ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस अपने भक्तगणों को, जो कि सैकड़ो की सख्या में उनके पास आते थे, कहा करते थे कि कामिनी-कांचन, दोनों चीजे इश्वर प्राप्ति के मार्ग में विशेष रूप से बाधक है। बुरे आचरण वाली नारी में भी वे जगन्माता का साक्षात् स्वरूप देखते थे और इसी भाव से उसका आदर करते थे। उनका कांचन त्याग इतना पूर्ण था कि यदि वे पैसे या रूपये को छू लेते तो इनकी उँगलियाँ ही टेढ़ी-मेढ़ी होने लगती थी। कभी-2 वे गिनियों और मिट्टी को एक साथ अंजुलि में लेकर गंगाजी के किनारे बैठ जाते थे और मिट्टी-पैसा, पैसा-मिट्टी(टाका-माटी, माटी-टाका बंगाली में) कहते हुए दोनों चीजों को मलते-2 श्री गंगाजी की धार में बहा देते थे। वे कहते थे, ‘‘
विषय की वासना तथा कामिनी-कांचन पर मोह रखने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता। यदि विषयआसिक्त रहे तो संन्यास लेने पर भी कुछ नहीं होता- जैसे थूक को फेंककर फिर चाट लेना।’’ (श्री रामकृष्ण वचनामृत, भाग प्रथम, परिच्छेद 35, पृष्ठ 312)
इसी तरह एक प्रसंग में वे कहते है,’’ जिस कमरे में इमली का अचार और पानी का मटका है, यदि उसी कमरे में सनिपात का रोगी भी रहे तो बीमारी कैसे दूर हो? फिर इमली की तो याद आते ही मुँह में पानी भर आता है। पुरूषों के लिए स्त्रियाँ इमली के अचार की तरह है और विषय की तृष्णा सदा लगी ही है। यही पानी का मटका है। इस तृष्णा का अंत नहीं है। सनिपात का रोगी कहता है कि मैं एक मटका पानी पीउँगा। बड़ा कठिन है। संसार में बहुत कठिनाइयाँ है। जिधर जाओ, उधर ही कोइ-न-कोइ बला आ खड़ी होती है।’’ ( उपर्युक्त परिच्छेद 40, पृष्ठ 356, 357 )
तीव्र वैराग्य मन से हो
श्री रामकृष्ण कहते थे,’’ योगी को, साधक को अंदर से तीव्र वैराग्य भाव होना चाहिए। इश्वर प्राप्ति इससे कम में नहीं होगी। कामिनी और कांचन इश्वर के मार्ग के विरोधी है, उनसे मन को हटा लेना चाहिए।’’ (
श्री रामकृष्ण वचनामृत, भाग तीन, परिच्छेद 9,
पृष्ठ 118) उनका मत था,’’ इश्वर का आंनद जिसे एक बार मिल गया, उसे संसार कासविष्ठावत जान पड़ता है। ‘‘
परम पूज्य गुरूदेव ने भी कामिनी और काम के विषय में लिखा है। वे ‘
आध्यात्मिक काम विज्ञान ‘
नामक पुस्तक में लिखते है-’’ काम का अर्थ विनोद, उल्लास और आनंद है। मैथुन को ही काम नहीं कहते। कामक्षेत्र की परिधि में वह भी एक बहुत ही छोटा और नगण्य-सा माध्यम हो सकता है, पर वह कोइ निंरतर की वस्तु तो है नहीं। स्नेह, सद्भाव, विनोद, उल्लास की उच्चस्तरीय अभिव्यक्तियाँ जिस परिधि में आती है, उसे आध्यात्मिक काम कह सकते है। नर और नारी को भी इस भावप्रवाह से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।’’
दोनों महापुरूषों के कहने की शैली में अंतर है, पर आशय वही है। अधिकांश लोग शारीरिक ब्रह्मचर्य तो साध लेते है, पर मन उनका कामुक बना रहता है, उस स्तर पर ब्रह्मचर्य नहीं सध पाता। गीताकार कहते है- निर्विकार रहो और अपनी इंद्रियों को जीतो। तृष्णा का कहीं कोइ अंत नहीं है। हम कितना भी प्रयास करें, कभी तृष्णा हमारी पूरी नहीं होगी। मनुष्य आज जिस तरह पैसे के पीछे दौड़ रहा है, उसे देखकर लगता है कि इस अंतहीन दौड़ ने कितने कष्ट दिए है- शारीरिक रोगों के साथ मानसिक तनाव, अशांति, फिर भी यह बात समझ में नहीं आ रहीं। परम पूज्य गुरूदेव कह रहे है,’’ प्रसन्न रहने के दो ही उपाय है- अपनी आवश्यकताएँ कम करें और परिस्थितियों से तालमेल बिठाएँ। ‘‘ पर क्या मनुष्य यह कर पाता है?
गीताकर ने जो शब्द प्रयुक्त किया है-’समलोष्टाश्म-कांचन:
उसका एक उदाहरण राका व बाँका है। चैतन्य महाप्रभु ने ‘राका तारे बाँका तारे’ नाम से एक पूरी स्तुति लिखी है। अभाव की स्थिति में रहते हुए दोनों ने भगवत्कर्मो को रोका नहीं पति ने देखा कि सोने का कंगन पड़ा है, पत्नी कहीं देख न ले, उसे लोभ न आ जाए तो उसके उपर मिट्टी डाल दी। पत्नी ने कहा- मिट्टी के उपर मिट्टी डाल रहे हों जब सोना हमारे लिए मिट्टी है तो फिर लोभ कैसा! यह आदर्श पत्नी ने तब प्रस्तुत किया, जब वे सब कुछ अपना परहितर्थाय बाँट चुके थे एवं स्वंय के पास कुछ भी नहीं था। राका और बाँका भक्त के रूप में प्रतिष्ठित है। जो सोने व मिट्टी में भेद न रखे, वह आदमी योगी के रूप में स्थापित हो जाता है। (युगगीता खण्ड तीन से)
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