Monday, April 22, 2013

ऋषि चेतना


‘‘तुम हो उनके ही कुलजात, हुए जो ऋषि मुनि विख्यात।
जिनका त्याग और तप देख, बदली स्वंय भाग्य की रेख।।”
‘‘तुम हो उनकी ही संतान, बने कि जिनसे विश्व विधान।
खोजे गूढ जिन्होंने तत्व, पाया है उज्जवल अमरत्व।।”
शास्त्रों का अनुशीलन उनका स्वभाव था, तपस्वी होना जैसे उनके अपने जीवन की परिभाषा थी। अद्भुत आभा मण्डल था उनका, जो भी उनसे मिलता सहज प्रभावित हो जाता। तपोमय जीवन के कारण उनके व्यक्तित्व में अनेकों शक्तियाँ सहज अवतरित हो गर्इ थीं। उनके छूने भर से अथवा संकल्प मात्र से असाध्य रोगी ठीक हो जाया करते थे। उनके सान्निध्य में बिना कोर्इ चर्चा किए जटिल सवाल स्वंय ही अपना समाधान पा जाते थे। कर्इ बार ऐसा हुए कि लोग उनका पास आए ही नहीं, बस, भाव भरे मन से उनको याद किया और उलझनें सुलझ गर्इ, चिंताएँ मिट गर्इ, पीड़ा स्वंय ही प्रसन्नता में बदल गर्इ, ऐसा अदभुत प्राण-प्रवाह था उनका।
कर्इ लोगों ने उन्हें देवों का दरजा दिया, कईयों ने उन्हें र्इश्वर का विशिष्ट अंश अथवा अवतार मान लिया, पर स्वंय उन्होंने अपने आप को इन सभी अंलकरणों से दूर रखा। तो स्वंय को एक साधक से अधिक कुछ भी नहीं मानते थे।
हे ऋषिवर! हमारे रहते आपको निराश होना पड़े तो फिर यह जीवन ही व्यर्थ एंव अर्थहीन है। आप अलभ्य, अलमोल एंव पूज्य है। आपके लिए शत-शत जीवन अहर्निश सेवा में लगाकर भी आपके ममत्व एंव प्रेम के प्रतिदान से उऋण नहीं हुआ जा सकता है। अत: इस जीवन को तो आप सेवा में अर्पित होने देने की कृपा करें। यह तो आप ही की कृपा है कि हमें आपका दिव्य एंव देव-दुर्लभ सानिध्य मिल सका, अन्यथा हम तो आपकी चरण रज के लायक भी नहीं है। अत: हमें अपनी सेवा से वंचित करें।

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