विक्रमेण महातेजा हनूमान् कपिसत्त्ाम:।।
‘‘अर्थ- कपिश्रेष्ठ महातेजस्वी
हनुमान ने पराक्रम से कामरूपिणी लंका को जीता। ‘‘ कामवासना
रूपी लंका देखने में बड़ी लुभावनी स्वर्ण-कान्त, नयनाभिराम
मालूम देती है। उसे जीतना कठिन प्रतीत होता है। इस कामवासना रूपी स्वर्ण लंका में
असुर कुल आन्नदपूर्वक निवास करता है। सब असुर आंतरिक शत्रु, तब तक सुरक्षित है जब तक उनकी कामवासना रूपी लंका का दुर्ग सुरक्षित
है। इस रहस्य को समझते हुए हनुमान जी ने इस असुरपुरी का जीतना आवश्यक समझा और अपने
पराक्रम से, ब्रह्मचर्य से, शील, संयम एवं सदाचार से उस काम वासनारूपी लंका को जीता। असुरता को परास्त
करना है तो काम वासना को जीतना आवश्यक है। यह विजये ब्रह्मचर्य द्वारा ही संभव है।
हनुमान जी की भाँति हम सबको वासना रूपिणी लंका जीतने का प्रयत्न करना चाहिए।
धन्या देवा: सगन्धर्वा: सिद्धाश्य ये महर्षय:।
मम पश्यन्ति ये वीरं रामं राजीवलोचनय:।।
अर्थ- देवता, गन्धर्व
सिद्ध तथा ऋषिगण धन्य है, जो मेरे
राजीव-लोचन वीर राम को देखते है। वे लोग धन्य है जो परमात्मा को देखते है, परमात्मा सबके निकट है, सबके
भीतर है, चारों और है, उससे एक
इंच भूमि भी खाली नहीं है, फिर भी
माया ग्रस्त लोग उसे देख नहीं पाते, समझते है
कि न जाने परमात्मा मुझसे कितनी दूर है, न जाने
उसे प्राप्त करना, उसके
दर्शन करना कितना कठिन है? वे अपनी
अंधी आँखों से इश्वर को नहीं देखते और बुराईयों में डूबे रहते है। जिनके नेत्र खुल
गए है, उनको अपने भीतर और चारों ओर जर्रे-जर्रे में परमात्मा के दर्शन होते
है। इस दिव्य झाँकी से उनका अन्त:करण तृप्त हो जाता है। और सात्विक कर्म, स्वभावों की कस्तुरी जैसी महक उनके भीतर उठती रहती है। एसें
दिव्यदश्री व्यक्तियों को देव गन्धर्व, सद्धि, ऋषि की पदवी देते हुए इस श्लोक में उनकी सराहना की है और उन्हें धन्य
कहा गया है।
हितं महार्थ मृर्द हेतु-संहितं व्यतीत कालायति संप्रतिक्षमम्।
निशम्य यद्वाक्यमुपस्थितज्वर: प्रसंगवानुत्त्रमेतदब्रवी त।।
अर्थ- तीनों कालों में हितकारी, सप्रमाण, कोमल और अर्थयुक्त विभीषण के वचन सुनकर रावण को बड़ा क्रोध आया और
उसने कहा। ‘‘ इन
व्यक्तियों को इस बात का प्रयोजन नहीं रहता कि क्या उचित है क्या अनुचित? क्या कल्याणकर है क्या अकल्याणकर? उन्हें
तो अपन अंहकार, अपना
स्वार्थ सर्वोपरि प्रतीत होता है उनकी जो अपनी सनक होती है उसके अतिरिक्त और किसी
बात को वे सुनना नहीं चाहते। रावण पर विभीषण के हितकारी,सप्रमाण कोमल और अर्थयुक्त
वचनों का कुछ अच्छा प्रभाव नहीं हुआ वरन् उल्टा कुपित होकर प्रत्युत्तर देने लगा।
‘‘अन्धें के आगे रोवे अपने
नयना खोवे ‘‘ की
लोकोक्ति को इस श्लोक में नीति वचन के रूप में समझाया है। जो लोग मदोन्मत्ता हो
रहे है वे दूसरों की उचित बात को भी नहीं समझते। उनको समझाने का दूसरा रास्ता है।
धर्मात्मा राक्षसश्रेष्ठ: संप्राप्तो·यं विभीषण:।
लंकैश्वर्यमिदं श्रीमान्ध्रुवं प्राप्नोत्यकटंकम्।।
‘‘अर्थ-राक्षस श्रेष्ठ, धर्मात्मा विभीषण आ रहे है, वे ही
लंका के शत्रुहीन राज्य का उपयोग करगे। ‘‘ जो चाहे शासक परिवार का हो, वैभवयुक्त
हो, राज्य का हो, आमतौर पर
उसके विरोधी बहुत रहते है। परन्तु वे लोग इसके अपवाद रहते है, जो धर्मात्मा है, जिनका
दृष्टि कोण निष्पक्ष है, जो
उतर्दायितव नेतृत्व, शासन और
न्याय की बागडोर अपने हाथ में रखते हुए भी किसी के शत्रु नहीं बनते। विभीषण की
भाँति न्यायपूर्ण दृष्टि रखकर हम सर्वप्रिय रह सकते है।
यो वजपाताशनि संनिपातान्न चुक्षुभे नापि चचाल राजा।
स रामबाणाभिहतो भृशातश्चचाल चापं च मुमोच वीर:
अर्थ-’’जा रावण वज्रपात तथा अग्नि के प्रहार से विचलित नहीं हुआ था वह राम
के बाणों से आहत होकर बहुत दुखी हुआ और उसने बाण चलाये।’’ जो लोग बड़े सहासी और लड़ाकू और योद्धा होते है, ससारिक कठिनायों की कुछ परवाह नहीं करते। कठिन प्रहार सहन करके भी
