प्रत्येक वह विचार जो आपका उद्धार करे, वह सकारात्मक है। प्रत्येक वह विचार जो आपको पतन की खाइयों में धकेल दे, वह नकारात्मक है। प्रत्येक वह विचार जो आपके मन को शान्ति, चित्त को प्रसन्नता और आत्मा को आनंद दे, वह सकारात्मक है। प्रत्येक वह विचार जो आपके मन को बेचैन, चित्त को अप्रसन्न और आत्मा को विचलित कर दे, वह नकारात्मक है। सकारात्मक विचार आपकी आंतरिक क्षमताओं को जागृत करते हैं। नकारात्मक विचार आपकी क्षमताओं, उत्साह व ऊर्जा को समाप्त कर देते हैं। सकारात्मक विचार में समाज-कल्याण की भावना निहित होती है। नकारात्मक विचार समाज में हिंसा और वैमनष्यता को फैलाते हैं।
संसार में दो तरह के लोग होते है। एक वो, जो आत्मविश्वास से भरे होते है। वे जानते है कि वे सफल होने तथा जीतने के लिए ही पैदा हुए है। दूसरे वे, जो डर और शंकाओ से भरे होते है। उनका डर उन्हें उसी जगह पर रोके रखता है जहाँ वे है। ऐसे लोगों की संख्या भी अधिक होती है। सच्चार्इ यह है कि दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति सफल व सुखी होना चाहता है और इसके लिए सभी अपने स्तर पर प्रयास भी करते हैं, किंतु उनमें से कुछ ही अपने जीवन को सफल बना पाते है। हमारे जीवन में असफलताओं के कर्इ कारण हैं, उनमें से एक मुख्य कारण हमारा सकारात्मक या नकारात्मक दृष्टिकोण है।
अक्सर यह तो कहा जाता है कि दृष्टिकोण सकारात्मक रखो, नकारात्मक नहीं। परन्तु क्या किसी ने इस पर विचार किया कि कुछ व्यक्ति जन्मजात सकारात्मक दृष्टिकोण लिए होते है और कुछ बहुत ही प्रयास के बाद भी कुछ समय के लिए ही सकारात्मक हो पाते हैं।
ऐसा क्यों होता है जो व्यक्ति लम्बे समय तक सकारात्मक कार्यो में संलग्न रहते है, (ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता: - भगवत गीता) उनका चित्त सकारात्मकता ग्रहण कर लेता है व सकारात्मक संदेश बाहारी मन को भेजता है। परन्तु जो व्यक्ति नकारात्मक कर्मो में लिप्त है (जैसे दूसरों को नीचा दिखाना, पीड़ा पहुँचाना आदि) उनका चित्त नकारात्मक हो जाता है। कर्इ बार व्यक्ति के जीवन में कर्म फल बहुत गलत मिलते है असफलताएँ बार-बार आती है इसलिए चित्त (अवचेतन मन) नकारात्कता से भर जाता है। इन सबका समाधान एक ही है कि स्वयं को श्रेष्ठ कर्मो, उच्च उद्देश्यों में संलग्न रखा जाए। धैर्य के साथ लम्बे समय तक ऐसा करने से स्थायी रूप से सकारात्मकता व्यक्ति के अन्दर स्थिर हो जाती है।
परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम सकारात्मक बनने का प्रयास न करें। बाहर का भी महत्व है व भीतर का भी। यदि हम मात्र बाहर से सकारात्मक होने का प्रयास करेंगे व भीतर से गलत कर्मो को अपनाते रहेगें तो गोल-गोल घूमते रहेगें। हमें हर सिरे से जोर लगाना पडे़गा बाहर से भी स्वंय को सकारात्मक बनाएँ व सत्कर्मो द्वारा अंतर्मन को भी सकारात्मक बनाएँ। इसी में मनुष्य का भला है।
भस्मासुर का नाम सुना होगा, पर शायद सतायुद्ध का नहीं। सतायुद्ध भस्मासुर का ही भार्इ था। दोनों ने घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें वर मांगने को कहा। भस्मासुर ने माँग की- ‘हे देवों के देव, महादेव यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मुझे वर दीजिए कि मैं जिसके भी सिर पर हाथ रखूँ, वह भस्म हो जाए।’ यह नकारात्मक सोच की पराकाष्ठा है।
