Monday, April 22, 2013

सोच को बनायें सकारात्मक-2 (Science of Positive Thinking)


      हमारे भीतर उत्पन्न हर विकार की जड़ में होता है, कोर्इ कोर्इ नकारात्मक विचार। यदि बुरे विचारों पर रोक लगार्इ जाए, तो वही विकारों में बदल जाते हैं। कभी क्रोध, तो कभी ईर्ष्या, कभी लोभ, तो कभी मोह! और इन नकारात्मक विचारों-विकारों- भावनाओं का प्रभाव हमारे देह पर भी नकारात्मक रूप में प्रकट होता है अर्थात् देह भी रोगग्रस्त हो जाती है। एस.पी. ग्रासमैन ने अपनी पुस्तक टेक्स्ट बुक ऑफ फिज़ियोलॉजिकल साइकोलॉजी में एक ऐसा ही उदाहरण प्रस्तुत किया है। उन्होंने विन्सेण्ट थाम्प्सन का वर्णन किया जो उदर शूल से पीड़ित थे। पर आश्चर्यजनक बात यह थी कि थाम्प्सन को दिन में ठीक 2 बजे यह दर्द उठता था। थाम्प्सन ने अनेक डॉक्टरों को दिखाया। परन्तु उपचार नहीं हो सका। अन्तत: मनोवैज्ञानिक ग्रासमैन ने उनका केस अपने हाथों में लिया। काफी खोजबीन के बाद मनोवैज्ञानिक के हाथ सूत्र लग गया। दरअसल, प्रतिदिन रैमिंजे कम्पनी के मालिक थेक्सी ठीक दो बजे थाम्प्सन के घर के बाहर से जाते थे। किसी समय में थाम्प्सन और थेक्सी अच्छे दोस्त हुआ करते थे। पर फिर किसी कारणवश दोनों में मतभेद हो गया और एक दूसरे के शत्रु बन गए। अब जब थाम्प्सन अपने भूतपूर्व मित्र थेक्सी को अपने घर के बाहर से जाता देखते, तो उनका मन नकारात्मक विचारों-भावों से भर उठता। चिकित्सकों ने जाँच करने के बाद पाया कि ठीक उसी समय थाम्प्सन के नाड़ीमंडल से एक प्रकार स्त्राव होता और यह आमाशय आंतों में विष की तरह फैल जाता, परिणामत: वे पीड़ा से कराहने लगते। अत: थाम्प्सन के रोग का कारण उनके पेट में नहीं, उनके मन में था। उनके नकारात्मक विचार उनकी पीड़ा का कारण थे।

            तब डॉ. ग्रासमैन ने थाम्प्सन के उपचार के लिए अनेक मनोवैज्ञानिक पद्धतियाँ अपनार्इं। जैसे कि जुडि सप्रेषन अर्थात् मन में जो भी गलत विचार उठ रहा है, उसे जबरदस्ती दबाने का प्रयास करें। दूसरी पद्धति थी- जुडि सेग्रिगे अर्थात् बुद्धि का प्रयोग कर निषेधात्मक और सकारात्मक विचारों को अलग-अलग करें। फिर सकारात्मक विचारों पर खुद को एकाग्र करने की कोशिश करें। तीसरी पद्धति जो अपनार्इ गर्इ, वह थी जुडि फॉरगेटफुलनेस अर्थात् दूसरों को क्षमा करने की कोशिश करें। चौथी पद्धति थी- इमेजिने अर्थात् सकारात्मक विचारों की कल्पना करें।

            परन्तु इन सभी पद्धतियों को अपनाने के बाद भी थाम्प्सन की स्थिति में कुछ स्थायी बदलाव नहीं सका। क्यों? क्यों आज की मनोवैज्ञानिक थेरेपीज़, पद्धतियाँ तकनीकें संतोषजनक परिणाम नहीं दे पा रहीं? क्यों नकारात्मक विचारों से ग्रस्त रोगियों के आँकड़े बढ़ते जा रहे हैं?

