‘विचार-क्रांति का बिगुल फूँकने पर ही
संपूर्ण क्रांति के स्वर फूट सकते हैं’।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण आंदोजनकारी छात्रों के एक समूह के साथ चर्चा कर रहे थे।
वह बता रहे थे कि समता, स्वतंत्रता एवं भ्रातृत्व की भावना के
आधार पर नए समाज का निर्माण संभव है। उन्होंने कहा कि यदि देश के किसी गाँव की
प्रत्येक समस्या का चिंतन किया जाए और उसके संपूर्ण समाधान का प्रयास हो सके, तो समझो कि इसी प्रयास का बड़ा रूप
संपूर्ण क्रांति का प्रयास बन जाएगा। मेरा मानना है कि रचना, संघर्ष, शिक्षण और संगठन की चतुर्विध प्रक्रिया से व्यापक बदलाव संभव है।
जे0 पी0 की बाते नर्इ पीढ़ी के युवाओं को
प्रेरित कर रही थी। सभी को इस समय जे0 पी0 के वृद्ध शरीर में तेजस्वी, प्रखर एवं युवा व्यक्तित्व नजर आ रहा
था। निष्ठावान-राष्ट्रवादी जयप्रकाश नारायण अपने छात्र जीवन से एक जुझारू
स्वाधीनता सेनानी थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद की पंक्तियों ने उनके अंतर्मन में
क्रांति की ज्वाला भड़का दी, जब
उन्होंने मौलाना को यह कहते सुना - ‘‘नौजवानों!
अँगरेजी शिक्षा का त्याग करो और मैदान में आकर ब्रिटिश हुकूमत की ढहती दीवारों को
धराशायी करो और ऐसे हिंदुस्तान का निर्माण करो, जो
सारे आलम में खुशबू पैदा करे।’’
कुछ ऐसे ही स्वर 5 जून, 1975 को सायंकाल पटना के गांधी मैदान में लगभग पाँच लाख लोगों की अति
उत्साही भीड़ ने भी सुने,
ये स्वर जे0 पी0 के थे। उन्होंने कहा था - ‘‘यह
क्रांति है मित्रों! और संपूर्ण क्रांति है।’’ जब
प्रदर्शनकारी लोगों पर प्रशासन ने हिंसा और आक्रामकता का सहारा लेना तय किया तब
उन्होंने कहा - ‘‘हमारा हथियार अहिंसा है। बोलो, आप वचन देते हो न कि शांत रहोगे?’’ उत्तर में पाँच लाख स्वर एक साथ उभरे, हमला चाहे जैसा होगा, हमारा हाथ नहीं उठेगा।
इसके बाद तो जे0 पी0 की आवाज सारे देश की आवाज बन गर्इ। स्वाधीनता के आंदोलनों में अनेक
बार हिस्सा लेने वाले, अनेक बार जेल जाने वाले जयप्रकाश
नारायण ने राष्ट्रिय स्वाधीनता के लिए हर कष्ट सहन किया। इस कार्य में दरबार की
भागीदारी निभार्इ, उनकी सहधर्मिणी प्रभावती देवी ने।
प्रभा के लिए महात्मा गांधी अपने सगे पिता की तरह थे। गांधी जी के लिए भी प्रभा
अपनी लाड़ली बेटी की तरह थी। तथी तो उनके इस विवाह में गांधी जी ने अभिभावक की
भूमिका निभार्इ थी। जयप्रकाश नारायण के अद्भूत एवं विलक्षण व्यक्तित्व के महात्मा
गांधी एवं पं0 नेहरू बड़े ही प्रशंसक थे। सन् 1947 में देश की आजादी के बाद उन्हें सरकार
में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्हें गृह राज्यमंत्री बनाए जाने का
प्रस्ताव था, परंतु उन्होंने स्पष्ट रूप से इनकार कर
दिया। अभी इन क्षणों में उनके समीप बैठे छात्र जे.पी. के इन गुणों से भरपूर परिचित
थे। उन सभी को पता था कि आठ वर्ष लगातार अमेरिका में रहकर पढ़ार्इ करने वाले
जयप्रकाश नारायण खालिस हिंदुस्तानी हैं। देश का हर दरद उनके दिल में महसूस होता
है।
जे0 पी0 ने अपने समीप बैठे छात्रों को कुछ संस्मरण सुनाए। इनमें से एक-दो संस्मरण
नागालैंड में विद्रोहियों को शांति मार्ग की ओर प्रेरित करने से संबंधित थे। कुछ
संस्मरण उनके और विनोबा भावे के प्रयत्नों से बीहड़ों और जंगलों में रहने वाले
डाकुओं के आत्मसपर्पण से संबंधित थे। उन्होंने बताया कि कैसे वह और विनोबा भावे
मिलकर उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश की सीमा पर उन दिनों बढ़ी हुर्इ डाकुओं की
उग्र समस्या से निबट सके। अपनी इन यादों को ताजा करते हुए उन्होंने कहा- ‘‘ये सभी सफलताएँ विचार-क्रांति का ही
छोटा रूप थीं। विचारों में परिवर्तन से ही इन सबके जीवन बदल सके।
विचार-क्रांति के सच को अपने जीवन में
क्रियान्वित करने वाले, उसे संपूर्ण क्रांति की व्यापकता देने
वाले जे0 पी0 की स्वयं परमपूज्य गुरूदेव श्री राम आचार्य मुक्त कंठ से प्रशंसा करते थे। जब वह आपातकाल
के विरोध में जनता की आवाज बने और सभी को अभय देते हुए कहा - ‘‘डरो मत! मैं अभी जिंदा हूँ।’’ तब गुरुदेव ने कहा था - ‘‘इस महान लोकनायक का साथ देने के लिए
आध्यात्मिक शक्तियाँ भी कटिबद्ध एवं संकल्पित हैं।’’ इसका परिणाम सभी ने सन् 1977
में देखा और अनुभव किया कि परिवर्तन का तूफानी चक्र कैसे परिवर्तन करता है।
बाद में जब आठ अक्टूबर, 1977 को उनका देहावसान हुआ तो अनेकों आँखों
मे आँसुओं के साथ परमपूज्य गुरुदेव की आँखों में भी आँसू थे। इस अवसर पर उन्होंने
कहा था - ‘‘मैं स्पष्ट कहता हूँ, भारत देश जयप्रकाश जी को त्याग-तपस्या
के प्रतीक और जनहित के लिए सर्वस्व निछावर करने वाले महान योद्धा तथा जनभावना को
स्वर देने वाले विचार-क्रांति के महावीर की तरह हमेशा याद रखेगा।’’ उन्हें कभी कोर्इ मोह बाँध न सका, पद-लिप्सा उन्हें स्पर्श भी न कर सकी।
वह तो बस, लोकसेवा का सूत्र थामें जीवन भर चलते रहे-जलते
रहे। यह भारत देश का सामाजिक एवं राष्ट्रिय सत्य है कि भारत के सामाजिक एवं
राजनीतिक जीवन की थाली में वह तुलसीदल की तरह सर्वाधिक पवित्र आत्मा थे। उनका संपूर्ण जीवन जैसे पुरातन शास्त्रों की
पवित्रता की सर्वाधिक सटीक और सामयिक व्याख्या थी।
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