प्रश्न- गाय
के दूध्
की क्या
महिमा है?
उत्तर- गाय का दूध जितना सात्त्विक होता
है, उतना सात्त्विक दूध किसी का भी नहीं होता। हमारे देश की गायें सौम्य और सात्त्विक होती
हैं, इसलिये उनका दूध भी सात्त्विक होता
है, जिसको पीने से बुधि तीक्ष्ण होती
है और
स्वभाव सौम्य, शान्त होता है। विदेशी गायों का दूध तो ज्यादा होता है, पर उनके दूध् में उतनी सात्विकता नहीं होती तथा उनमें गुस्सा भी ज्यादा होता है। अत: उनका दूध पीने से मनुष्य का स्वभाव भी क्रूर होता है। विदेशी गायों के दूध में घी कम होता है और वे खाती भी ज्यादा हैं।
ऊँटनी का दूध भी निकलता है, पर उस दूध का दही, मक्खन होता ही नहीं। उसका दूध तामसी होने से दुर्गति में ले जानेवाला होता
है। स्मृतियों
में ऊँट, कुत्ते, गधे आदि को अस्पृश्य बताया गया है। बकरी का दूध नीरोग करने वाला एवं पचने में हल्का होता है, पर वह गाय के दूध की तरह बुधिवर्ध्क और सात्त्विक नहीं होता।
चरक ने दूध को ‘
परमं जीवनयानाम्-’ जीवनी द्रव्यों में सबसे श्रेष्ठ गाय के दूध को कहा हैं गाय के दूध में 101 विभिन्न पदार्थ होते है- एमिनो अम्ल (19), प्रोटीन्स (तीन प्रकार के) वसा अम्ल( 11
प्रकार के मक्खन), विटामिन्स( 6
प्रकार), पाचक रस( 7
प्रकार) खनिज क्षार( 25
प्रकार), फास्फोरस के यौगिक(5 प्रकार), नत्रल विशेष पदार्थ( 14
प्रकार ),
र्शकरा आदि बताए गये है। यह देखकर आज के युग में आश्चर्य होता है कि हमारे पूर्वजों ने एक ही वाक्य में क्या-क्या बता दिया है। परमं जीवनीयानाम् गाय के घी को आयुर्वेदाचार्यों ने श्रेष्ठ माना है, क्योंकि गाय का दूध ओजवर्धक है। ओज हृदय में रहता है। सभी धातुओं के परम सार को ओज कहा गया है। गाय के दूध में निम्न गुण है-
गाय के दूध में मधुर रस है, शीतवीर्य है। िस्न्ग्धता है, श्रेल्क्ष्णता एवं पिच्छिलता है। पचने में भारी है मंद है। प्रसन्न (
एकदम निर्दोष) है। इस प्रकार गाय के दूध में दस गुण होते है। गाय को दूध ओजवर्धक है। यह धातु की वृद्धि करने वाला होता है। अत: जीवनीय द्रव्यों में गाय के दूध को श्रेष्ठ माना गया है।
प्रश्न- गाय के गोबर और गोमूत्रा की
क्या महिमा
है?
उत्तर- गाय के गोबर में लक्ष्मी जी
का और
गोमूत्रा में गंगाजी का निवास माना गया है। इसलिये गाय के गोबर-गोमूत्रा भी बड़े पवित्रा हैं। गोबर से लिपे हुए घरों में प्लैग, हैजा आदि भयंकर बीमारियाँ नहीं
होतीं। इसके सिवाय युद्ध के समय गोबर से लिपे हुए मकानों पर बम का उतना असर नहीं होता, जितना सीमेंट आदि से बने हुए मकानों पर होता है।