            क्योंकि आज का मनोविज्ञान केवल विचारों से विचारों को बदलना चाहता है। उसके पास कोर्इ ठोस प्रक्रिया नहीं है, जिससे गुजरकर व्यक्ति की सोच में परिवर्तन लाया जा सके। जैसे कि वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि लोहे को सोना बनाना हो, तो लोहे को सोने की परमाणु संख्या प्रदान करनी होगी। पर लोहे को सोने की परमाणु संख्या कैसे दी जाए, इसकी उनके पास कोर्इ प्रक्रिया नहीं। उनके पास केवल सिद्धान्त है, प्रयोगात्मक विधि (प्रैक्टिकल प्रोसेस) नहीं। और केवल सिद्धान्त से बदलाव नहीं आया करते। ठीक ऐसे ही मनोवैज्ञानिकों के पास भी सिद्धान्त हैं कि आप नकारात्मक मत सोचो, सकारात्मक विचारों को स्थान दो।

            कोशिश करो.... और कोशिश करते-करते इंसान की दशा ऐसी हो जाती है, जैसे सिसिफस की हो गर्इ थी। कामू एक यूनानी कथाकार हुआ है। उसने एक ग्रंथ लिखा- ‘ मिथ ऑफ सिसिफस सिसिफस को देवताओं ने सजा दी कि वह एक बड़े भारी पत्थर को पहाड़ की चोटी तक चढ़ाकर ले जाए। लेकिन वह जैसे ही पत्थर को लेकर चोटी तक पहुँचता था, वह पत्थर लुढ़क कर वापिस नीचे जाता था। सिसिफस फिर उसे लेकर ऊपर चढ़ता था, फिर वह नीचे गिरता था। इस तरह यह श्रृखला चलती रही। कामू लिखता है कि हम सब भी सिसिफस हैं। हमें भी सजा मिली है। हम बार-बार निम्न विचारों से ऊपर उठने की कोशिश करते हैं, पर जैसे ही लगता है कि हमारा मन साफ हो गया, अच्छे विचारों की चोटी पर पहुँच गया, वैसे ही हम दोबारा नीचे गिरते हैं। कोर्इ कोर्इ नकारात्मक विचार हमें गिरा देता है।

            तो क्या इसका निष्कर्ष यह निकाला जाए कि नकारात्मक विचारों को सकारात्मक में बदला ही नहीं जा सकता? नहीं! ऐसा नहीं है। मनोवैज्ञानिक विधियों की अपनी सीमाएँ हैं, पर अध्यात्म की नहीं। अध्यात्म तो वहाँ से आरम्भ होता है, जहाँ विज्ञान की सीमाएँ समाप्त हो जाती है। इसलिए विचारों का उत्थान करना मनोविज्ञान का नहीं, अध्यात्म का कार्यक्षेत्र है। मनोविशारद इरा प्रोगॉफ ने भी इस मत का समर्थन करते हुए कहा- ‘कोर्इ भी मनौवैज्ञानिक प्रणाली मानव जाति की सेवा तभी पूरी तरह कर सकती है, जब उसके आधार में अध्यात्म हो। क्योंकि आध्यात्म द्वारा ही अंत:करण तक पहुँचा जा सकता है और नकारात्मकता को पराजित किया जा सकता है। महात्मा बुद्ध का कथन है- जैसे हम अपना मुख दर्पण में देख उस पर लगे धब्बे आदि हटाते हैं, वैसे ही अंत:करण को देखने के लिए दर्पण चाहिए। अध्यात्म ज्ञान हमें यह दर्पण देता है, जिससे हम अपना अंतस् साफ-साफ देख पाते हैं। हमें पता चलता है हमारे भीतर चल रहे प्रत्येक विचार-भावना-विकार का। हम अपनी मन:स्थिति का द्रष्टा बन कर अवलोकन कर पाते हैं और फिर ध्यान-साधना द्वारा शुरू होती है, प्रक्रिया सुधार की, परिवर्तन की, परिमार्जन की!

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