मानीवय सरंचना को सामान्य रूप से दो भागों में विभक्त किया जाता है पहला स्थूल शरीर दूसरा सुक्ष्म शरीर। यदि अधिक गहरार्इ में मानवीय संरचना का विवेचन करना हो तो तीन शरीर कहे जाते है पहला-स्थूल शरीर दूसरा सूक्ष्म शरीर तीसरा कारण शरीर। यदि मानवीय संरचना का और अधिक गहन अध्ययन करना चाहे तो ऋषि पंच कोष की बात करते हैं इन पंच कोषों से मिलकर ही तीन शरीर बनते है।
स्थूल शरीर के अर्तगत अननमय कोष आता है। सूक्ष्म शरीर के अर्तगत प्राणमय व मनोमय कोष आते है। कारण शरीर के अर्तगत विज्ञानमय व आन्दमय कोष आते है
प्राणमय कोष
प्राणि जगत का अर्थ प्राणमय कोष से है प्राणमय कोष होने के कारण ही वो प्राणी या प्राणधारी कहलाते है। अंत समय में प्राण निकलने का अर्थ है प्राणमय कोष का अन्नमय कोष से संबध टूट जाना। प्राणमय कोष का कार्य है अन्नमय कोष का संचालन। जब प्राणमयकोष अन्नमय कोष का संचालन बंद कर देता है तो अन्नमयकोष की सारी गतिविधियाँ रूक जाती है क्योंकि प्राणमय कोष एक प्रकार की उर्जा का भण्डार है जो स्थूल शरीर को चलाती है। जिस प्रकार विद्युत प्रवाह रूकने पर बिजली का उपकरण कार्य करना बंद कर देते है उसी प्रकार प्राणशक्ति के अभाव में स्थूल शरीर के विभिन्न अंग उर्जा विहिन होकर बेकार हो जाते है। जो लोग प्राणमय कोष को ध्यान के माध्यम से देख सकते है अथवा अनुभव कर सकते है उन्हे बहुत सी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हो जाती है। प्राणमय कोष पर नियन्त्रण करना जो लोग जानते है वो तरह-तरह के चमत्कार दिखा सकते है जैसे इच्छा मृत्यु का वरण, रोगमुक्ति, जमीन के भीतर जड़ समाधि में चले जाना आदि-2। हृदय गति, नाडी गति, रक्तचाप आदि को तिब्बत के लामा कम ज्यादा करने के चमत्कार दिखाते है वह इसी प्राणमय कोष को सिद्धि से सम्भव है।
प्राणमय कोष को सशक्त, संतुलित बनाना प्रत्येक प्राणधारी का कर्तव्य है। विविध प्रकार के श्वास-प्रश्वास के प्रयोग बन्ध मुद्राए, अस्वाद व्रत इत्यादि से प्राणमय कोष को जाग्रत किया जा सकता है।
मनोमय कोष
जिसमें मनोमय कोष विकसित हो उसे मानव कहा जाता है प्रत्येक प्राणी के गुण धर्म स्वभाव मनोमय कोष के अंर्तगत आते है यदि पाश्चात्य विचारधार अथवा आधुनिक मनीषियों के अनुसार मनोमय कोष का विवेचन किया जाए तो मनोमयकोष के दो भाग है पहला अवचेतन मन व दूसरा चेतन मन। अवचेतन मन तीन प्रकार की, (सतोगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी) वृित्त्ायों, संस्कारों का सग्रह है। व्यक्ति का व्यिक्त्व उसके अवचेतन मन पर निर्भर करता है यदि अवचेतन मन में भय भरा है तो व्यक्ति व्यर्थ में भयभीत होता रहेगा यदि लालच भरा है तो लालची होगा, यदि करूणा भरी है तो दयालु होगा। व्यक्ति की प्रकृति का निर्धारण व्यक्ति के अवचेतन मन के आधार पर होता है। चेतन मन के आधार पर वह सही या गलत का निर्णय लेता है, सोचता, समझता है विभिन्न प्रकार के ज्ञान विज्ञान का अध्ययन करता है। इस प्रकार