माता के शरीर में
शुक्राणु और अण्डाणु के युग्मन अर्थात्
निषेचन के समय यदि वात पित्त और कफ (इन तीनों दोषों) में बहुत अधिक असन्तुलन हो तो या तो गर्भ ठहरता ही नहीं या फिर गर्भपात हो जाता
है। यदि इन तीनों दोषों में से किसी
एक दोष की अधिक प्रबलता रहती है तो एकल
प्रकृति (वात या पित्त या कफ प्रकृति) निर्मित होती है और उस दोष के अनुसार ही
गर्भस्थ शिशु के गुण-कर्म,
स्वभाव तथा शारीरिक एवं मानसिक संरचना
निर्मित होते हैं तथा वह जन्म लेने के बाद उस दोष से सम्बन्धित रोगों से शीघ्र
पीड़ित होने वाली देह-प्रकृति वाला रहता है। यदि
निषेचन के समय किन्हीं दो दोषों की प्रधानता रहती है तब दोनों दोषों के गुण
और प्रभाव के मिश्रण वाली द्वन्द्वज-प्रकृति निर्मित होती है। यदि निषेचन के समय तीनों दोष सम अवस्था में हों तो
सम प्रकृति की उत्पत्ति होती है जिसे आयुर्वेद सर्वोत्तम देह प्रकृति कहता है।
देह-प्रकृति का यह प्रकार बहुत ही दुर्लभ होता है। फिर आज के दौर में जब माता-पिता
के आचार-विचार और आहार-विहार के चलते न तो शुक्राणु व अण्डाणु की अवस्था एवं
प्रकृति सन्तुलित रह गयी है और न ही ऋतु, काल
और गर्भाशय का वातावरण इस प्रकार के रह गये हैं कि सम-प्रकृति का शिशु जन्म ले।
तो-
शुक्रार्तवस्थैर्जनमादौ विषेणेव
विषक्रिमे: ।
तैष्च तिस्त्र: प्रकृतयो हीनमध्योत्तमा:
पृथक्।।
समधातु: समस्तासु सृष्ठ निन्द्या
द्विदोषजा:।
-अष्टांग संग्रह सूत्र 1-27
अर्थात् शुक्र (शरीरोत्पादक पुरूश बीज)
और आर्तव (शरीरोत्पादक स्त्री बीज) में स्थित वातादि दोषों द्वारा हीन, मध्य और उत्तम इस प्रकार तीन
प्रकृतियां विष से विषकृमि की तरह बनती हैं। जैसे विष की कृमियां विष से नष्ट न
होकर विष में ही उत्पन्न होती है, उसी प्रकार वातादि दोषों द्वारा वायु की अधिकता से हीन, पित्त की अधिकता से मध्यम और कफ की
अधिकता से उत्तम इस प्रकार की तीन प्रकृतियां बनती हैं। इनमें तीन दोषों की समानता से सम प्रकृति बनती है जो कि
सर्वश्रेष्ट मानी गर्इ है। द्विदोषज अर्थात् वात-पित्त, वात-कफ और पित्त-कफ से जो तीन मिश्रित
प्रकृतियों बनती हैं, वे
निंदनीय होती है।
यानी वातादि दोषों की प्रधानता से पृथक-पृथक प्रकृति 3, दो दोषों की प्रधानता से
बनने वाली द्विदोषज प्रकृति 3
तथा तीनों दोषों की साम्यावस्था से बनने वाली प्रकृति 1- कुल सात प्रकार की देह-प्रकृतियां होती हैं।
जिस प्रकृति में जिस दोष की प्रधानता
होती है उस प्रकृति के व्यक्ति में, अन्य व्यक्तियों की तुलना में, उस दोष विशेष का प्रकोप बहुत शीघ्रता से होता है। उदाहरण के लिए वात प्रधान प्रकृति के
व्यक्ति में जरा सी भी अनियमितता से वात सम्बन्धी समस्याएं शीघ्र उत्पन्न हो जाती
हैं। इसी प्रकार कफ और पित्त प्रधान प्रकृति वाले व्यक्ति क्रमश: कफ तथा पित्त
सम्बन्धी समस्याओं से शीघ्र ग्रसित हो जाते हैं। आयुर्वेद के अनुसार देह-प्रकृति
को ध्यान में रखकर आहार-विहार करने से उस प्रकृति के प्रधान दोष से सम्बन्धित विकारों
से बचाव हो जाता है । इतना ही नहीं आयुर्वेद चिकित्सा पद्दति में, किसी रोग की चिकित्सा करते समय, वैद्य को रोगी की देह-पकृति को ध्यान