गोबर में जहर खींचने की विशेष शक्ति होती है। काशी में कोई आदमी साँप काटने से मर गया। लोग उसकी दाह-क्रिया करने के लिये उसको गंगाजी के किनारे ले गये। वहाँ एक साधु रहता था। उसने पूछा कि इस आदमी को क्या हुआ? लोगों ने कहा कि यह साँप काटने से मरा हैं साधु ने कहा कि यह मरा नहीं है, तुम लोग गाय का गोबर ले आओ। गोबर लाया गया। साधु ने उस आदमी की नासिका को छोड़कर पूरे शरीर में नीचे-ऊपर गोबर का लेप कर दिया। आँखें मीचकर, उन पर कपड़ा रखकर उसके ऊपर भी गोबर रख दिया। आधे घंटे के बाद गोबर का फिर दूसरा लेप किया। कुछ घंटों में उस आदमी के श्वास चलने लगे और वह जी उठा! अगर किसी अंग में बिच्छू काट जाय तो जहाँ तक विष चढ़ा हुआ है, वहाँ तक गोबर लगा दिया जाय तो विष उतर जाता है। हमने सुना है कि शरीर में कोई भी रोग हो, जमीन में गहरा गड्ढा खोदकर उस में रोगी को खड़ा कर दे। लगभग आधे घंटे तक अथवा जितनी देर तक रोगी सुगमतापूर्वक सहन कर सके, उतनी देर तक वह गड्ढे में खड़ा रहे। जब तक रोग शान्त न हो जाय, तब तक प्रतिदिन यह
प्रयोग करता रहे।
छोटी बछड़ी का गोमूत्रा प्रतिदिन
तोला-दो-तोला पीने से पेट के रोग दूर होते हैं। यकृत्-पीडा में भी गोमूत्रा का सेवन बड़ा लाभदायक होता है। एक संत को दमारोग था। उन्होंने छोटी बछड़ी का गोमूत्रा प्रात: खाली पेट एक तोला प्रतिदिन लेना
शुरू किया
तो उनका
रोग बहुत
कम हो
गया। छाती
में, कलेजे में दर्द होता हो तो एक बर्तन में गोमूत्रा लेकर उसको गरम करें उस बर्तनपर एक लोहे की छलनी रखकर उस पर कपड़ा या पुरानी रुई रख दे। वह कपड़ा या रुई गरम हो जाय तो उससे छाती पर सेक करता रहे। इससे दर्द दूर हो जाता है। गोमूत्रा के सेवन करने से शरीर की खुजली मिटती है।
गोमूत्रा में पुरुषों तथा गर्भवती स्त्रियों के
गुप्त रोगों का निवारण करने की शक्ति विद्यमान है।
खुजली, दाद, एग्जिमा तथा
अन्य त्वचा-रोगों में रोगी को गोमूत्रा पीने से एवं गोबर तथा गोमूत्रा का लेप करने से शीघ्र लाभ होता है, शरीर की गर्मी ;ज्वर आदिद्ध और भारीपन में गोमूत्रा लाभप्रद
है।
यदि किसी मनुष्य को क्षय हो तो उसे गौ के उस बच्चे का मूत्रा, जो केवल दूध पर ही रहता है देने से रोग दूर होता है।
खूनी बवासीर में गोमूत्रा का
एनिमा बहुत लाभप्रद है। कुछ समय तक प्रतिदिन यह
एनिमा लेते रहने से मस्से सर्वथा सिकुड़ जाते हैं।
गोमूत्रा सौम्य और रेचक है। कब्ज हो, पेट फूल गया हो, डकारें आती हों और जी मिचलता हो तो तीन तोला स्वच्छ और ताजा गोमूत्रा छानकर आधा माशा सेंधा नमक मिलाकर पी जाना चाहिये। थोड़ी हो देर में टट्टी होकर पेट उतर जाता है और आराम मालूम होता है।
छोटे बच्चों का पेट फूलनेपर उन्हें गोमूत्रा पिलाया जाता है। उम्र के अनुसार साधरणतया एक
वर्ष के
बच्चे को एक चम्मच गोमूत्रा नमक मिलाकर पिला देना चाहिये, तुंरत पेट उतर जाता है। बालकों के डब्बे का रोग, श्वास, खाँसी तथा लीवर प्लीहादि के
अनेकों रोग गोमूत्रा के सेवन से जाते रहते है। ;डब्बा रोग में बच्चे का पेट फूल जाता है, नाभि ऊपर आ जाती है और श्वास तीव्र गति से चलने लगती है।
पेट के कृमियों के मिटाने के लिये तो गोमूत्रा से बढ़कर दूसरी औषध् है ही नहीं, चुने ;गुदा के कृमिद्ध के निकलने में गोमूत्रा में कुछ चिकनाई मिला
दी जाती
है।
बच्चे को सूखा रोग हो जाय तो गोमूत्रा में
केसर मिलाकर
कम-से-कम एक
महीने तक पिलायें, यह ओषधी दिन में
