान्तिकारी युवकों ने उन्हें कलकत्ते पहुँचाया; वहाँ से ‘डूप्ले’ जहाज पर सवार होकर वे 4 अप्रैल 1910
को पांडिचेरी पहुँच गए।
No comments:
Post a Comment