जैसे पंखा चलाने के लिए, बल्ब जलाने के लिए करंट चाहिए, वैसे ही जड़ पदार्थों से बने मानव शरीर
को चलाने के लिए एक प्रकार की शक्ति चाहिए। उसका वर्णन हमारे शास्त्रों में प्राण
शक्ति के नाम से आता है। प्राण शक्ति को बढ़ाने की विद्या को प्राणायाम कहा जाता
है अर्थात प्राणों का विस्तार, अभिवर्धन।
अब से सौ-पचास वर्ष पूर्व वायुमण्डल
प्राण-शक्ति से भरपूर था। फसलों के द्वारा, शुद्ध
वायु के द्वारा पर्याप्त प्राण जीवों को प्राप्त हो जाता था। परन्तु आज के
वैज्ञानिक युग में प्राण तत्व में भारी गिरावट आयी है। रासायनिक खादों व कीटनाशक
दवाओं ने खाद्य पदार्थों के प्राण तत्व को कम कर दिया है। विद्युत उपकरणों से
पौष्टिक व प्राण तत्व में गिरावट आयी है। वाहनों के धुएं, बढ़ते औद्योगिकरण व मोबाइल के बढ़ते
प्रचलन ने वायुमण्डल के प्राण तत्व को बहुत कमजोर कर दिया है।
एक छोटी सी घटना का जिक्र करना यहाँ
उचित प्रतीत होता है। एक बार एक गाँव में सास बहू खुली रसोर्इ में रोटी पका रही
थी। अचानक दूर खड़े एक छोटे बच्चे ने गर्म दूध का गिलास अपने ऊपर गिरा लिया। दोनों
छोड़कर उसको साफ सफार्इ करने लगी। दीवार पर बैठे एक कौए ने मौका देखकर गूँथे हुए
आटे में चोंच भरी व थोड़ा सा आटा चोंच में दबाकर ले उड़ा। यह देखकर सास बहुत दुखी
हुर्इ। बहु ने सांत्वना देते हुए कहा कि माँ जी परेशान न हों यह आटा गाय को देकर
दूसरा गूँथ लेते हैं। इस पर सास बोली, ‘‘बहू
मैं परेशान इसलिए नहीं हो रही हूँ कि आटा बेकार हो गया। अपितु मैं दुखी इसलिए हो
रही हूँ कि हमारा गूँथा आटा शक्तिहीन है।’’ यह
सुनकर बहु को आश्चर्य हुआ व शक्तिहीन कैसे कहा, इसका
कारण पूछा। सास ने बताया कि जब वह उसकी (बहू की) उम्र की थी। तब एक बार एक कौए ने
गूँथे आटे में चोंच मारी परन्तु कौआ चोंच में आटा दबाकर न ले जा सका क्योंकि आटा
इतना मजबूत था कि जोर लगाने पर भी वह नहीं टूट पाया। हमारा आटा तो इतना कमजोर हो
गया है कि आराम से कौआ उसको तोड़ ले गया।
कहने का तात्पर्य है कि हर चीज
प्राणहीन होती जा रही है। खेती बाड़ी का गलत ढंग, भोजन बनाने का गलत ढंग, खाने
पीने का गलत ढंग। हमारी जिह्वा (जीभ) भोजन से प्राण तत्वों को चूसती है। परन्तु हम
जल्दी-जल्दी चबाकर जीभ को प्राणतत्व चूसने
का मौका ही नहीं देते। उदाहरण के लिए यदि किसी को दूध अथवा पानी पीना हो तो गटगट
करके पी जाते हैं। यहाँ तक कि पानी को भी धीरे-धीरे चूस-चूस कर पीना चाहिए यह भावना
करते हुए कि जल का प्राण तत्व जिह्वा के माध्यम से शरीर में अवशोषित हो रहा है। इस
प्रकार पिया हुआ पानी बहुत लाभप्रद हो जाता है।
खान-पान के तौर तरीकों को सुधारकर शरीर
में प्राण तत्व को बढ़ाया जा सकता है।
श्वास-प्रश्वास के द्वारा भी वातावरण
के प्राण तत्व को अवशोषित किया जा सकता है। आमतौर पर लोग इतने भर को ही प्राणायाम
कहते हैं। अथवा यहीं तक सीमित रहते हैं। श्वास-प्रश्वास की यह प्रक्रिया प्रात:काल
खुले वातावरण में की जाती है। क्योंकि खुले वातावरण में प्राण तत्व अधिक होता है।
मोबाइलों के बढ़ते टावर इस प्राण तत्व के दुश्मन प्रतीत होते हैं। उनसे निकलती Electromagnetic rays वातावरण को विषैला बनाती चली जा रही
हैं। अत: टावर की 200 मीटर के रेंज में रहना खतरे से खाली
नहीं है। प्राण शक्ति का तीसरा बड़ा स्रोत है- सविता देवता अर्थात सूर्य। हमारे