दो बार
दी जाय, आयु के अनुसार मात्रा एक ग्राम से चार ग्राम तक की
हो।
पेट की व्याधि विशेषत: यकृत् और प्लीहा बढ़ रही हो तो पाँच तोला गोमूत्रा में
नमक मिलाकर
प्रतिदिन पिलाया जाय, थोड़े ही दिनों में आराम हो जाता है।
यकृत् एवं प्लीहा रोग होने पर तथा पेट फूलने पर दर्द के स्थान पर गोमूत्रा की सेंक भी की जाती है। एक अच्छी इंट को गरम करके उस पर चिथड़ा लपेट कर गोमूत्रा डालकर उसका सेंक तथा भाप दी जा सकती है।
शरीर में खाज अध्कि आती हो तो गोमूत्रा में
नीम के पत्ते डालकर उसका लेप भी किया जा सकता है।
जीर्ण-ज्वर के रोगी को दिन में दो बार गोमूत्रा पिलाते रहने से सात-आठ दिनों में बुखार जाता रहेगा।
ऑखो में दाह, शरीर में सुस्ती हो और अरुचि हो तो गोमूत्रा गुड़ या शक्कर मिलाकर पीना चाहिये।
आध पाव गोमूत्रा कपड़े से छानकर पिलाने से दस्त हो जाता है।
शक्ति और उम्र के अनुसार नित्य सवेरे ताजा गोमूत्रा 22 या 42 दिनों तक पिलाने से कामला ;पीलिया-जॉन्डिस्द्ध रोग में निश्चय ही आराम हो जाता है।
आँख और कान की बीमारी में गोमूत्रा डाला जाता है तथा उसकी सेंक और भाप भी दी जाती है। गोमूत्रा में
रहने वाला यूरिया कृमिनाशक कार्य करता है।
गोमूत्रा शरीर के तन्तुओं के
लिये हानिकारक
नहीं है।
घावों पर यह अविषाक्त पदार्थ
के रूप
में प्रयुक्त
किया जाता
है। इसके
प्रयोग से दूसरे प्रकार की चिकित्सा में
लगने वाले
परिश्रम, खर्च और समय की बचत होती है।
इससे बीमारी के ठीक होने की प्रक्रिया में तनिक भी बाध नहीं पहुँचती है। तात्कालिक चिकित्सा के
रूप में
इसका प्रयोग
बहुत ही
अपूर्व सिद्ध होगा। यह घाव में पुराने रक्त-संक्रमण से उत्पन्न होने वाले पीब को रोकता है।
गाय के मूत्रा को गुन-गुना करके कान में डालने से कर्ण-शूल-कान का दर्द दूर होता है।
कान पकने पर गोमूत्रा को
बोतल में
भर लें, निथर जाने पर छान कर शीशी में अच्छा कार्क लगाकर रख दें, रोगी का कान साफ कर 3-5 बूँद कान में टपका दें। बंगला कहावत है-
जे खाय गोरूरचोना,
तार देह होय सोना।
अर्थात् जो गोमूत्रा पीता है, उसकी देह सोने की जैसी ;नीरोगद्ध हो जाती है।
गोमूत्रा का आन्तरिक प्रयोग आमाशय तथा यकृत्पर बड़ा लाभ करता है, उसकी मात्रा पाँच
तोलातक है। गोमूत्रा मृदु, रेचक तथा मूत्राल है।
ज्वर आदि
में इसका
प्रयोग घरेलू दवा की तरह किया जाता है। कुछ दिन का रखा हुआ गोमूत्रा धतु
के बरतनों
को साफ
करने में
काम आता
है।
कुछ दिन गोमूत्रा के सेवन से ध्मनियाँ प्रसारित होती
हैं, जिससे रक्त का दबाव स्वाभाविक होने
लगता है।
गोमूत्रा से भूख बढ़ती है, शोथ आदि कम होती है। यह पुराने वृक्कशोथ के
लिये उत्तम ओषधि हैं। गोमूत्रा-गोमय की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी थोड़ी है।
गोदुग्ध्-
विश्व में गोदुग्ध् के सदृश पौष्टिक आहार
अन्य कोई है ही