में रखकर कर ही औषधि सेवन और आहार विहार सम्बन्धी निर्देश देना होते हैं। उदाहरण
के लिए किसी रोग के लक्षण समान होने पर भी जहां पित्त-प्रकृति वाले रोगी के लिए
शीतल गुण, वीर्य व विपाक वाली औषधियां और आहार
लाभकारी होते हैं वहीं कफ प्रकुति के रोगी के लिए उष्ण गुण, वीर्य व विपाक वाली औषधियां और आहार
हितकारी होते हैं। इसीलिए हमने शुरू में कहा था कि आयुर्वेद रोग की नहीं बल्कि
रोगी की चिकित्सा करने को महत्व देता है। आइए अब तीन मुख्य प्रकृतियों के लक्षणों
पर चर्चा करते हैं। द्विदोषज प्रकृति में किन्हीं दो दोषों की प्रधानता के अनुसार उन दो प्रकतियों
के लक्षणों का मिश्रण रहता है जो दो दोषों के अनुपातिक संयोजन के अनुसार होते हैं
जैसे वात-पित्त प्रकृति में यदि वात दोष प्राथमिक दोष हैं और पित्त द्वितीयक दोष
हैं तो वात-प्रकृति के लक्षणों की अधिकता रहती है।
देह-प्रकृति के लक्षण
वात-प्रकृति के लक्षण - जिन व्यक्तियों की देह-प्रकृति में
वात दोष की प्रधानता रहती है उनका शरीर दुबला-पतला, दुर्बल और छोटा होता है। पेशियों का विकास कमजोर होता है जिससे
अस्थियां और अस्थिसन्धियां स्पष्ट दिखार्इ देते हैं। इनका सीना चपटा रहता है तथा
त्वचा से पेशियों के कण्डरा (Tendons) और
नसें दिखार्इ देती हैं। त्वचा शुष्क, ठण्डी, खुरदरी और फटी हुर्इ होती है तथा रंग
दबा हुआ होता है। आंखें छोटी, धंसी
हुर्इ, शुष्क व चंचल रहती हैं तथा आंख का सफेद
भाग धूल के रंग का होता है। इनके शरीर पर
बाल कम होते हैं और सिर के बाल रूखे और दो मुंहे होते हैं।। तलुवे व हथेलियां
खुरदरी होती हैं तथा नाखून जल्दी टूटने वाले होते हैं। इनकी चाल हल्की रहती है और
चलते समय जोड़ों से आवाज आती है।
शरीर क्रियात्मक स्तर पर देखें तो
सामान्यत: ये हल्का आहार ग्रहण करने वाले होते हैं। इनकी भूख और पाचन क्षमता स्थिर
नहीं होते अत: कभी भूख अच्छी लगता है और कभी नहीं लगती; कभी पाचन ठीक रहता है तो कभी नहीं। इस
प्रकृति के लोगों में मीठे,
खट्टे, नमकीन पदार्थों तथा गरम पेय के प्रति अधिक रूचि रहती है । मल-मूत्र
कम मात्रा में बनते हैं और मल शुष्क और कड़ा होता है। इन्हें अन्य प्रकृतियों के
व्यक्तियों की तुलना में कम पसीना आता है। इनकी नींद या तो कम रहती है या अशान्त
रहती है। इन्हें शीत सहन नहीं होती है और रोग
शीघ्रता से पकड़ते हैं। ये तेजी से बोलने व चलने वाले होते हैं पर शीघ्र ही
थक जाते हैं।
मानसिक स्तर पर देखें तो शीघ्र
उद्विग्न हो कार्य में शीघ्रता दिखलाने वाले होते हैं। किसी भी बात को शीघ्र ही याद कर लेते हैं पर जल्दी ही भूल भी
जाते हैं। इच्छा शक्ति कम रहती है तथा मानसिक अस्थिरता रहती है। सहनशक्ति की कमी
रहती है तथा भय व चिन्ता से ग्रस्त रहते हैं।
पित्त-प्रकृति के लक्षण -
इस प्रकृति के व्यक्तियों का शरीर मध्यम आकार व बल वाला होता है। पेशियों
का विकास भी मध्यम होता है। इनका सीना न तो वात प्रकृति के व्यक्तियों की तरह सपाट
होता है और न ही कफ-प्रकृति के व्यक्तियों की तरह उभरा हुआ होता है। त्वचा मुलायम, गरम व सफेद, पीले या ताम्रवर्ण की होती है तथा
नाखून नरम होते हैं। बाल पतले, रेशमी