अपना प्रराक्रम प्रदर्शित करते है। उन वीर प्रकृति के लोगों को भी राम के बाणों से, अन्तरात्मा के शाप से व्यथित होना पड़ता है। कुचली हुर्इ आत्मा जब
क्रन्दन करती है, जीवन धन
को बुरी तरह बर्बाद करने के लिए कुबुद्धि को शाप देती है तो अन्तस्तल में हाहाकार
मच जाता है। उस आत्म-ताड़ना से बड़े-बड़े पाषाण हृदय भी विचलित हो जाते है। अपने
बाहुबल से लोग कमजोरों को सताते है और उनको लुट कर, परास्त
कर अपनी विजयश्री पर अभिमान करते है, छोटे-मोटे
प्रराक्रम पर उन्हें बड़ा अभिमान रहता है। पर पाप के दण्ड स्वरूप कोई दैवी प्रहार
उन पर होता है तो उनके होश गुम हो जाते है। अहंकारीयों को याद रखना चाहिए कि उनसे
भी बलवान सत्ता
मौजूद है। कमजोर को सताया जा सकता है पर कमजोर की हाय का मुकाबला
करना कठिन है, वह
बड़े-बड़ों की एठ को सीधा कर देती है। इसलिये हमें इश्व्रयी कोष का और दैवी दण्ड
का ध्यान रखते हुए अपने आचरण को ठिक रखना चाहिये।
यस्य विक्रममासाद्य राक्षसा निधनं गता:।
तं मन्ये राघवं वीरं नारायणमपातकम्।।
अर्थ-’’जिसके पराक्रम से राक्षसों की मृत्यु हुई , उस
निष्कलमष वीर राम को धन्य है। ‘‘
उस वीर पुरूष का पराक्रम धन्य है, जो स्वयं
निष्पाप रहता है और कषाय-कल्मषों को मार भगाता है। स्वार्थ के लिए बहुत लोग
पराक्रम दिखाते है, पराक्रम
करने के लोभ से अहंकारग्रसत हो जाते है। ऐसा तो साधारण व्यक्तियों में भी देखा
जाता है, पर धन्य है वे जो अपने पराक्रम का उपयोग केवल असुरत्व विनाश के लिए
करते है और उस पराक्रम का तनिक भी दुरूपयोग न करके अपने को जरा भी पाप-पंक में
गिरने नहीं देते। पराक्रम और की यही बात श्रेष्ट है।
न ते ददृशिरे रामं दहन्तमरिवाहिनीम्।
मोहिता: परमास्त्रेण गान्धर्वेण महात्मना।।
अर्थ-’’ महात्मा
राम ने दिव्य गन्धर्वास्त्र के द्वारा राक्षसों को मोहित कर दिया था, इसी से वे सेना को नष्ट करने वाले राम को नहीं देख सकते थे।’’ अज्ञानियों की बुद्धि ऐसी भ्रम विमोहिता होती है कि उन्हें यह सुझ
नहीं पड़ता कि उनकी सेना का संहार कौन कर रहा है? उन्हें
कष्ट कोन दे रहा है? उन्हें
इसका कारण ज्ञात ही नहीं होता। समझते है कि हमारे शत्रु हमें हानि पहुँचा रहे है, पर असल में बात यह है कि अपनी असत् प्रणाली ही फलित होकर विपत्ति का
कारण बन जाती है। इश्वारयी प्रकिया के द्वारा वे पाप
ही कष्ट बन जाते है। अज्ञानी लोग कष्टों का कारण सांसारिक परिस्थितियों को समझते
है, पर वस्तुत: स्थिति यह है कि उनका पाप ही उनका सबसे बड़ा शत्रु होता
है। अदृश्य इश्वर उन पापों को ही गन्धर्व-बाण की तरह उन पर फेंकता है और उससे वे
आहत होते है।
प्रणम्य देवताभ्यश्च ब्राह्मणेभ्यश्च मैधिली।
बद्धांजलिपुटा चेदमुवाचाग्नि-समीपत:।।
अर्थ-’’ देवता और
ब्राह्मणों को प्रणाम करके सीता ने हाथ जोड़ कर अग्नि के समीप जाकर कहा।’’ सच्ची आत्मायें किसी बात को प्रकट करने से पूर्व देव और ब्राह्मणों
का श्रद्धापूर्वक ध्यान रखती है, अर्थात्
वे यह सोचती है कि इस कथन के संबंध में श्रेष्ठ लोग कहेगें? चाहे दुनियाँ भर के मुर्ख लोग किसी बात को पसन्द करें पर यदि थोड़े
से देव और ब्राह्मण अर्थात् श्रेष्ट पुरूष उसे त्याज्य ठहाराते है। तो वह कार्य
सच्ची आत्माओं के लिए त्याज्य ही होगा। दूसरे सतोगुणी अन्त:करण वाले व्यक्ति चाहे
वैभव में कितने ही बड़े क्यों न हो जाए, ब्रह्म-कर्मा
उच्च चरित्र वाले व्यक्तियों के लिए वे सदा ही झुकते है ।
सीता ने अग्नि के समीप जाकर कहा। हमें जो कुछ कहना हो तो अन्त:करण
में निवास करने वाली ज्योति के समक्ष उपस्थित होकर कहना चाहिए। छल, कपट, असत्य की
वाणी उन्हीं के मुख से निकलती है जो इश्वर से दूर रहते है। अग्नि के समीप जाकर, अन्त:ज्योति के समक्ष उपस्थित होकर यदि हम अपना मुख खोंले, वाणी से उच्चारण करें तो सदा सत्य ही निकलेगा।
(From Gayatri Mahavigyan Part II, Shri Ram)
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