नहीं इसलिए इसे अमृत कहा गया है। बाल्यावस्था में दुग्ध् तीन साल तक बाल्य जीवन का मुख्य आधर है। मातृविहीन बालक दुग्ध्पान से जीवित रहता है। जन्म से मृत्युपर्यन्त किसी भी अवस्था में दुग्ध् निषेध नहीं है। स्वास्थ्य की दृष्टि से दुग्ध को पूर्णाहार माना गया है। शरीर-संवर्ध्न-हेतु इसमें प्रत्येक तत्त्व विद्यमान हैं। मानव की शारीरिक, मानसिक, आèयात्मिक शक्ति
बढ़ानेवाला गोदुग्ध ही
है। प्राचीन
काल में ऋषि -मुनि गोदुग्ध पीकर तृप्त होते, तपस्या करते तथा गोसेवा में रत रहते थे। सुश्रुतसंहिता में दुग्ध को सभी प्राणियों का
आहार बताया
गया है।
चरक-संहिता में गोदुग्ध् को
जीवनी-शक्तियों में सर्वश्रेष्ठ रसायन
कहा गया
है।
प्रवंर जीवनीयानां क्षीरमुक्तं रसायनम्।।
सुश्रुतने भी गोदुग्ध् को जीवनीय कहा है। ;सुश्रुतñ, अñ 52द्ध
गोदुग्ध् जीवन के लिये उपयोगी, जराव्यधिनाश्क रसायन, रोग और व्रधावस्था को नष्ट करनेवाला, क्षतक्षीण-रोगियों के लिये लाभकर, बुधिवर्धक , बलवर्ध्क, दुग्ध्वर्ध्क तथा किंचित् दस्तावर है
और क्लम
;थकावट, चक्कर आना, मद, अलक्ष्मी, श्वास, कास ;खाँसी, अध्कि प्यास लगना, भूख, पुराना ज्वर, मूत्राकृच्छ, रक्तपित्त- इन रोगों को नष्ट करता है। दुग्ध आयु स्थिर रखता है, आयु को बढ़ाता है।
गोदध्- यह उत्तम, बलकारक, पाक में स्वादिष्ट, रुचिकारक, पवित्रा, दीपन, वर्धक , पौष्टिक और
वातनाशक है। सब प्रकार के दहियों में गो दही अध्कि गुणदायक है-
उक्तं दध्रामशेषाणां मèये
गव्यं गुणध्किम्।।
;भाव प्रñ, पूर्वñ 24।20द्ध
गोतक्र-गाय का मट्ठा- यह त्रिदोश्नाश्क, पथ्यों में उत्तम, दीपन, रुचिकारक, बु(िजनक, बवासीर और उदर-विकारनाशक है।
गाय का मक्खन- यह हितकारी, वृष्य, वर्णकारक, बलकारक, अग्रिदीपक, ग्राही, वात-पित्त-रक्तविकार, क्षय, बवासीर, अर्दित और कास को नष्ट करता है। बालकों के लिये अमृत तुल्य लाभकारी है।
गोघृत- यह कान्ति और स्मृतिदायक, बलकारक, मेèय, पुष्टिकारक, वात-कपफ-नाशक, श्रमनिवारक, पित्तनाशक, हृद्य, अग्रिदीपक, पाक में मधुर, वृष्य, शरीर को स्थिर रखने वाला, हव्यतम, बहुत गुणोंवाला है और भाग्य से ही इसकी प्राप्ति होती है।
सनातन ध्र्म में गाय को माता के समान सम्मानजनक स्थान प्राप्त है। गाय सदैव कल्याणकारिणी तथा पुरुषार्थ चतुष्टयकी सिधि प्रदान करने वाली है। मानवजाति की सम्रधि गाय की समर्धि के साथ जुड़ी हुई है। गोमाता का हमारे उत्तम स्वास्थ्य से
गहरा सम्बन्ध है। गाय अधिदेविक , अधिदेहिक एवं अधिभोतिक तीनों तापोंका नाश करने में सक्षम है। इसी कारण अमृत तुल्य दूध्, दही, घी, गोमूत्रा, गोमय तथा गोरोचना -जैसी अमूल्य वस्तुएँ प्रदान करने वाली गाय को शास्त्रों में सर्वसुखप्रदा कहा गया है।
गोमूत्रा
गोमूत्रा मनुष्यजाति तथा
वनस्पति-जगत् को प्राप्त होने
वाला दुर्लभ
वरदान है। यह ध्र्मानुमोदित, प्राकृतिक, सहज प्राप्य, हानिरहित, कल्याणकारी एवं आरोग्यक्षक रसायन है। स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्यरक्षण तथा आतुर के विकार-प्रशमन-हेतु आयुर्वेद में
गोमूत्रा को दिव्या ओषधि माना गया है।