व भूरे रंग के होते हैं तथा इनकी समय से पूर्व ही सफेद होने और झड़ने की प्रवृत्ति
रहती है। इसी तरह समय से पहले त्वचा पर झुरियां पड़ जाती हैं। आंखे छोटी और
लालिमायुक्त होती हैं जिनकी पलकों पर बाल कम होते हैं। इनकी अस्थिसन्धियों
में शिथिलता होती है।
शरीर क्रियात्मक स्तर पर देखें तो इस
प्रकृति के व्यक्तियों को गर्मी सहन नहीं होती है जिससे ये सूर्य की धूप व कड़ा
परिश्रम सहन नहीं कर पाते। शारीरिक तापमान थोड़ा अधिक रहता है तथा हथेली और तलुवे
गरम रहते हैं। चेहरे, मुख और दूसरे अंगों में बहुत अधिक
गर्मी का अनुभव होता है। शरीर पर छोटी-छोटी फुन्सियां, तिल पिड़िकाएं तथा मुंह पर झाइयां होती
हैं। इनका चयापचय मजबूत होता है जिससे भूख अच्छी लगती है और पाचनशक्ति भी अच्छी
रहती है। जठराग्नि तीक्ष्ण होने से अधिक मात्रा में खाने-पीने वाले होते हैं और
भूख सहन न कर पाने से बार-बार कुछ न कुछ खाते रहते हैं । इनकी मीठे, तीखे व कषाय स्वाद वाले पदार्थों तथा
शीतल पेय में अधिक रूचि रहती है। इनमें पसीने, मल
और मूत्र की मात्रा अधिक रहती है तथा मल नरम व पतला रहता है। इनकी बगल, मुंह, सिर और शरीर से दुर्गन्ध आती है। इनकी नींद मध्यम समयावधि की परन्तु
शान्त और बाधा रहित रहती है।
मानसिक स्तर पर देखें तो ये तीक्ष्ण
बुद्धि वाले और अच्छे वक्ता होते हैं। इनमें घृणा, क्रोध और ईर्ष्या की भावना अधिक रहती है। ये महत्वकांक्षी और दूसरों
पर नेतृत्व करने की प्रवृति वाले होते हैं।
पित्तज प्रकृति वाले लोगों को कुष्मांडा रसायन और शतावरी रसायन का प्रयोग करना चाहिए।
कफ-प्रकृति के लक्षण- इस प्रकृति के व्यक्ति बलवान, दृढ़काया एवं संगठित शरीर वाले तथा स्नेहयुक्त व चिकने अंगों वाले
होते हैं। इनके सभी अंग भरे-पूरे और हष्ट-पुष्ट होते हैं। इनका सीना उभरा हुआ और
चौड़ा होता है। इनमें शारीरिक वनज अधिक होने की प्रवृति रहती है। अधिक चर्बी व
विकसित पेशियों के कारण त्वचा से नसें, पेशिय
कण्डरा एवं अस्थियां दिखार्इ नहीं देते। अस्थि-सन्धियों दृढ़ होती हैं। इनकी त्वचा
मुलायम, तेजमय और तैलीय होती है तथा रंग गोरा
होता है। बाल अधिक, मोटे काले व घने होते हैं। आंखों का
सफेद भाग ज्यादा सफेद बड़ा और आकर्षक होता है तथा आंखों में लाली नहीं रहती है।
शरीर क्रियात्मक दृष्टि से दखें तो इनकी भूख नियमित रहती है और
पाचन प्रक्रिया थोड़ी धीमी रहती है। इन्हें भूख और प्यास कम लगते हैं तथा पसीने भी
कम आता है। इन्हें तीखे, कषाय और कटु स्वाद वाले पदार्थों में
अधिक रूचि रहती है। मल नरम रहता है तथा मल त्याग की प्रक्रिया धीमी रहती है। इनकी
नींद अच्छी, बाधारहित और लम्बी समयावधि वाली रहती
है। इनमें जीवनीय शक्ति अच्छी रहती है तथा ये मन्द गति से चलने व कार्य करने वाले
होते हैं। सामान्यत: ये शांत, सुखी और स्वस्थ होते हैं।
मानसिक स्तर पर देखें तो इनमें अच्छी
सहनशक्ति होती है तथा इनका स्वभाव शांत और मसलों को नजर अन्दाज करने वाला होता है।
इनकी स्मरणशक्ति बहुत अच्छी होती है। काम-क्रोध का वेग कम रहता है पर मोह की
प्रवृति रहती है।
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