Friday, November 9, 2012

आचार्य शंकर व सनातन धर्म की पुर्नस्थापना



बात उन दिनों कि है जब अदि गुरू शंकराचार्य जी ने कठोर तप के पश्चात् सनातन धर्म की स्थापना का कार्य आरम्भ किया था। उस समय बौद्धों और ता​ित्रंको ने समाज को अनेक विकृतियों एवं कुरीतियों में उलझा रखा था। पवित्र वैदिक मार्ग का हनन होकर सर्वत्र वासना एवं नीचता का बोलबाला था। आचार्य शंकर समाज को इस दुर्दशा से मुक्ति दिलाने हेतु एक अभियान का ‘‘श्री गणेश करने जा रहे थे।’’ अल्पआयु में अपनी सुधा निवृ​ित्त्ा हेतु भिक्षा माँग रहे थे। धनिको एवं उच्चवर्ग के कपाट उनके लिए बन्द थे। दुखी होकर एक गरीब की झोपड़ी के आगे भिक्षा माँगने लगे ‘‘माँ कुछ खाने को मिलेगा बहुत भूख लगी है।’’ अन्दर से आवज आर्इ’’ बेटा अंदर आओ। झोपड़ी में जो कुछ भी खाने को है उसे आधा-2 बाँट लेते है।’’ बहुत ढुँढने पर खाने के लिए मात्र दो आँवले मिले। एक बूढी माँ ने खुद ले लिया दूसरा आचार्य को दे दिया। आचार्य शंकर की आँखों से टप-टप आँसू झरने लगें। बुढ़िया के इस त्याग ने आचार्य का मनोबल बहुत बढ़ा दिया। अमीर वर्ग में सही गरीब वर्ग में तो संस्कृति धर्म के प्रति श्रृद्धा अभी बची है।  
इतिहास जानता है कि आचार्य शंकर को सनातन धर्म की पुर्नस्थापना में अद्भुत सफलता मिली उनको आदिगुरू के पवित्र सम्बोधन से सम्मानित किया गया।
आज भी सनातन संस्कुति की रक्षा के लिए ऐसे महामानवों की आवश्यकता है जो अपने श्रम, समय, प्रतिभा, धन का आधा भाग भारत माँ, धरती माँ की सेवा के लिए अर्पित करें एवं आधे से अपने परिवार का पेट पालन करे। यही युगधर्म है यही महाकाल की पुकार है, समय की माँग है पीडित मानवता के आँसू पोछने के लिए देवात्माँए हमसे कुछ कार्य कराना चाहती है उसकी अनसुनी करे। काश त्याग के इस पवित्र मार्ग को अपनाने की शुरूवात हम स्ंवय से करे एवं अपनी आहुति युग निर्माण के इस महायज्ञ मे समर्पित करें जिनके हृृदय में संस्कृति मानवता के लिए तड़फ है, भाव संवेदनाँए हिलोरें लेती है, र्इश्वर के संरक्षण सहायता की अपेक्षा रखते है वो भगवान के इस कार्य में अपनी भागीदारी देने का मन अवश्य बनाँएगे ऐसा हमारा विश्वास है।                                                                 
                                        राजेश् अग्रवाल        

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