आयुवैदाचार्यो के मत से गोमूत्रा कटु-तिक्त तथा कषाय-रसयुक्त,
तीक्ष्ण, उष्ण, क्षार, लघु, अग्रिदीपक, मेध के लिये हितकर, पित्तकारक तथा कपफ और वातनाशक है। यह शूल, गुल्म, उदर रोग, अपफरा, खुजली, नेत्रारोग, मुखरोग, कुष्ठ, वात, आम, मूत्राशय के रोग, खाँसी श्वास, शोध्, कामला तथा पाण्डुर रोग
को नष्ट
करने वाला
होता है।
सभी मुत्रों में गोमूत्रा
श्रेष्ठ है। आयुर्वेद में जहाँ ‘मूत्रा’ शब्द का उल्लेख है वहाँ गोमूत्रा ही ग्राह्य है।
स्वर्ण, लौह आदि धतुओं तथा वत्सनाभ, ध्त्तूर तथा कुचला-जैसे विषद्रव्योंको गोमूत्रा से शुद्ध करने का विधन है। गोमूत्राद्वारा शुधि करण होने पर द्रव्य दोषरहित होकर
अध्कि गुणशाली तथा
शरीर के
अनुकूल हो जाता है।
आधुनिक दृष्टि से गोमूत्रा में
पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्रेशियम, क्लोराइड, यूरिया, पफास्पफेट, अमोनिया, क्रिएटिनिन आदि
विभित्रा पोषक क्षार विद्यमान रहते
हैं।
रोग-निवारण-हेतु विभित्रा विधियों द्वारा गोमूत्रा का
सेवन किया
जाता है, जिनमें पान करना, मालिश, पट्टी रखना, नस्य, एनिमा और गर्म सेक करना प्रमुख है। पीने-हेतु ताजा तथा मालिश-हेतु 2 से 5 दिन पुराना गोमूत्रा उत्तम
रहता है।
बच्चों को 5-5 ग्राम तथा बड़ों को रोगानुसार 20 से 30 ग्राम तक की मात्रा में दिन में दो बार गोमूत्रा का पान करना चाहिये। इसके सेवनकाल में मिर्च-मसाले, गरिष्ठ भोजन, तंबाकू तथा मादक पदार्थो का
त्याग करना आवश्यक है। व्यधिनाश्क गोमूत्रा का
प्रयोग निम्र रोगों में विशेष उल्लेखनीय है-
1 यकृत के रोग- जिगर का बढ़ना, यकृत् की सूजन तथा तिल्ली के रोगों में गोमूत्रा का
सेवन अमोघ ओषध हैं । पुनर्नवा के
क्वाथ में समान भाग गोमूत्रा मिलाकर पीने से यकृत् की शोथ तथा विकृति का शमन होता है। इस अवस्था में गोमूत्रा का सेक भी लाभप्रद है। गर्म गोमूत्रा में
कपड़ा भिगोकर प्रभावित स्थान पर सेक करना चाहिये।
2 विबंध्- जीर्ण विबंध या कब्ज होने पर गोमूत्रा का
पान करना
चाहिये। प्रात: सायं 3-3 ग्राम हरड़ के चूर्ण के साथ इसका सेवन करने से पुराना कब्ज नष्ट हो जाता है।
3 बवासीर- अर्श अत्यन्त कष्टदायक तथा
कृच्छ्साèय
रोग है।
गोमूत्रा में कलमीशोरा 2.2 ग्राम मिलाकर पीने से बवासीर में बहुत लाभ होता है। गर्म गोमूत्रा का
स्थानीय सेक भी पफायदा पहुँचाता है।
4 जलोदर- पेट में पानी भर जाने पर गोमूत्रा का
सेवन हितकारी
है। 50-50 ग्राम गोमूत्रा में दो-दो ग्राम यवक्षार मिलाकर पीते रहने से कुछ सप्ताहों में पेट का पानी कम हो जाता है। जलोदर के रोगी को गोदुग्ध का
ही पान
करवाना चाहिये।
5 उदावर्त- उदर में वायु अध्कि बनने से यह विकार उत्पन्न होता
है। प्रात: काल आध कप गोमूत्रा में काला नमक तथा नीबू का रस मिलाकर पीने से गैस रोग से कुछ दिनों में ही छुटकारा मिल जाता है। इस व्याध में गोमूत्रा
को पकाकर
प्राप्त किया गया क्षार भी गुणकारी है।
