देह-प्रकृति के अनुसार आहार-विहार
यह तो हम सभी जानते ही हैं कि हमारे
शरीर के स्वस्थ बने रहने तथा रोग प्रतिरोधक शक्ति के बलवान बने रहने के लिए आहार
का पौष्टिक होना आवश्यक होता है किन्तु कोर्इ भी पौष्टिक आहार प्रत्येक व्यक्ति के
लिए लाभकारी हो यह जरूरी नहीं होता क्योंकि देह-प्रकृति के अनुसार आहारीय पदार्थों
का सेवन ही लाभ करता है। इसे इस उदाहरण से समझें कि दूध तथा इससे बने पदार्थ, मधुर रस युक्त पदार्थ पौष्टिक आहार
होते हुए भी कफ-प्रकृति के व्यक्ति के लिए लाभकारी नहीं होते हैं। इसी तरह
देह-प्रकृति के अनुसार विहार ही लाभकारी होता है, जैसे दिन में सोना वात-प्रकृति के व्यक्ति के लिए हितकारी और
पथ्य-विहार होता है पर कफ-प्रकृति के व्यक्ति के लिए यह अहितकर और अपथ्य विहार हो
जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि स्वास्थ्य की रक्षा करने की लिए आहार-विहार के
देह-प्रकृति के अनुसार होना आवश्यक होता है। तो आइए अपनी देह-प्रकृति के अुनसार
व्यक्ति को कौन-कौन से आहार-विहार करने चाहिए और कौन से नहीं इस पर बात करते हैं।
विपरीतगुणस्तेषां
स्वस्थवृत्तेर्विधिर्हित:।
समसर्वरसं सात्म्यं समधातो:
प्रशस्यते।। - चरक सूत्र 7-41
अर्थात् ‘स्वस्थवृत्त’ के विधान के अनुसार सदा वातादि प्रकृति
के व्यक्ति को अपने-अपने दोष (प्रकृति) के विपरीत गुणवाले आहार-विहार का सेवन ही
हितकर होता है और समधातु (समदोष) प्रकृति के व्यक्तियों को (उचित अनुपात से और
विरूद्धता को बचाते हुए) सभी रसों का सेवन करना हितकर है।
वात प्रकृति वाले वातवर्धक, पित्त प्रकृति वाले पित्तवर्धक एवं कफ
प्रकृति वाले कफवर्द्धक आहार-विहार के सेवन से तद् दोष जन्य रोगों से पीड़ित हो
जाते हैं अत: अपनी प्रकृति के विपरीत गुणवाले आहार-विहार का सेवन करना चाहिए। यदि
अपनी प्रकृति के समान गुणवाले (दोषवर्धक) पदार्थों का सेवन करना ही हो तो आयु, देश, ऋतृ, जठराग्नि आदि का विचार कर बहुत ही संयम
के साथ एवं युक्तिपूर्वक करना चाहिए।
त्रिदोष संचय, प्रकोप और शमन
पित, कफ और वात दोषों का संचय, प्रकोप और शमन क्रमश: वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर, वसन्त और ग्रीष्म ऋतु में, एक-एक का होता रहता है।
टिप्पणी - वातादि तीनों दोषों का अलग-अलग ऋतुओं
में बाहरी प्रकृति के परिवर्तनों के प्रभाव स्वरूप संचय, प्रकोप (वृद्धि होना) और शमन (शान्त
होना) होता है। पित्त का संचय वर्षा ऋतु में, प्रकोप
शरद ऋतु में और शमन हेमन्त ऋतु में होता है। कफ का संचय हेमन्त में, प्रकोप वसन्त में और शमन ग्रीष्म ऋतु
में होता है। वात (वायु) का संचय ग्रीष्म में, प्रकोप
प्रावृट् (वर्षा) में तथा शमन शरद ऋतु में
होता है। दोषों के संचित,
कुपित और शान्त (सामान्य) होने का यह
क्रम प्राकृतिक रूप से चलता रहता है।
स्वास्थ्य की रक्षा के लिए हमें
ऋतुचर्या के अनुसार, इन दोषों के संचित, कुपित और शान्त होने की स्थिति को
ध्यान में रखकर उचित और हितकारी आहार-विहार करने के साथ-साथ अपनी देह-प्रकृति के
अनुसार आहार-विहार करने पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है। कहने का तात्पर्य यह है
कि वात-प्रकृति के व्यक्ति को वर्षा ऋतु में, पित्त-प्रकृति
के व्यक्ति को शरद् ऋतु में तथा कफ-प्रकृति के व्यक्ति को वसन्त ऋतु में इन दोषों
को कुपित करने वाले आहार-विहार का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। स्वास्थ्य की रक्षा
करने यह एक प्रबल उपाय है।
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