चेतन-अवचेतन दोनों के आधार पर व्यक्ति जीवन व्यतीत करता है अवचेतन भीतर के संस्कारों के आधार पर विनिर्मित है तो चेतन बाहारी वातावरण, बाहारी ज्ञान पर आधरित है यदि भीतर के व्यक्ति के संस्कार गंदे हो व बाहर की संगति भी खराब मिल जाए तो जीवन नरक बन जाता है। भीतर के संस्कार तो प्रारब्ध अथवा भाग्य से आए है जिनको काटना काफी कठिन हो जाता है व मनुष्य के सीधे नियन्त्रण में भी नहीं है परंतु बाहारी वातावरण को व्यक्ति काफी हद तक नियन्त्रित कर सकता है स्ंवय को अच्छी पुस्तकों अच्छे लोगो के सम्पर्क में रखने का अधिकाधिक प्रयास करें। गलत विचारो,विषयों का चिन्तन बिल्कुल न करने का प्रयास करें। मन में कुछ न कुछ तो चलता रहेगा जितना हम अच्छा चिन्नत बनाएगे उतना ही अच्छा चलेगा इससे अवचेतन मन भी धीरे-2 शुद्ध होता रहेगा।
मनोमय कोष एक ओर प्राणमय कोष का नियन्त्रक है। यदि मनोमय कोष अच्छा नहीं है तो प्राणमयकोष भी अच्छा नहीं होगा। यदि प्राणमय कोष अच्छा नहीं है तो अन्नमयकोष अच्छा नहीं होगा अर्थात व्यक्ति रोगी होगा। प्राणमय कोष को सही करने के कर्इ बार बहुत से प्रयास बेकार चले जाते है क्योंकि रोग की जड़ मनोमय कोष में स्थित है। यही कारण है कि बहुत से लोग खाने पीने का ध्यान बहुत रखते है ढेर सारे आसन प्राणायाम भी करते है इसके उपंरात भी रोगी बने रहते है मनोमय कोष को समझ पाना बहुत जटिल कार्य है बहुत से रैकी मास्टर तेजोवलय, अनुभवी प्राणमयकोष का ज्ञान कर पाते है पंरतु मनोमयकोष की जानकारी ले पाना इनकी सामथ्र्य के बाहर की बात होती है।
मनोमयकोष जाग्रत विकसित कर व्यक्ति वैज्ञानिक, मनीषी, नेता, लेखक दार्शानिक बन सकता है लौकिक जीवन की सभी सफलताँए मनोमयकोष के उपर निर्भर करती है भारतीय ऋषि मुनियों ने मनोमयकोष के तीन भाग किए है मन, बुद्धि, चित्त्ा मनोमयकोष का यह अधिक विस्तृत विवेचन है। बुद्धि निर्णय लेने की क्षमता को कहते है जो विचार व्यक्ति के भीतर चलते रहते है जो वर्तमान काल की मनुष्य की प्रवृति व इच्छाएँ है वो मन के अंर्तगत आती है। चित्त्ा में पुराने जन्मों के संस्कारो का संचय रहता है। व्यक्ति का अचानक हृदय परिर्वतन चित्त्ा के आधार पर होता है। लाहिडी महाशय 32 वर्ष तक सामान्य गृहस्थ का जीवन व्यतीत कर रहे थे। जब उनका स्थानान्तरण रानीखेत हुआ तो अचानक ही वे सामान्य गृहस्थ से महायोगी बन गए, क्योंकि पुर्व जन्म के संस्कार चित्त्ा में योगीयों वाले भरे हुए थे।
कर्इ बार व्यक्ति का मन प्रबल होता है। जैसे बुद्धि यह निर्णय दे कि ज्वर में मिठार्इ नहीं खानी है पंरतु मन प्रबल इच्छा करता है व व्यक्ति बिना मीठे खाए नहीं रह पाता क्योंकि मन में त्याग की प्रवृति की कमी है व भोग की प्रबलता है।
मनोमयकोष के कमजोर, विकृत होने पर मानव अपना लोकिक जीवन दुख, निराशा, असफलता, रोग, शोक में व्यतीत करता है। अत: मनोमयकोष को निष्काम कर्म, योग, श्रेष्ठ, चिन्तन, मनन आत्म विशेलषण, स्वाध्यय, शुद्ध अन्न, उच्च व दिव्य वातावरण के माध्यम से सशक्त, जाग्रत बनाए रखना बहुत आवश्यक है।