भोजन के प्रथम ग्रास में आध चम्मच गोमूत्रा-क्षार तथा एक चम्मच गोघृत को मिलाकर भक्षण करने से वायु नहीं बनती।
6 मोटापा- यह शरीर के लिये अति कष्टदायक तथा बहुत से रोगों को आमंत्रित करने वाला विकार है। स्थूलता से
मुक्ति पाने-हेतु आध गिलास ताजा पानी में चार चम्मच गोमूत्रा, दो चम्मच शहद तथा एक चम्मच नीबू का रस मिलाकर नित्य पीना चाहिये। इससे
शरीर की
अतिरिक्त चर्बी समाप्त होकर देह-सौन्दर्य बना रहता है।
7 चर्मरोग- खाज, खुजली, कुष्ठ आदि विभित्रा चर्मरोगों
के निवारण
हेतु गोमूत्रा
रामबाण ओषध है। नीम-गिलोय के क्वाथ के साथ दोनों समय गोमूत्रा का
सेवन करने
से रक्तदोष
-जन्य चर्मरोग नष्ट
होते हैं।
जीरे को
महीन पीसकर
गोमूत्रा से संयुक्त कर लेप करने या गोमूत्रा की
मालिश करने से चमड़ी सुवर्ण तथा रोगरहित हो जाती है।
8 पुराना जुकाम- विजातीय तत्त्वों
के प्रति
असहिष्णुता से बार-बार जुकाम होता रहता है। नासारन्ध्रों में सूजन स्थायी हो जाने से पीनस बन जाता है। इस अवस्था में गोमूत्रा का मुखद्वारा सेवन तथा नस्य लेने से रोग मुक्ति हो जाती है। फूली हुई पिफटकरी चौथाइ
चम्मच चूर्ण आध कप गोमूत्रा में मिलाकर पीने से जुकाम ठीक हो जाता है। यह प्रयोग श्वास रोग को नष्ट करने में समर्थ है।
9 शोथ- शरीर की धतुपात-क्रिया में विषमता होने से शोथ उत्पन्न होता
है। पुनर्नवाष्टक क्वाथ के साथ गोमूत्रा का
सेवन शोथ
को दूर
करता है।
इस रोग
में घी
तथा नमक
का प्रयोग
नहीं करना
चाहिये। शोथ पर गोमूत्रा का
मर्दन भी लाभकारी सिद्ध हुआ है।
10 उदर में कृमि- इस रोग के होने पर आध चम्मच अजवायन के चूर्ण के साथ चार चम्मच गोमूत्रा का
एक सप्ताह
तक सेवन
करना चाहिये।
बच्चों को इसकी मात्रा पर्याप्त है।
11 संधिवात -
जोड़ों का नया तथा पुराना दर्द बहुत कष्टकारक होता
है। महाराÏादि क्वाथ के साथ गोमूत्रा मिलाकर
पीने से
यह रोग
नष्ट हो
जाता है।
सर्दियों में सोंठ के 1-1 ग्राम चूर्ण से भी इसका सेवन किया जा सकता है। दर्द के स्थान पर गर्म गोमूत्रा का सेक भी करना चाहिये।
13 कफ-वर्धि -
सीमा से
अध्कि बढ़े हुए कफ का नाश करने-हेतु गोमूत्रा प्रभावशाली ओषधि हैं। इसका सेवन करने से विभित्रा कफज-विकार यथा-तन्द्रा,
आलस्य, शरीर-गौरव,
मुख का
मीठा प्रतीत
होना, मुख्दाव, अजीर्ण तथा गले में कफ का लेप रहना आदि नष्ट होते हैं।
14 नासूर- इसे नाड़ीव्रण भी कहते हैं। इस रोग की जड़ गहरी होती है। तथा शल्यक्रिया करनी पड़ती है। गोमूत्रा का सेवन इस व्याध् को समूल नाश करने की क्षमता रखता है। प्रात: सायं 4-4 चम्मच गोमूत्रा के
पीने तथा
प्रभावित स्थलपर गोमूत्रा की पट्टी रखने से एक-दो
माह में
रोग-मुक्ति हो जाती है।
15 कोलस्टेरोल का बढ़ना- कोलस्टेरोल एक
वसामय द्रव्य है, जिसकी रक्त में सामान्य से
अध्कि मात्रा होने
पर विभित्रा
विकारों की उत्पत्ति होती है। गोमूत्रा का
2-2 चम्मच की मात्रा में सुबह-शाम सेवन करने से बढ़ा हुआ कोलस्टेरोल कम हो जाता है।