पूर्वज, ऋषि-मुनि सूर्योपासना के माध्यम से
वातावरण से प्राण शक्ति खींच लिया करते थे। इस प्राण शक्ति से वो सदा जीवन्त व
निरोग बने रहते थे। हनुमान जी के गुरु सूर्य थे। सूर्य साधना करते-करते हनुमान जी
सूर्य के समान तेजस्वी होते चले गए। उनका तेज देखकर लोगों को लगता जैसे सूर्य उनके
भीतर समा गया हो अथवा उन्होंने सूर्य निगल लिया हो। इसलिए कहावत पड़ गयी ‘बाल समय रवि भक्ष लियो’ परन्तु मौलिक रूप से असम्भव जान पड़ता
है कि कोर्इ छोटा बच्चा सूर्य को निगल जाए।
सूर्य के प्राण शक्ति के स्त्रोत को
कोर्इ छेड़ नहीं सकता। अधिक दोहन के कारण धरती का प्राण शक्ति स्रोत कमजोर हो गया।
औद्योगिक क्रान्ति ने वायुमण्डल का प्राण दूषित कर डाला, परन्तु सवितादेव अभी बचे हैं व सभी
प्रकार के प्रदुषण से मुक्त है। जिन्हें स्वस्थ रहना है, ताकतवर बनना है उन्हें सूर्य का ध्यान
करना होगा। किसी ने ठीक कहा है -
‘नित्य सूर्य का ध्यान करेंगे, अपनी प्रतिभा प्रखर करेंगें।’
आने वाले समय में सूर्य उपासकों की
संख्या तेजी से बढ़ेगी। शीघ्र ही पूरे विश्व का ध्यान प्राण शक्ति के इस अकूल
भण्डार सविता की ओर जाने वाला है। सविता की शक्ति से जब युग की समस्याओं का समाधान
किया जाता है तो इस विज्ञान को सावित्री कहते हैं। सविता की शक्ति का उपयोग जब
व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक उन्नति में करता है तो इसको गायत्री कहा जाता है। गायत्री, सावित्री के सर्व-प्राचीन शोध-कर्ता
ऋषि विश्वामित्र माने जाते हैं। उन्होंने इस प्रयोग के माध्यम से आसुरी शक्तियों
का विनाश किया। रामायण में इसको बला-अतिबला विद्या के नाम से पुकारा गया है। कुछ
दशकों पूर्व इस महान विज्ञान के प्रणेता श्री अरविन्द व श्री राम आचार्य (गायत्री
परिवार के संस्थापक) हुए हैं। श्री अरविन्द की लिखी “सावित्री महाकाव्य” अपने आप में एक विलक्षण कृति है। श्री
अरविन्द एक विलक्षण प्रतिभा के धनी थी। नवम्बर, 1926 से वह पाण्डिचेरी में एकान्त में रहते थे। कभी-कभी ही किसी से मिलते
थे। एक बार नेता जी सुभाष चन्द्र बोस उनसे मिलने गए। नेता जी ने अपनी क्रान्तिकारी
योजनाएं उनके समक्ष रखी व सहयोग का निवेदन किया। श्री अरविन्द बोले - इतनी साधना
वो कर चुके हैं कि देश आजाद हो जाए। उनका जवाब था- जब चाहें वो देश को आजाद करा
लेंगे। इस पर उनके शिष्यों ने कहा- देश को आजादी आपके (श्री अरविन्द) जन्मदिन पर
मिलनी चाहिए। श्री अरविन्द ने सहमति में अपना सिर हिला दिया। नेता जी यह सब समझ न
सके व एक प्रकार के पागलपन अथवा कपोल-कल्पनाएं मानकर बुरा-सा मुँह बनाकर (नेताजी
ने हुँह कहकर मुँह फेरा) वहाँ से बाहर आने लगे। श्री अरविन्द ने उन्हें रोककर कहा
कि तुम एक ऐसी टीम तैयार करो जो आजादी के बाद देश को सम्भाले। श्री अरविन्द ने कहा
कि आजादी के बाद देश का घोर नैतिक पतन वो अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर चिन्तित हैं।
आजादी के बाद राष्ट्र की बागडोर धीरे-धीरे स्वार्थी व भ्रष्ट लोगों के हाथों में
जाती उन्हें दिखार्इ दे रही है।
उस समय तो नेताजी मुँह फेरकर वहाँ से
निकल लिए परन्तु बाद में उन्हें अपनी गलती का भारी पश्चाताप हुआ। आजादी के बाद
साधना व सन्यास को अपना लक्ष्य बनाकर वो सक्रिय राजनीति से दूर हो गए।
