आसक्ति से मुक्ति-निवृति की बात ‘‘सग्ंड़ त्यक्त्वा’’ के माध्यम से बार-बार गीता में आर्इ है। यह दसवें एवं ग्यारहवें श्रलोक में लगातार आर्इ है। अहंकार और अहंकेंद्रित कामनाएँ दोनों ही मिलकर आसक्ति को परिभाषित करती है। इस भीतर बैठे दानव से जूझकर उससे मुक्ति पा लेना दिव्यकर्मी का एकी बहुत महत्वपूर्ण कर्म होता है। इसके लिए वह अलग से कोर्इ उपासना या कर्म नहीं करता। वह यह कर्म सहज रूप में करता हुआ अपनी वर्तमान वासनाओं का क्षय कर लेता है। संसार में संव्याप्त परमात्मसत्ता की सेवा करते-करते वह मन, बुद्धि, इन्द्रियों को शांत व स्थिर कर लेता है और उस भावावस्था में पहुँच जाता है, जहाँ वह ध्यानस्थ हो जाता है, उसके हृदय की शुद्धि हो जाती है एवं इस शुद्ध अतं:करण के साथ उसे अनंत शांति की उपलब्धि होती है। हृदयशुद्धि सबसे बड़ी उपलब्धि है, जो निष्काम कर्म करते-करते एक दिव्यकर्मी लोकसेवी को प्राप्त होती है।
तिलक का जीवन
ऐसे कर्मयोगी जो आसक्ति का त्यागकर जनहितार्थाय अपने कर्म करते रहते है, जनसामान्य को अपने आचरण से शिक्षण भी देते है एवं बड़ा आदर्श जीवन जीते है। लोकमान्य तिलक ‘केसरी’ और ‘‘मराठा’’ समाचारपत्रों को संपादन करते थे। दोनों समाचारपत्रों की सारा राष्ट्र प्रतीक्षा करता था, क्योंकि उनमें जन-जन के लिए संदेश छिपा होता था। आजादी के आदोंलन को आगे बढ़ाने में इन दोनों ही समाचारपत्रों की बड़ी भूमिका थी। और दिन की तरह वे अपने समाचारपत्र का संपादन कर उसे अंतिम रूप दे रहे थे कि खबर आर्इ- आपके बेटे की मृत्यु हो गर्इ है, पत्नी परेशान है, तुरंत चले आएँ। आसक्ति से पूर्णत: मुक्त तिलक ने संदेशवाहक से कहा, ‘‘
बेटा, हमारे बेटे का मरना हमारा व्यक्तिगत दु:ख है, किंतु ‘केसरी’ को इंतजार तो सारे देश को है। वह हमारा लोककर्म है। तुम शवयात्रा की व्यवस्था करों, हम संपादन करके अभी आते है। यदि यह कार्य रूक गया तो अखबार निकल नही पाएगा एवं लाखों व्यक्ति निराश होंगे। इन व्यक्तिय की उम्मीदों को हमारे चिंतन ने जिंदा रखा है, इसलिए हम इसे छोड़ नहीं सकते। ‘‘
संपादन में तिलक ऐसे लीन हुए कि समय अधिक हो गया। जब तक वे पहुँचे, बेटे को अग्नि दी जा चुकी थी। मरे हुए बेटे को वे देख तक नहीं पाए। ऐसे आदमी को कोर्इ निष्ठुर भी कह सकते है, परंतु अपनी व्यक्तिगत वदेना सहकर भी जो लोक-शिक्षण हेतु कर्म में रत रहे, वही सच्चा कर्मयोगी है। यहाँ ऐसे ही कर्मयोगी की ओर संकेत किया गया है, जो अपनी वेदना को व्यक्तिगत न मान राष्ट्रधर्म में निरत रहा। ग्यारहवाँ श्रलोक जिस कर्मयोगी की ओर संकेत करता है, उसका सर्वोच्च आदर्श बालगंगाधर तिलक है।
परमपूज्य गुरूदेव श्री राम जी
परमपूज्य गुरूदेव की मातुश्री का देहांत हो गया। 1971 के प्रारंभिक महीनों का प्रसंग था। 3-4 माह में ही उन्हें अपने घोषित प्रवास पर हिमालय चले जाना था। वे स्वयं बिलासपुर में दौरे पर थे। उन दिनों उनके बड़े सघन दौरे राष्ट्र के कोने-कोने में चल रहे थें टेलीफोन करने की कोशिश की गर्इ, तार गया एवं तब तक के लिए एक वरिष्ठ प्रतिनिधि को केंद्र से भेजा गया, ताकि वे तुरंत लौट आएँ। पूज्यवर की माता को सभी प्यार से ‘तार्इ’ कहते थे। उनने कहो कि जब हम पहुँचेंगे- आएँगें, तब तक हमारे लाखों कार्यकर्ता कार्यक्रम न हो पाने के कारण प्रतीक्षा में रहेगें, निराश हो जाएँगें। अग्नि उनके आने की प्रतीक्षा के बाद प्रज्वलित कर दी गर्इ। बाकी लोगों ने पारिवारिक जनों ने यह काम पूरा किया। गुरूदेव अपना दौरा पूरा कर दस-बारह दिन बाद लौटे। आकर फिर शेष काम पूरा किया। वंदनीया
