Sunday, March 3, 2013

जीव परमात्मा को कैसे जाने?


जीव परमात्मा को कैसे जाने
शास्त्रों में मनुष्य शरीर की बड़ी महिमा आती है इसमें जो सबसे बढ़िया चीज है वह है - विवेक। वि​वेक से ही सा-असार, नित्य-अनित्य, कर्तव्य-अकर्तव्य - इन बातों का ठीक तरह से बोध होता है। यह विवेक जितना अधिक होगा, उतना ही मनुष्य श्रेष्ठ होगा व सम्मानीय होगा। कारण यह है कि विवेक शक्ति से वह हर बात का ठीक-ठीक निर्णय करेगा।
विवेक से भी बढ़कर क्या है? इससे भी बढ़कर है - परमात्मा। विवेक के द्वारा सार-असार, नित्य-अनित्य को समझकर नित्य, निर्विकार और सर्वोपरि परमात्मतत्व को प्राप्त कर लेने में ही मनुष्य शरीर की सफलता है। यदि परमात्मा की ओर ध्यान न देकर सांसारिक भोगों में ही समय बिता दिया, तो मनुष्य जीवन सार्थक नहीं हुआ। परमात्मा तत्व की प्राप्ति केवल मनुष्य योनि में ही सम्भव है मनुष्य को छोड़कर दूसरे जितने भी पशु पक्षी हैं, वे यह सब नहीं कर सकते।
पशुओं में गाय सबसे उत्तम मानी गयी है। गौमूत्र और गोबर से भी पवित्रता आती है, रोगों का नाश होता है। वह श्रेष्ठ व माता समान पूजनीय मानी गयी है, परन्तु ऐसी योग्यता उसमें भी नहीं है कि ईश्वर का अनुभव कर सके। इसी प्रकार देव योनि है। देवताओं के शरीर तेजस तत्व (अर्थात प्रकाश तत्व) से बने हैं जबकि मानव पृथ्वी तत्व प्रधान है। जैसे कोर्इ मल से भरा हुआ सूअर हो और हमारे पास से निकले तो हमारे को दुर्गंध आती है, ऐसे ही देवताओं को हमारे शरीर से दुर्गंध आती है। ऐसा मलिन हमारा शरीर है। परन्तु भार्इयो! उन देवताओं को भी परमात्मा तत्व की प्राप्ति का अधिकार नहीं है। देव योनि केवल सुख भोगने के लिए है। उनका शरीर अच्छा है, लोक अच्छा है भोजन अमृतमय है परन्तु कल्याण करने के लिए मानव शरीर की ही महिमा है, देवताओं के शरीरों की नहीं। इसलिए मानव शरीर को सबसे दुलर्भ कहा गया है-
नर तन सभ नहिं कवनिउ देही’ (राम चरित मानस)
मनुष्य शरीर में आकर भी जो अपना उद्धार नहीं करता, केवल खाने कमाने में ही लगा रहता है, उसकी निन्दा की गयी है।
हमें उस तत्व को प्राप्त करना है, जो मनुष्य शरीर से ही सम्भव है। उसकी प्राप्ति कैसे हो? इसके लिए एक बात मुख्य है कि हमारा ध्येय, हमारा लक्ष्य केवल परमात्मा हो। जैसे मनुष्य का लक्ष्य धन कमाने का हो तो वह बहुत अमीर हो जाता है, ऐसे ही हमारा लक्ष्य भगवान की प्राप्ति हो जाए। चाहे हम दु:ख पायें, चाहे सुख पाएं। चाहे निर्धन हो जाएं अथवा धनवान, चाहे रोगी हो अथवा निरोगी, लोग चाहे आदर करें अथवा निरादर - हमें तो उस परमात्मा को ही पाना है। जब ऐसी मनोभूमि बन जाती है तो ईश्वर प्राप्ति सुगम हो जाती है। ऐसी मनोभूमि को ही भगवदगीता व्यवसायित्मिका बुद्धि के नाम से सम्बोधित करती है।
जब तक ऐसा लक्ष्य नहीं होता, तभी तक ईश्वर प्राप्ति कठिन मालूम देती है। वास्तव में यह कठिन नहीं है। कारण कि वह सब जगह है, सब देश में है, सब काल में है, सम्पूर्ण व्यक्तियों में है, सब घटनाओं में है। संसार का कोर्इ भी परमाणु ऐसा नहीं है, जहाँ परमात्मा न हो। उसकी प्राप्ति में बाधा यही है कि उसको पाने की तीव्र इच्छा नहीं है। सांसारिक भोगों व संग्रह में फँसे हैं, अत: इनसे उपराम होकर ईश्वर प्राप्ति का उद्देश्य बनाना चाहिए।
‘‘अधिकतर मिशनों में लक्ष्मी जी का मायाजाल फैला हुआ है जो पैसा देता है उसकी वाह-वाह। जो पैसा नहीं दे सकता उसके लिए हा हा।
अर्थात धनवानों का सम्मान किया जाता है व जो पैसा नहीं दे पाते उनका तिरस्कार किया जा रहा है।’’
प्रñ-     हे भगवन जीव का आपको न जानने का मुख्य कारण क्या है?
ñ-     हे भरतंवशी (अर्जुन)! मुझे न जानने का मुख्य कारण है- राग और द्वेष के उत्पन्न होने वाला द्वन्द्धमोह । हे परंतप ! इसी द्वन्द्वमोह से ग्रसित सम्पूर्ण प्राणी संसार में जन्म मरण व सुख-दुख को प्राप्त होते रहते हैं ।
प्रñ-     क्या सभी प्राणी इसी प्रकार उलझे व फँसे रहते हैं?
ñ-     नहीं, जिन पुण्यकर्मा मनुष्यों के पाप नष्ट हो गए है, वे द्वन्द्वमोह से शीघ्र ही निवृत्त हो जाते है और दृढ़व्रती होकर मेरे भजन सुमिरन में लग जाते है ।  
        इसका अर्थ है कि परमात्मा को पाने के लिए पहले कर्मयोग द्वारा अपने पापो का शमन करना अनिवार्य है जब पाप की गठरिया हल्की हो जाएगी तभी व्यक्ति द्वन्द्वमोह से हट पाएगा । यहीं कारण है कि निष्काम कर्म योग को साधना का अनिवार्य अंग माना जाता है।
        स्वामी जी से एक बार एक युवक ने शिकायत की कि उसका ध्यान में मन नहीं लगता उसने घर के ऊपर बहुत सुन्दर ध्यान कक्ष बनाया है । स्वामी जी उस ध्यान कक्ष को देखने गए फिर चारो और फैले दीन दुखियों की झोपड़ियों को देखकर बोले कुछ वर्ष इनकी सेवा करो ताकि ध्यान में मन लगेगा ।

