Saturday, March 2, 2013

मैं क्या हूँ?


मेरा नाम राजेश है मेरी उम्र 44 वर्ष है मैं NIT,KKR में प्रोफेसर हूँ। परन्तु जब यह विचार करता हूँ कि यह मैं क्या है? यह मैंकैसे उत्पन्न हो रही है किसको मैसे सम्बोधित किया जा रहा है ? तो विचित्र प्रकार की उलझन पैदा हो जाती है यह ही नहीं समझ आता कि मैं क्या हूँ? हाथ, पैर, पेट, कमर यह सब मेरे हैं क्या यह मैं को सम्बोधित करते हैं नहीं। मुँह, चेहरा शीशे में देखने पर लगता है कि यह मैं हूँ। चेहरे की फोटो देखकर यह माना जाता है कि यह फलां व्यक्ति है। परन्तु और गहरार्इ में जाता हूँ तो और उलझता हूँ क्या यह आँख मैं हूँ क्या नाक मैं हूँ क्या गाल मैं हूँ? यह भी नहीं जमी। यह सब भी मैं नही हो सकते। फिर यह मैं कहाँ से आ रही है। शरीर के स्तर पर प्रश्न का हल नहीं मिल पा रहा है। मन, प्रबुद्धि के स्तर पर भी मैं का हल नहीं निकल पाया। मनुष्य अधिक जानने के लिए शास्त्रों की ओर दौड़ता है तो पता लगता है कि हमारे भीतर एक चेतन शक्ति अर्थात आत्मा है जो ही यह सब अनुभव करती है वहीं मैं है। जब तक यह आत्मा किसी स्थूल शरीर में रहती है व्यक्ति उस स्थूल शरीर को मैं माने रहता है। स्थूल शरीर के छोड़ने के उपरान्त सूक्ष्म शरीर में मैंरहती है। यदि नया शरीर धारण हो जाए तो उस शरीर को मैंमानना प्रारम्भ हो जाता है। फिर यह पुराने वाले शरीर की मैं को भूल जाती है।
बड़ा विचित्र खेल है इस मैंका। इस समय से लेकर आने वाले 25-30 वर्ष तक इस शरीर को मैंकह रहा हूँ। तत्पश्चात मृत्योपरान्त न जाने किसको मैंमानूँगा। यदि व्यक्ति थोड़ी दार्शनिक प्रवृति का है तो इस मैंको खोजने का प्रयास करेगा, यदि व्यक्ति डरपोक है तो यह सब पढ़ने सुनने में उसे भय लगेगा, यदि भावुक है तो निराश होगा व अपना ध्यान यहाँ से हटाएगा।
परन्तु डरने की बात नहीं है यह मैंकभी समाप्त न होने वाला अनादि अनन्त अति सूक्ष्म तत्व है। इसके कोर्इ नहीं मिटा सकता, अग्नि जला नहीं सकती, वायु सुखा नहीं सकती। मृत होता है तो केवल शारीर। मैं समाप्त नहीं होती। जो साधना के द्वारा सूक्ष्म शरीर का अनुभव लेते हैं उन्हें प्रतीत होने लगता है कि शरीर अलग है व यह मैंअलग है।
मैंका यह concept बुद्धि व इन्द्रियों की समझ से बाहर है। मात्र realization से ही इसको जाना जा सकता है। अत: ज्यादा मैंपर विचार करेंगें तो कहीं उलझ जाएंगे, भटक जाएंगे। परन्तु एक बात इस मैंसे बहुत स्पष्ट होती है कि मैंकभी समाप्त न होन वाला अमर, परमात्मा का अंश है। कोर्इ भी अपना अस्तित्व नहीं मिटाना चाहता यह इस आत्मा की मांग है। शक्तिशाली व आनन्दमय जीवन जीना चाहता है यह भी आत्मा की मांग है।
आत्मा की क्या माँग है इसके कैसे बुरा किया जा सकता है? आत्मा की उन्नति, इसका उत्थान कैसे सम्भव है? इस विधा को ब्रहम विद्या, आाध्यात्म विद्या कहा जाता है । परन्तु सावधान! मया नामक जंजाल से सावधान। यह ठीक से समझने जानने नहीं देता कि आत्मा का उद्धार कैसे सम्भव है। कहते हैं कि सूर्य की किरणें सात रंगों से मिलकर बनी हें परन्तु दिखती सफेद हैं। कर्इ भी कोर्इ नदी नाला पार करना हो तो वह गहरा नहीं प्रतीत होता परन्तु होता गहरा है। इसलिए सावधान मानव! सृष्टि में बहुत कुछ माया जाल फैला है। जैसे गिद्धों को बहुत दूर का दिख जाता है ऐसे ऋषियों को बहत गहरार्इ तक दिख जाता है। आओ ऋषियों के ज्ञान का लाभ उठाएं, आत्म कल्याण का पथ अपनाएं और साधानी से आगे बढ़ते हुए मानव जीवन को धन्य बनाएं।
पृथ्वी खोजी, आकाश खोजा, चांद तारे खोजे परन्तु यह नहीं खोज पाया कि यह मैंकहाँ से आ रही है? शास्त्र कहते हैं सबसे कठिन कार्य है इस मैंको भली भांति जान पाना। जो जान लेते हैं वो जीवन मुक्त हो जाते हैं। आनन्दमय हो जाते है, परा शक्ति के प्राप्त होते हैं। मैंको जानने के बाद कुछ भी जानना, पाना शेष नहीं रह जाता। बड़े बड़े वैज्ञानिकों से इस मैंका जवाब दिया नहीं बनता। बड़े-बड़े दार्शनिक इस मैंके फेर से चक्कर खा जाते हैं।

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