माताजी
ने अपने अंदर की वेदना उन तक पहुँचाने का प्रयास किया कि लोक-व्यवहार की दृष्टि से उनको आ जाना चाहिए था। गुरूवर का कहना था कि लोक-मंगल के लिए, लोक-शिक्षण के लिए लोकसेवी जीता है। हमारे न आने से कोर्इ फर्क भी नहीं पड़ा व क्षेत्र के कार्यकर्ताओ को निराशा भी नहीं हुर्इ। कोर्इ इसे निष्ठुरता कह सकता है, माँ के प्रति असम्मान भी कह सकता है, परंतु यह दिव्यकर्मी, लोकसेवी के कर्मयोग की पराकाष्ठा है, जिसे
ग्यारहवें
श्रलोक में योगेश्वर ने ‘‘
सग़ं त्यक्त्वा धनन्जय ‘‘
कहकर परिभाषित किया है। ऐसे व्यक्ति स्थितप्रज्ञ स्तर के महामानव होते है एवंज ल में पड़े कमल के पत्त्ो के समान निर्लिप्त जीवन जीते है।
योगीराज श्री अरविंद
श्री अरविंद सात सौ पचास रूपये की नौकरी छोड़कर मात्र पचहत्तर रूपये मासिक में नेशलन कॉलेज के प्राचार्य बने। उस जमाने का बड़ौदा महाराज के सचिव स्तर पर सात सौ पचास रूपये का वेतन आज के हिसाब से एक-ड़ेढ लाख रूपये प्रतिमाह बनता है, किंतु उनने लोकहित के लिए कम वेतन में नेशनल कॉलेज में प्रशिक्षण देना अनिवार्य माना। इसके साथ-2 ‘
वंदेमातरम् ‘
का संपादन भी करते थे। उन्ही दिनों उनकी शादी हुर्इ थी। शादी के बाद पत्नी की कुशलक्षेम पूछकर वे अपने कक्ष में आकर लिखने बैठ गए। कम-से-कम
उस रात तो वे अपनी पत्नी
से
साथ बैठकर बिताते, व्यावहारिक तो यही था। घोष बाबू की पत्नी उनकी देख-रेख करती थी, क्योंकी उन्हें स्वंय की अधिक सुध तो रहती नहीं। वे मकान मालकिन भी थी, आयु में बड़ी भी। उनने दो मालाएँ बनार्इं एवं कहा कि आप अपनी कलम हमें दीजिए, आज की रात चुपचाप जाइए व पत्नी के पास रहिए। दो मालाएँ हमने आपके लिए बनार्इ है, एक माला स्वयं पहन लीजिए, एक माला अपनी पत्नी को पहनाइए। आप इतने संकोची है कि अपनी पत्नी से भी माला पहनेंगे नहीं। रात भर बैठकर उनसे बात कीजिए। फिर कल आकर जो लिखना है, वह कार्य की जिएगा।
श्री अरविंद अपनी पत्नी मृणालिनी देवी के पास चले गए। रात्रि ढार्इ बजे घोष बाबू की पत्नी की नींद खुली ,
तो उनने देखा कि श्री अरविंद के कक्ष की बत्ती जल रही है और वे अंदर बैठे यथावत् लिख रहे है। श्रीमती घोष बाहर ताला लगाकर भी आर्इ थी, किंतु ये तो संभवत: गए ही नहीं। उनने पुछा तो श्री अरविंद बोले,’’ हमने आपकी सारी बातें मान ली, पत्नी को माला पहनार्इ, उससे बातें कीं। जब सारी बातें समाप्त हो गर्इ, तो वह भी चुप, हम भी चुप। हमने
उनसे
पूछा कि हम संपादन कर लें, तो वह स्वीकृति देकर सो गर्इ। हम लौट आए। देखा बाहर ताला लगा है। क्रांतिकारी-उग्रवादी होने के नाते हमें छलाँग लगाना तो आता है। हम अंदर आ गए देखा तो आपने हमारे कमरे में ताला लगा रखा है। हमने खिड़की देखी, आधी खुली थी। एक धक्का मारा तो वह भी खुल गर्इ। बिना आपकी नींद खराब किए हम अंदर आ गए व अपना काम करने लगे। आपकी बात भी मान ली एवं आपको जगाया भी नहीं। सारा देश ‘वंदेमातरम्’ की प्रतीक्षा कर रहा है। यदि हम न लिखते, तो कल ‘वंदेमावरम्’ प्रकाशित नहीं होगा। हमारी पत्नी तो एक दिन इंतजार भी कर लेगी। ‘‘यह घटना श्री नीरोदवरण (