विज्ञानमय कोष
भारतवर्ष में छठी इन्द्रिय अथवा दशम द्वार के बारे में भाँति-2 की ऋद्धि-सिद्धियों के बारे में बहुत सुना जाता है ये सब विज्ञानमय कोष के अन्र्तगत आते है। कुण्डलिनी शक्ति का जागरण भी विज्ञानमय कोष के जागरण का ही खेल है लौकिक मनुष्य का विज्ञानमय अल्प विकसित होता है क्योंकि इसको विकसित करना दुष्कर कार्य है लौकिक सफलताँए अर्जित करना इसकी तुलना में आसान होता है क्योकि विज्ञानमय कोष को जाग्रत करने के लिए अधिक संयम, अधिक पुरूषार्थ, तप शक्ति, दिव्य गुणो की आावश्यकता होती है। विज्ञानमय कोष को जाग्रत करने वाले व्यक्ति को साधक, तपस्वी, देवमानव, सिद्ध पुरूष, योगी, ऋषि आदि उपाधि से विभूषित किया जाता है। विज्ञानमय कोष के साधक में प्रज्ञा अर्थात पराज्ञान उपलब्ध होना प्रारम्भ हो जाता है वह अपना जीवन दैवी प्रेरणा के आधार पर जीता है। न तो वह अपनी चित्त्ा वृित्त्ायों का दास होता है न वह बाहारी वातावरण से प्रभावित हो पाता है अपितु अपनी अन्तरात्मा के द्वारा उपलब्ध विशेष ज्ञान द्वारा वह नियन्त्रित, संचालित होता है। सामान्य मानव जहाँ चित्त्ा वृित्त्ायों का गुलाम होकर रोग, शोक, भोग में लिप्त रहता है वहाँ विज्ञानमय कोष का धनी विभिन्न परालौकिक शक्तियों का स्वामी होता है व दूसरे व्यक्तियों को भी अनुदान वरदान देने की सामथ्र्य रखता है।
विज्ञानमय कोष को जाग्रत करने के अधिकारी कम व्यक्ति होते है इसको जाग्रत करने के लिए पहले व्यक्ति किसी बाहारी स्तोत्र जैसे सदगुरू से प्रेरणा लेकर मनोमय कोष को शुद्ध करने का प्रयास करता है चित्त्ा की वृित्त्ायों की गुलामी छोड़कर अन्तरात्मा की आवाज को सुनने का प्रयास करता है।
मानव के भीतर विभिन्न प्रकार के शक्ति के स्त्रोत, ज्ञान के स्त्रोत भरे पड़े है उन सभी का अनावरण कर ज्ञानवान, शक्तिवान बनना ही विज्ञानमय कोष के अन्तर्गत आता है। पुस्तकों द्वारा उपलब्ध ज्ञान व्यक्ति को भटका सकता है परंतु अन्तरात्मा द्वारा उपलब्ध यह ज्ञान बहुत ही पवित्र होता है व साधक को बहुत सन्तुष्ठि, तृष्ठि प्रदान करता है। इस कोष के जागरण से विशेष ज्ञान, सात लोको, “ाटचक्रों व समस्त ऋद्धियों-सिद्धियों का विज्ञान प्रकट हो जाता है इसी कारण इस कोष का नाम विज्ञानमय कोष रखा गया है। लौकिक ज्ञान विज्ञान का अर्जन मनोमय कोष के अनावरण से सम्भव है जबकि परालौकिक ज्ञान विज्ञान विज्ञानमय कोष द्वारा सम्भव है।
आनंदमय कोष
यह कोष परमब्रह्म परमात्मा के सबसे समीप है। परमब्रह्म परमात्मा की तीन विशषताँए है सत् ,चित्त्ा व आंनद। सत् अर्थात सदा आस्तित्व में रहने वाला, चित्त्ा अर्थात चैतन्य अर्थात विभिन्न प्रकार की शक्तियों का मूल तथा आनंद। अपनी इसी तीसरी विशेषता आनन्दमय रहने की प्रवृति के कारण ही वह निर्गुण निराकार माया प्रकृति के साथ सयुंक्त होकर इस सृष्टि की रचना करता है। एकोहं बहुस्यामि के संकल्प में बधकर