वहीं सतायुद्ध ने प्रार्थना की- ‘हे प्रभु! यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं, तो यह वर दीजिए कि मैं जिसके भी सिर पर हाथ रखूँ, वह स्वस्थ हो जाए, सुखी हो जाए, उसके दु:ख-संताप समाप्त हो जाएँ।’ यह वही प्रार्थना थी, जो हमारे ऋषियों ने की -
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पष्यन्तु मा कष्चिद् दु:ख भाग्भवेत्।।
यह सकारात्मक सोच की पराकाष्ठा है।
जब हमारे विचार विधेयात्मक यानि सकारात्मक होते हैं, तो हमारा हृदय स्नेह, प्रेम, करूणा, दया से लबालब भर जाता है। हमारे पास न तो बैर फटकता है, न ही ईर्ष्या। इसके विपरीत नकारात्मक विचारधारा होने पर स्वभाव में उथलापन, दूसरों की निंदा, उपहास का दोष आ जाता है। इसे एक उदाहरण से समझते हैं। बात उस समय की है, जब पांडव और कौरव गुरुकुल में पढ़ा करते थे। एक दिन आचार्य ने दुर्योधन और युधिष्ठिर को अपनी कुटिया में बुलाया और कहा- ‘दुर्योधन, हम चाहते हैं कि तुम पूरे नगर में से किसी एक ऐसे व्यक्ति को ढूँढ कर लाओ, जिसमें कोर्इ गुण हो और युधिष्ठिर, तुम नगर के किसी एक ऐसे व्यक्ति को खोज कर लाओ, जिसमें कोर्इ भी गुण न हो।’ आचार्य के आदेशानुसार दोनों नगर में चले गए। सुबह से शाम हो गर्इ। अब रात होने को थी। आचार्य ने एक शिष्य को भेजकर दोनों को वापिस बुलवा लिया। आचार्य ने पहले दुर्योधन से पूछा- ‘वत्स, कहो, तुम्हारा क्या अनुभव रहा? दुर्योधन ने रोष भरे स्वर में कहा- ‘हर बार की तरह इस बार भी आपने पक्षपात किया है। भ्राता युधिष्ठिर को इतना सहज कार्य दिया और मुझे इतना कठिन। मैंने तो पूरा नगर छान माजा। वहाँ तो हर व्यक्ति बुरार्इ से भरा पड़ा है। चिराग लेकर ढूँढने पर भी कोर्इ ऐसा नहीं मिला, जिसमें एक भी गुण हो । तब आचार्य ने युधिष्ठिर से कहा- 'वत्स, दुर्योधन के अनुसार तो तुम्हारा कार्य बहुत आसान था। फिर तुम खाली हाथ क्यों लौट आए’ युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर कहा- ‘क्षमा करें आचार्य! मैं अपने कार्य में असफल रहा हूँ। मुझे तो पूरे नगर में कोर्इ ऐसा नहीं मिला, जिसमें एक भी गुण न हो। जिसके भी समीप गया, उसी के भीतर गुण की चमक दिखार्इ दे गर्इ।’
यही है दृष्टि का अंतर। जब हमारी सोच सकारात्मक होती है, तो दृष्टि भी पवित्र हो जाती है। हर ओर शुभ व अच्छा ही देखती है। वहीं, नकारात्मक सोच हमारी आँखों पर काला पर्दा डाल देती है। हमें हर किसी में कमी, बुरार्इ व अवगुण दिखार्इ पड़ते हैं। इसलिए हम उनसे ईर्ष्या करते हैं। इस सीमा तक कि हम उससे अपनी ही हानि कर बैठते हैं। एक बार सेठ मृत्यु शैय्या पर था। उसने अपने बेटे को बुलाया और कहा- ‘मेरी एक अंतिम इच्छा है। मुझे वचन दो कि तुम उसे अवश्य पूरा करोगे।’
बेटा -आप अपनी इच्छा बताइए तो सही।
सेठ-जब मैं मर जाऊँ, तो मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े काट कर पड़ोसी के घर में फेंक देना।
बेटा-(हैरानी से)- भला क्यों? मैं यह पाप क्यों करूँ? एक जानवर भी अपने पिता के साथ ऐसा नहीं कर सकता।.... और फिर मैं तो इंसान हूँ।
सेठ-तुम्हें पाप नहीं लगेगा, क्योंकि तुमने तो वही किया, जो मैने कहा। पिता की अंतिम इच्छा पूरी करना हर बेटे का कर्तव्य है। तुम नहीं जानते, ऐसा करके तुम मेरी आत्मा को कितनी शान्ति पहुँचाओगे। जब पड़ोसी को मेरी हत्या करने के जुर्म में पुलिस पकड़कर ले जाएगी, तो मुझे जो शान्ति-सुकून मिलेगा, उसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते!!
ऐसा होता है, नकारात्मक सोच का प्रभाव।
No comments:
Post a Comment