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येअस्य हृदि श्रिता:।
अथ मर्त्योंअमृतो भवव्य्त्र ब्रम्हा समश्रुते।।
जब हृदय से चिपकी रहने वाली सभी कामनाएँ उससे छुट जाती है तब मर्त्य अमर हो जाता है और वह यहाँ भी शाश्वत (ब्रह्म) को अधिकृत करता है।
बृहदारन्यकोपनिषद 4.4.7
ब्रहोव सन ब्रहाप्येती।।                                    ब्रह्मा………..4.4.6
वह शाश्वत (ब्रह्म हो जाता है और ब्रह्म मे ही चला जाता है।  
इच्छाओं को मिटायें-इच्छाशक्ति को जगायें
मानवी इच्छायें अनंत है, जिनकी तृप्ति हेतु समूचा जीवन भी खपा दिया जाये तो भी प्रयोजन की पूर्ति नहीं हो सकती। इच्छा-शकित जीवन की सकारात्मक उर्जा है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को ऊँचा उठाती और लक्ष्य प्राप्ति में सहायक सिद्ध होती है। वर्तमान परिस्थितियों में मनुष्य की इच्छायें तो बढ़ती चली जा रही हैं आज इच्छा को इच्छाशक्ति में परिवर्तित करने की आवश्यकता है।
जीवन की कैसी बिडम्बना है की व्यक्ति जो चाहता है वह होता नहीं जो होता है वह रहता नहीं और जो रहता है वह भाता नहीं तो फिर चाह यानि इच्छाओं का हवा महल क्यों बनाया जाय!
जीवन में इच्छा-आकांक्षाओं का होना भी जरुरी है। जीवन के दो ही विकल्प है एक पशुता और दूसरी प्रभुता! यह व्यक्ति की इच्छा-शक्ति की जाग्रति पर निर्भर करता है की किसका चुनाव करें? पशुता संस्कारित होकर के अमृतोपन प्रभुता का रूप धारण कर लेती है। यदि प्रभुता विकृत हो जाये तो पशुता में परिवर्तित होने में देर नहीं लगती। गॉड (GOD) अपने स्वभाव से निचे गिर गया तो वह डॉग (DOG) बन जाता है। व्यक्ति की चाह (इच्छा) यदि जड़ पदार्थो की प्राप्ति में लगी रहे तो जीवन भी जड़ बन जाता है और हरि से लगते ही हरा हो जाता है।
वस्तुत: मनुष्य जीवन के नाम पर अनावश्यक-अनुपयोगी संग्रह करता रहता है। इच्छाओं के मकड़जाल में फँस कर इच्छाशक्ति के भण्डागार को चुकता कर बैठता है।

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