इस प्रकार गोमूत्रा का सेवन बहुत-सी व्याधियो का प्रशमन करता है। स्वस्थ व्यक्ति का स्वास्थ्य-रक्षण करने तथा उसे रोगों से बचाने हेतु-भी
इसका सेवन
किया जाता
है। राम-वनवास के समय भरत 14 वर्ष तक इसी कारण स्वस्थ रहकर आèयात्मिक उत्राति करते
रहे, क्योंकि वे
अत्रा के साथ गोमूत्रा का
सेवन करते
थे-
गोमूत्रायावकं श्रुत्वा भ्रातरं वल्कलाम्बरम्।।
;श्रीम(ाñ 1।10।34द्ध
गोबर
भारतीय संस्कृति में
पवित्राकरण -हेतु विभित्रा अवसरों पर गोबर की उपयोगिता प्रतिपादित की गयी है। सिर से पाँव तक गोबर लगाकर स्नान करते समय इस मन्त्रा के
बोलने का विधन है-
अग्रमग्रं चरन्तीनामोषधधिना वने वने।
तासामृषभपत्रीनां पवित्रां कायशोध्नम्।।
तन्मे रोगांश्च शोकांश्च नुद गोमय सर्वदा।
गोबर पोषक, शोध्क, दुर्गन्ध्नाशक, सारक, शोषक, बलवर्ध्क तथा
कान्तिदायक है। अमरीकी डॉñ मैकपफर्सन के अनुसार गोबर के समान सुलभ कीटाणुनाशक द्रव्य
दूसरा नहीं है। रूसी वैज्ञानिकों के अनुसार आणविक विकिरण का प्रतिकार करने में गोबर से पुती दीवारें पूर्ण सक्ष्म हैं। भोजन का आवश्यक तत्त्व विटामिन बी-12 शाकाहारी भोजन
में नहीं
के बराबर
होता है।
गाय की
बड़ी आँत
में इसकी
उत्पत्ति प्रचुर मात्रा में होती है पर वहाँ इसका आचूषण नहीं हो पाता, अत: यह विटामिन गोबर
के साथ
बाहर निकल
जाता है।
प्राचीन ऋषि मुनि गोबर के सेवन से पर्याप्त विटामिन बी-12 प्राप्तकर स्वास्थ्य तथा
दीर्घायु प्राप्त करते
थे।
गोबर के मुखद्वारा सेवन तथा लेपन से निम्र व्यधियाँ नष्ट होती हैं-
1 हैजा- कीटाणु-विशेष के द्वारा यह रोग जनपदोद्èवंस के रूप में फैलता है। ( पानी में गोबर घोलकर पीने से इस रोग से बचाव होता है। मद्रास के डॉñ किंगने गोबर की, हैजे की कीटाणुओं को मारने की शक्ति देखकर दूषित जल को गोबर मिलाकर ( करने की सलाह दी है।
2 मलेरिया- गोबर का सेवन करने से शरीर में प्रविष्ट हुए मलेरिया के कीटाणुओं का नाश हो जाता है। इटली के वैज्ञानिक जीñ ईñ बिर्गेडने सि( किया है कि गोबर से मलेरिया के
कीटाणु मरते हैं।
3 खुजली- खाज, खुजली तथा दाद का निवारण करने-हेतु गोबर का प्रयोग भारत में आदिकाल से किया जा रहा है। जल में घोलकर गोबर पीने तथा गोबर को प्रभावित भाग पर मर्दन कर गर्म पानी से स्नान करने से बहुत चर्मरोग नष्ट हो जाते हैं।
;4द्ध सर्पदंश - विषध्र साँप, बिच्छू या अन्य जीव के काटने पर रोगी को गोबर पिलाने तथा शरीर पर गोबर का लेप करने से विष नष्ट हो जाता है। अति विषाक्ता की अवस्था में गोबर का सेवन मस्तिष्क तथा
हृदय को
सुरक्षित रखता है।
;6द्ध दन्त रोग- गोबर के उपले को जलाकर पानी डालकर ठंडा करें। तदनन्तर उसे सुखाकर बारीक पीसकर शीशी में रखें। इस गोबर की राख का मंजन करने पर पायरिया, मसूड़ों से खून गिरना, दन्तकृमि तथा
दाँतों के अन्य रोगों का भी क्षय होता है।
आयुर्वेदीय ग्रन्थों में
वर्णित प×चगव्य-घृतका चिकित्सा की
दृष्टि से बहुत महत्त्च है।
इसके निर्माण
में ताजा
गोबर का
रस तथा
गाय का
