एक बार लेखक पी. एच. ड़ी. का कार्य
करते-करते कंधे के दर्द से पीड़ित हो गया। सांय काल थोड़ी निराश मुद्रा में चुपचाप
लेटा हुआ था। उस समय देव समाज मिशन के एक 80
वर्ष के वृद्ध कार्यकर्ता लेखक से मिलने आये व उनका हाल चाल पूछा। लेखक की इस
स्थिति से वह दु:खी हुए वे उसके कंधे पर हाथ रखकर तीन बार शुभ हो- शुभ हो कहा। उसके
बाद एक छोटी सी प्रार्थना गायी। लेखक को कंधे के दर्द से तुरन्त राहत मिली व उसके
मन में प्रसन्नता की लहर दौड़ गर्इ। आश्चर्य की बात यह है कि देव समाज मिशन के लोग
ईश्वर का अस्तित्व नहीं मानते। केवल शुभ कर्मों को करते-करते उनकी आत्मा इतनी
शक्तिशाली हो जाती है कि उनके संकल्प से रोग दूर किये जा सकते हैं । तथ्य यह है कि
यह संसार कर्मप्रधान है।
कर्मप्रधान विश्व करि राखा , जो जस
करर्इ तस फलु चाखा।
यदि लगातार व्यक्ति शुभ कर्मो को करता
रहे व अपने संगी साथियों के लिए श्रेष्ठ
भावना रखे तो भी वह आत्मबल सम्पन्न महापुरूष बन सकता है। तीन योगों- कर्म
योग, ज्ञान योग व भक्ति योग में कर्म योग को
प्रधानता दी गर्इ है। यदि व्यक्ति निष्काम कर्म योग करता है तभी उसकी आत्मिक
उन्नति सम्भव है, मात्र ज्ञान व भक्ति योग से नहीं।
पाण्डवों के साथ स्वयं कृष्ण थे, परन्तु उनसे ध्युत क्रीड़ा की गलती हो
गर्इ जिसका बड़ा भंयकर परिणाम उन्हें भुगतना पड़ा। कर्म योगी निस्वार्थ कर्म व शुभ
कर्मो में स्वयं को खपा देता है। ज्ञान योगी वैराग्य से पूर्ण होता चला जाता है।
भक्ति योग साधक के भीतर प्रेम की भावना भरता रहता है। ध्यान योग व्यक्ति को
अन्तर्मुखी बनाकर आत्म चिन्तन सिखाता है।
कर्इ बार व्यक्ति उलझा रहता है कि क्या
बड़ा क्या छोटा ? लेखक के मतानुसार सभी का अपना-अपना
महत्व है। सुर्इ चाकू तलवार सबकी अपनी-अपनी उपयोगिता है। विवेकी पुरूष समुचित
स्थान पर वस्तु का उचित उपयोग जानता है। ऐसे ही कुशल साधक सभी योगों को अपनी
उन्नति के लिए प्रयोग करता है। सामान्य तौर पर उन्नति का प्रारम्भ कर्म योग से
हौता है जब शुभ कर्मो द्वारा प्रारब्ध का बोझ हल्का हो जाये तभी ज्ञान योग द्वारा
वैराग्य आ पाता है। वैराग्य दृढ़ होने पर ही भक्ति योग द्वारा प्रेम रस उत्पन्न
होता है। यदि वैराग्य न आये तो इसी प्रेम रस
के मोह अथवा वासना में परिवर्तित होते देर नही लगती। सभी मार्ग एक दूसरे के
पूरक है। यदि कर्म योग सधेगा तो बुद्धि निर्मल होगी जिससे ज्ञान योग आयेगा। यदि
ज्ञान आया तो व्यक्ति संसार विरक्त होगा वह अपने जीवन लक्ष्य की ओर बढे़गा ऐसी
स्थिति में अनासक्त आत्मा प्रभु कृपा व प्रभु प्रेम का दीदार करेगी। व्यक्ति
निश्चिन्त होकर जो मार्ग पसन्द आये उस पर आगे बढ़ता रहे। धीरे-धीरे निस्वार्थ कर्म, वैराग्य व प्रेम उसकी आत्मा के आभूषण
बनते जाएंगे व जीवन आन्नद व शांति से भरपूर हो जायेगा।