इस विचित्र संसार के रूप में स्वंय को प्रकट करता है। अपनी इसी प्रतृति से वशीभूत ही योगी मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य लेकर ब्रह्मनंद में निमग्न होकर पुन: उसी तत्व में विलिन हो जाता है। कैसी अद्भूत लीला है उस परमप्रभु की जो कि बुद्धि की समझ से पूर्णत: बाहर है। निम्न दृष्टांत से हमको समझने में कुछ सहायता अवश्य मिलती है। एक व्यक्ति खाली बैठा बोर हो रहा था। उसने सोचा चलो खेलते है। उसने मुहल्ले के अन्य व्यक्तियों को एकत्र किया व सभी कबड्डी खेलने लगे। उसमें चोट भी लगी, कपउे भी फटे पर आनंद बहुत आया। दो घण्टे खेलने के पश्चात् वह पुन: जहाँ-2 से आए थे वहीं चले गए।
कुछ इसी प्रकार का रहस्य नजर आता है सृष्टि की रचना में। प्रत्येक प्राणी वहीं से प्रकट होता है और चाहे न चाहे अंत में उसी में विलीन हो जाता है। सैदव उत्साहित, उल्लासित, प्रसन्न रहना ही आत्मा का मूल स्वभाव है। उसकी लीला उसी को समर्पित कर सदैव आनंदमय रहना चाहिए। सृष्टि के अधिकाँश रहस्य व विज्ञान मानव मन की समझ से बाहर है। इनमें उलझकर यही मन बनाना चाहिए कि जो कुछ उसने रचा है वह उत्त्ाम है उसी के अनुसार हमें अपना जीवनक्रम बनाना है जीवनोउदे्श्य बनाना है। जो भी उस तक पहुँचता है वही उसकी लीला को ठीक से समझ पाता है अत: व्यर्थ की माथा पच्ची में न पड़कर एक जीवन का उदे्दश्य बनाकर व्यस्त रहे मस्त रहे वाले सिद्धांत पर चलना चाहिए।
योगी अथवा साधक अन्नमय कोष को शुद्ध करके प्राणमय कोष को सन्तुलित करते हुए मनोमय कोष को नियन्त्रित करके विज्ञानमय कोष को जाग्रत कर लेता है तब वह आनंदमय कोष में स्वत: ही पहुँच जाता है इस स्थिति ब्रह्मनंद की संज्ञा देते है इसे अन्य सभी लौकिक आनंद की तुलना में सैकड़ों गुना अधिक बताया गया है। जब योगी को सृष्टि के सारे रहस्य स्पष्ट हो जाते है, वह अनेक प्रकार की शक्तियों का स्वामी हो जाता है तो उसके जीवन में किसी प्रकार का कोर्इ दुख, कष्ट, अभाव नहीं रह जाता। इस स्थिति को ही शास्त्रों में मोक्ष की संज्ञा दी गयी है व इस स्थिति को प्राप्त करना ही मानव जीवन का लक्ष्य बताया गया है।
वैज्ञानिकों ने आनंदमय कोष के संबंध में चुहो पर एक प्रयोग किया था। उनका मानना है कि प्राणियों के मस्तिष्क में एक pleusar
centar होता है यदि इसको उत्त्ोजित किया जा सके तो सदा आनंदमय स्थिति में बने रहा जा सकता है इलैक्ट्राड लगाकर इस केंद्र को उत्त्तेजित किया गया तो वो बहुत ही आनंदमय हो गए। इस स्थिति में रहने पर वो कुछ भी खाना पीना नहीं चाहता केवल इसी स्थिति में बने रहना चाहता है। संभव है योगी मस्तिष्क के इस केंद्र को उत्त्तेजित कर सदैव आनंदमय स्थिति में रहते हो।
उपरोक्त विवरण मात्र कोषों के दार्शानिक पक्ष पर प्रकाश डालता है। इन कोषों सशक्त, जाग्रत, अनावरत करने का विशेष साधना विज्ञान भी है जिसका विवरण देना यहां संभव नहीं है।
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