ही मूत्रा, दूध्, दही और घी प्रयुक्त होता है। प×चगव्य-घृत के सेवन से उन्माद, अपस्मार, शोथ, उदररोग, बवासीर, भगंदर, कामला, विषमज्वर तथा गुल्म का निवारण होता है। सर्पदंश के
विष को
नष्ट करने
हेतु यह
उत्तम औषध् है। चिन्ता, विषाद आदि मनोविकारों को
दूर कर
प×चगव्य घृत Ïायुतन्त्रा को
परिपुष्ट बनाता है।
आयुर्वेद में अनेक रोगों पर गोमूत्रा और
गोबर के
प्रयोग का उल्लेख है। ध्र्मग्रन्थों में गाय को कामध्ेनु कहा गया है तथा उसकी पाँचो चीजें- दूध्, दही, घृत, मूत्रा और गोबर को बहुत पवित्रा और गुणकारी बताया गया है।
गोमूत्रा सर्वरोग-नाशक होने के कारण इसके सेवन-काल में शरीर का रोग ढीला होकर, आँतों ;मल-मार्गोद्ध से निकलने लगता है। इसलिये आवश्यक परहेज के साथ चिकित्सा चलाने पर किसी एक रोग का नहीं, बल्कि सारे शरीर का इलाज हो जाता है। इसकी विध्
िअत्यन्त
सरल एवं
शीघ्र पहुँचाने वाली
है।
आयुर्वेद के प्राचीन आचार्यो ने
गोमूत्रा और गोबर का उपयोग औषध् िके रूप
में किया
था और
इसे बहुत
लाभदायक पाया था। शरीर की रक्षा के लिये आवश्यक क्षार-लवणादिकी कमी से होने वाले जितने भी रोग हैं गोमूत्रा के सेवन से दूर हो जाते हैं।
सभी प्रकार के मूत्राों में
अध्कि गुणयुक्त माना
गया है।
गोमूत्रा के प्रयोग से सूजन शीघ्र ही नष्ट होती है। कुष्ठ-निवारण के लिये गोमूत्रा परम
औषध् है।
गोमूत्रा पीने पर उदर के सभी रोग नष्ट होते हैं। यकृत् और प्ली हा के बढ़ने पर गोमूत्रा पीने
और सेंकने
से लाभ
होता है।
ओकोदशलिका ;Ïान-गृहद्ध में चालनी के नीचे बालक को बैठाकर चालनी के छिद्रों से गोमूत्रा डालकर तथा मिट्टी और राखद्वारा रगड़कर
Ïान कराने
से बाल
के चर्मरोग
आदि नष्ट
हो जाते
हैं। गोमूत्रा
के साथ
पुराना गुड़ और हल्दी-चूर्ण पीने से श्लीपद् ;हाथी-पाँवद्ध, दाद और कृष्ठ आदि नष्ट होते हैं। एक मासतक गोमूत्रा के साथ एरंड-तेल पीने पर सिन्ध्-पीड़ा और वातव्याध्
िनष्ट
होती है।
गाय के मूत्रा में कारबोलिक एसिड होने से उसकी स्वच्छता और
पवित्राता बढ़ जाती है। वैज्ञानिक रीति से गोमूत्रा में
पफॉसपफेट, पोटाश, लवण, नाइट्रोजन, यूरिया, यूरिक-एसिड होते हैं, जिन महीनों में गाय दूध् देती है, उसके मूत्रा में लेक्टोज विद्यमान रहता
है, जो हृदय और मस्तिष्क के रोगों में बहुत लाभदायक होता
है। आठ
मास की
गर्भवती गाय के मूत्रा में पाचक रस ;हार्मोन्सद्ध अध्कि होते हैं।
गाय का दूध् 2 तोला, गाय का मूत्रा 5 तोला, गाय का दही सवा तोला, गाय का घी 10 माशा, गाय के गोबर का रस ढार्इ ताला और शहद 5 माशा- इन सबको काँच या मिट्टी के बरतन में डालकर एक-रस
कर लें।
Ïान करके
सूर्योदय के समय सूर्य की ओर मुँह करके इसे पीना चाहिये। दो-तीन महीने तक यह क्रम चलाया जा सकता हैं इससे अनेकों रोग नष्ट होते हैं।
अमेरिका के डॉñ क्रापफोड हेमिल्टन
तथा मेकिन्तोशने बहुत पहिले यह सि( कर दिया था कि गोमूत्रा के प्रयोग से हृदय-रोग दूर होता है और मूत्रा खुलकर आता है।
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