जैसे श्री अरविन्द अपनी सावित्री-साधना
से देश के आजाद कराने में संकल्पित थे, वैसे
ही श्री राम आचार्य सूर्य विज्ञान के सिद्ध पुरुष होकर नवीन सृष्टि की रचना के लिए
प्रयासरत रहे। अपने सावित्री विज्ञान के बल पर उन्होंने नवयुग की घोषणा की।
प्राण-शक्ति अभिवर्धन पर लिखते-लिखते
हम गायत्री व सावित्री के उच्चस्तरीय प्रयोगों की ओर मुड़ गए। संक्षेप में, प्राण-शक्ति अभिवर्धन के निम्न नियम
हैं :-
1- प्रात: काल सूर्योदय से पूर्व जागरण, स्नान, भ्रमण, सूर्य प्रणाम, सूर्य ध्यान, सूर्य नमस्कार, आज्ञा-चक्र पर उगते हुए सूर्य का ध्यान
करें (दस मिनट से आधा घण्टे तक)।
2- हल्का व्यायाम, गहरा श्वास-प्रश्वास, अनुलोम विलोम।
3- मन्त्र जप (गायत्री, महामृत्युंजय अथवा सदगृरु द्वारा
दिया)।
4- दीपक जलाने से प्राणशक्ति बढ़ती है।
यज्ञ-हवन से प्राणशक्ति बढ़ती है।
5- कामुक वातावरण से दूर रहकर ब्रह्मचर्य
का पालन करें।
6- भोजन सुपाच्य, हल्का, कम पका हुआ हो।
7- निस्वार्थ सेवा, निष्काम कर्म योग प्राण शक्ति बढ़ाता
है।
8- मन को उच्च विचारों से सदा ओत-प्रोत
रखें।
9- देश-भक्ति, ईश्वर-भक्ति को जीवन में स्थान दें।
10- स्वाध्याय अर्थात श्रेष्ठ पुस्तकों के
अध्ययन की आदत डालें।
11- ईर्ष्या, द्वेष, भय, महत्वाकांक्षाओं
से बचें।
12- गौ-सेवा से प्राणशक्ति बढ़ती है।
गौशालाओं में सेवा करें।
13- निंदा-चुगली, पर दोष दर्शन में रुचि न लें। घटिया
समाचार पत्र, घटिया सीरियल व अश्लील दृश्यों से सदा
दूरी बनाने का प्रयास करें।
14- तीर्थ सेवन करें। जहाँ वातावरण में
प्राणशक्ति अधिक हो, ऐसी जगह पर समय लगाएं। जिन व्यक्तियों
के पास उच्च प्राण हों उनका संग करें। इससे व्यक्ति का प्राण स्वत: उर्ध्वगामी
होता है व विकसित होता है।
15- सबके प्रति शुभ कामना व मंगल भावना
रखें। क्षमा करना सीखें। व्यर्थ की बातो को मन में न उलझाये रखें। पुरानी फाइलें
बंद करें।
16- खुलकर हँसने का अभ्यास करें। रात को
सोने से पूर्व प्रार्थना एवं ईश्वर का धन्यवाद करो।
17- अपने को कर्ता भाव से मुक्त करें। अपने
स्थान पर ईश्वर को कर्ता मानकर चिंतामुक्त रहें।
18- जीवन बहुत छोटा है। इसे व्यर्थ की
चर्चा, चिंता व चेष्टा में अथवा अपने प्रति
हुए अनुचित व्यवहार की दुखद यादो मे खर्च न होने दे।
19- मेरा यहाँ कुछ नहीं और मुझे कुछ नहीं चाहिए -
यह
जो
सीख
लेता
है
उसको
संसार
में
कभी
भय
नहीं
रहता
और
उसे
कोर्इ
परतन्त्र
नहीं
कर
सकता।
20- क्रोध विवेक को, अहंकार मन को और लोभ इन्सानियत को खाता है। चिन्ता आयु को, रिश्वत इंसाफ को व वासना आदमी को खा जाती है।
21- हम अपने सत्य की पूजा करें -
अच्छी
बात
है,
करनी
भी
चाहिए,
परन्तु
दूसरों
के
विश्वास का भी सम्मान करे, यह भी आवश्यक है।
22- एक बार क्रोध करने पर शरीर में खून की 8
बूँदें
कम
हो
जाती
हैं, जबकि
8 बूँद रक्त के निर्माण में 5
दिन
लगते
हैं।
अत: क्रोध
न करें।
क्रोध
की
एक
ही
औषधि
है
- मौन व्रत। क्रोध मूर्खता से प्रारम्भ होकर पश्चाताप पर समाप्त होता है।
23- नित्य अन्तर्मुख, प्रसन्न, आनन्दित व ईश्वर के सनातन सपूत होकर कार्य करो -
न कि
खिन्न,
अधीर
और
उद्विग्न
होकर।
24- जीवन में सरल, सहज और सजग रहो। जीवन में व्यस्त रहो, मस्त रहो। पर अस्त-व्यस्त
न रहो।
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