जो आज भी श्री अरविंद आश्रम में है।) के द्वारा’ मृणालिनी देवी’ नाम से लिखी पुस्तक में उद्धृत है। व्यक्तिगत कार्य कितना ही बड़ा क्यों न हो, स्वंय का विवाह या उसकी प्रथम रात्रि ही क्यों न हो, वह एक तरफ एवं देशहित एक तरफ। यह कर्मयोगी की राग से, आसक्ति से निवृित्त्ा है एवं लोक-शिक्षण हेतु कर्म के प्रति समर्पण की पराकाष्ठा है। परमपूज्य गुरूदेव अक्सर चर्चा में तिलक एवं श्री अरविंद के इन प्रसंगों को उद्धृत करके कहते थे कि आसक्ति से इस तरह की निवृित्त्ा किए बिना उच्चस्तरीय लोकसेवी बनना संभव नहीं है।
महर्षि रमण एवं पूज्यवर
अष्टदल कमल-षट्चक्रों
एवं नवद्वारों वाली यह देह परमात्मा की शक्तियों के प्रवाहित होते रहने का एक माध्यम बन जाती है। हम ऐसे में न कुछ करते-न कराते हुए भी सदैव ध्यानस्थ बने रहते हैं रमण महर्षि इसका एक आदर्श उदाहरण हैै। तिरूवनमलार्इ की अपनी तप:स्थली में सारा जीवन बिताने वाले तपस्वी रमण उन गिने-चुने योगियों में से है, जिनके तप ने सूक्ष्म जगत को प्रचंड झंझावातों में अनुप्रणित कर भारत की आजादी का वातावरण बनाया। उनके ब्रह्मतेज ने सारे हिंदुस्तान ही नहीं, विश्वभर को प्रभावित किया। कहीं नहीं गए, कोर्इ प्रवचन नहीं किया, कोर्इ विश्वयात्रा नहीं की, पर बड़े-2 वैज्ञानिक उनके समक्ष आते चले गए। हाइजेनबर्ग जैसे वैज्ञानिक और कार्लजुंग जैसे मनोवैज्ञानिक उनके पास आए। मौन उनके तप में सहभागी बन वे पश्चिम के लिए ऐसे महत्त्वपूर्ण सूत्र लेकर गए, जिनके आधार पर आज के दर्शन व मनोविज्ञान की नींव पड़ी। सरदार पटेल को प्रेरणा मिली एवं बाबू राजेन्द्ररप्रसाद जी को उनने भेजा रमण महर्षि के पास, यह जानने के लिए कि महर्षि स्वतंत्रता संग्राम हेत क्या कर रहे है? अपनी मितभाषा द्वारा उनने बताया कि तुम अपना काम करो, हम अपना काम कर रहे है। हम अपने आप में अपनी नवद्वारों वाली नगरी में बैठे वह सब काम कर रहे है, जो तप:पूत वातावरण बनाने हेतु जरूरी है। तपश्चर्या में, मौन में बड़ी शक्ति है, तुम उस कर्मयोग में लगे रहो, हम अपना कर्म करते रहेगें(जो दीखने में प्राय: अकर्म ही होता है)। ब्रह्मतेज की प्रभा से दूर-2 तक का वातावरण प्रभावित होता है। परमपूज्य गुरूदेव की सूक्ष्मीकरण साधना भी इसी स्तर की थी। उनके एक से डेढ़ वर्ष के चार हिमालय प्रवास जिन घड़ियों में हुए,
वे
संकट भरी थी, पर उनके सोदेश्य तप एवं नवद्वारों वाली उनकी
देह
परमात्मा की अनंत शक्तियों से झरने का माध्यम बन गर्इ। प्रतिकूलताएँ अनुकूलताओं में बदलती चली गर्इ।
ऐसे संत जहाँ कहीं भी होते है, उनके उपर्युक्त श्रलोक में वर्णित स्वभाव के अनुसार, स्ंवय के कर्त्त्ााभाव के त्याग के कारण उनसे सर्वोत्त्म कार्य स्वत: फूट पड़ते है। चाहे उनका नाम विवेकानंद हो, दयानंद हो, श्री अरविंद हो, गाँधी हो या विनोबा हो। यही नहीं, आध्यात्मिक के साथ-2 वैज्ञानिक, राजनीतिक, आर्थिक क्षेत्र में भी सफलताँए हस्तगत होने लगती है। ढेरों साहसिक समाज-सुधार के कार्य होने लगते है। कहीं ज्योतिबा फुले जाग उठते है, तो कहीं महर्षि कर्वे एवं बाबा साहब आम्टे। इस सफलता का आधार है, इन देवालयरूपी देहधारी संतों द्वारा स्वंय को ‘
संन्यस्य’ (कर्ताभाव रहित जीवन) की स्थिति में ले आना। आज के आधुनिक विज्ञान की महत्त्वपूर्ण देनें चेतना के इस विस्फोट के कारण ही हमें हस्तगत हुर्इ है। आज यदि ऐसे भाव वाले ढेरो युवक युगनिर्माण का स्वपन लेकर खड़े हो जाएँ तो समाज बदलते देर न लगे।
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