कितने ही टी.वी. सीरियलों में दिखाया
जाता है कि देवता इन्द्र की सभा में सुन्दर-सुन्दर अप्सराएँ सोमरस का वितरण करती
हैं व सभी देव उसका आनन्द लेते हैं। इस सोम रस को लोग शराब बताया करते हैं। आजकल
अपनी बुरी लत को सही सिद्ध करने के लिए लोग अपनी संस्कृति को भी कलंकित करने से
नहीं चूकते।
हमारे धर्म ग्रन्थों में जिस सोमरस की
बात की गर्इ है वह कोर्इ शराब नहीं थी। वह एक प्रकार का औषधीय गुणों से भरपूर पेय
पदार्थ था। इसमें सोम लता एक मुख्य घटक होता था। जिसका वर्णन 24 प्रकार के ग्रंथों में मिलता है।
औषधि: सोम: सुनोते: पदेनमभिशुण्वन्ति।
निरुक्त शास्त्र (11-2-2)
अर्थात सोम एक औषधि है जिसको कूट पीस
कर इसका रस निकालते हैं। ये लताएं पर्वत श्रृंखलाओं में पार्इ जाती हैं। राजस्थान
के अर्बुद, उड़ीसा के महेन्द्र गिरी, विन्ध्याचल, मलय आदि अनेक पर्वतीय क्षेत्रों में
इसकी कोमल लताएं उगती हैं।
सोम को गाय के दूध में मिलाने पर ‘गवशिरम्’ दही में ‘दध्यशिरम्’ बनता है। शहद अथवा घी के साथ भी किया
जाता था।
कुछ लोगों का कथन है कि डाक्टर लोग
थोड़ा बहुत शराब सेहत के लिए लाभप्रद बताते हैं। शराब के विषय में बड़ा गहन शोध करने
वाले एक पाश्चात्य चिकित्सक हुए हैं - अलैक्जेण्डर एलस्टर। उनके अनुसार - ‘यह बात कोर्इ महत्व नहीं रखती कि शराब
कम पी जा रही है या ज्यादा;
रोज़ पी जा रही है या कभी-कभी! जहर तो
जहर ही है - बूँद भर हो या गिलास भर! और जिसको इस जहर का एक बार चस्का लग गया, उसकी प्यास बढ़ती ही जाती है। सेहत के
नाम पर थोड़ी पीने वाले आगे चलकर पियक्कड़ बन जाते हैं। किसी ने सुन्दर कहा - ‘जिसने स्वास्थ्य के लिए पहली घूँट भरी, वो मज़े के लिए दूसरी, बेशर्मी के लिए तीसरी और पागलपन के लिए
चौथी घूँट भरने को मजबूर हो गया।’
इसी बात से मुझे महान साहित्यकार
टॉलस्टाय द्वारा भी कही एक बात याद आर्इ। टॉलस्टाय भारतीय दर्शन और महात्मा गांधी
से बहुत प्रभावित थे। अपनी कहानी में वह लिखते हैं - शराब का पहला दौर लोमड़ी की
तरह मिथ्याभाषी बना देता है। दूसरा दौर भेड़िये की तरह झगड़ालू व उन्मादी बना देता
है। तीसरा दौर सूअर के समान मदहोश और अक्षम बना देता है। गंदगी और पतन की ओर ले
जाता है।’ इतना कहकर अंत में टॉलस्टाय सवाल उठाते
हैं - ‘क्या शराब इन्हीं लोमड़ियों, भेड़ियों और सुअरों के रक्त से बनी है?’ सोचो! क्या पशु बनाने वाली यह शराब
औषधि हो सकती है?
ऋग्वेद में शराब की घोर निंदा करते हुए
कहा गया-
हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न
सुरायाम्।
अर्थात सुरापान करने या नशीले पदार्थों
को पीने वाले अक्सर युद्ध,
मार-पिटार्इ या उत्पात मचाया करते हैं।
इससे बिल्कुल विपरीत था, हमारे वैद्कि ऋषियों का चमत्कारी
आविष्कार - ‘सोम-रस’! वह एक पूर्ण सात्त्विक, अत्यंत
बलवर्धक, आयुवर्धक व भोजन-विष के प्रभाव को नष्ट
करने वाली औषधि थी। ऋग्वेद (6-47-1) का
कहना है-
स्वादुष्किलायं मधुमां उतायम्, तीव्र: किलायं रसवां उतायम।
उतोन्वस्य पपिवांसमिन्द्रम, न कश्चन सहत आहवेषु।।
अर्थात सोम बड़ी स्वादिष्ट है, मधुर है, रसीली है। इसका पान करने वाला बलशाली हो जाता है। वह अपराजेय बन जाता
है।
शास्त्रों में सोमरस लौकिक अर्थ में एक
बलवर्धक पेय माना गया है। परन्तु इसका एक पारलौकिक अर्थ भी देखने को मिलता है।
साधना की ऊँची अवस्था में व्यक्ति के भीतर एक प्रकार का रस उत्पन्न होता है उसके
केवल ज्ञानीजन ही जान सकते हैं अन्य कोर्इ नहीं -
सोमं मन्यते पपिवान् यत् संविषन्त्योषधिम्।
सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति
कश्चन।। (ऋग्वेद-10-85-3)
अर्थात बहुत से लोग मानते हैं कि
मात्र औषधि रूप में जो लेते हैं वही सोम है ऐसा नहीं है। एक सोमरस हमारे भीतर भी
है जो अमृत स्वरूप परम तत्व है जिसको खाया पिया नहीं जाता केवल ज्ञानियों द्वारा
ही प्राप्त किया जा सकता है।
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