Monday, July 29, 2013

IV. सस्ता और घटिया अथवा मंहगा और बढ़िया भगवान - चयन अपना अपना

र्इश्वर का अविश्वास ही पापों की जड़ है, इस अविश्वास से प्रेरित होकर ही मनुष्य मर्यादाओं का उल्लंघन करके स्वार्थ और अहंकार की पूर्ति के लिए स्वेच्छाचारी बन जाता है। आत्म-नियंत्रण के लिए र्इश्वर विश्वास अनिवार्य आवश्यकता मानी गर्इ है। व्यक्तिगत सदाचार और सामूहिक कर्त्तव्य-परायणता के पालन के लिए र्इश्वरीय विश्वास के अतिरिक्त और कोर्इ मार्ग नहीं हो सकता। इसलिए मनीषियों ने मनुष्य के दैनिक आवश्यक कर्त्तव्यों में र्इश्वर उपासना को सबसे प्रमुख और अनिवार्य माना है। जो इसको उपेक्षा करते हैं उनकी भत्र्सना की है और उन्हें कर्इ प्रकार के दण्डों का भय भी बताया है।
     खेद है कि आज नास्तिकता की सत्यानाशी बाढ़ तेजी से बढ़ती चली जा रही है। भौतिकतावादी विचारधाराओं ने यह प्रतिपादित किया है कि र्इश्वर तो आँखों से दिखार्इ पड़ता है और प्रयोगशालाओं की जाँच द्वारा सिद्ध होता है इसलिए उसे मानने की आवश्यकता नहीं। अति उत्साही लोग इतनी बात से बहक जाते हैं, तो वे कर्म आस्था पर विश्वास करते हैं, और उपासना की कोर्इ आवश्यकता अनुभव करते हैं।
     दूसरे प्रकार के नास्तिक इनसे भी गये-बीते हैं। वे अपने को आस्तिक कहते ओर किसी र्इश्वर को मानते भी हैं पर उनका यह कल्पित र्इश्वर वास्तविक र्इश्वर से भिन्न होता है। वे समझते हैं कि र्इश्वर तो केवल पूजा-स्तुति ही चाहता है, इतने से ही प्रसन्न होकर मनुष्य के पापों पर ध्यान नहीं देता। पूजा करने वालों के समस्त पाप किसी सामान्य धार्मिक कर्मकाण्ड के कर लेने से दूर हो जाते हैं। साथ ही वे र्इश्वर से यह आशा रखते हैं कि जरा से पाठ-पूजन के बदले, बिना उनकी योग्यता, पुरुषार्थ और लगन की जाँच किए, वह मनमाना वरदान दे सकता है। और उनकी समस्त कामनाओं की पूर्ति कर सकता है। यह लोग ऐसा भी सोचते हैं कि साधु ब्राह्मण, परमात्मा के अधिक निकट हैं, इसलिए यदि उन्हें दान-दक्षिणा देकर प्रसन्न कर लिया जाए तो अपनी तगड़ी सिफारिश परमात्मा के यहाँ पहँुच जाती है और फिर तुरन्त ही मनमाने वरदान पाने और पाप के दण्ड से बचने की सुविधा हो सकती है। हम देखते हैं कि आजकल नाममात्र की आस्तिकता इसी विडम्बना की धुरी पर घूम रही है।
     यह प्रच्छन्न नास्तिकता दिखार्इ तो र्इश्वर विश्वास जैसी ही पड़ती है, पर इससे लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है। आस्तिकता का असली लाभ पाप से भय उत्पन्न करना है। इसके विपरीत जिस मान्यता के अनुसार दस-पाँच मिनट में पूरे हो सकने वाले कर्मकाण्डों द्वारा ही समस्त पापों का फल नष्ट हो सकने का आश्वासन दिया गया हो, उससे तो उलटे पाप के प्रति निर्भयता ही बढ़ेगी। जब पाप-फल से बच सकना इतना सरल मान लिया गया तो दुष्कर्मों द्वारा प्राप्त होने वाले आकर्षणों को छोड़ना कौन पसंद करेगा? ऐसी मान्यता से प्रभावित होकर मध्यकालीन राजाओं और सरदारों ने बर्बर अत्याचार और अनैतिक आचारण करने के साथ-साथ पूजा-पाठ के भी बड़े-बडे़ आयोजन किए थे। उन्होंने मंदिर भी बनवाये और भगवान को प्रसन्न करने वाले उत्सव आदि भी किये। पंडितों और ब्रह्मणों को कथा-भजन करने के लिए वृत्तियाँ भी दीं। सम्भवत: वे यही समझते थे कि उनका पहाड़ के बराबर अनैतिकता का कार्य-क्रम इस प्रकार धन द्वारा रचार्इ पूजा-पाठ की धूमधाम के पीछे छिप जाएगा। पंडितों और पुजारियों ने अपनी आजीविका की दृष्टि से ऐसे आश्वासन भी गढ़ कर रख दिए, जिससे कुमार्गगामी व्यक्ति थोड़ा-बहुत दान-पुण्य करते रहने को तत्पर रहें। दान-पुण्य की परिभाषा भी इन लोगों ने बड़े विचित्र ढंग से की कि केवल ब्राह्मण वंश में उत्पन्न हुये व्यक्ति को जो कुछ दिया जाएगा, वह अवश्य पुण्य माना जाएगा।

     विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस प्रकार की अज्ञानमूलक धारणा व्यक्ति और समाज के लिए हानिकारक परिणाम ही उपस्थित कर सकती है। पापों के दण्ड से बच निकलने का आश्वासन पाकर लोग चरित्रगठन की उपेक्षा करने लगे, पापों का भय जाता रहा। ऐसी अनेक कथा कहानियाँ गढ़ी गर्इ जिनमें निकृष्ट से निकृष्ट कर्म जीवन भर करते रहने वाले व्यक्ति केवल एक बार अनजाने-धोखे से-’नारायण का नाम लेने से मुक्त हो गये। इन कथाओं से सत्कर्मों की व्यर्थता सिद्ध होती है और प्रतीत होने लगाता है कि जीवन-शोधन के लिए श्रम और त्याग करने की अपेक्षा थोड़ा-बहुत पूजा पाठ कर लेना ही अधिक सुविधाजनक है। ऐसी शिक्षा देने वाला आध्यात्म वस्तुत: अपने लक्ष्य से ही भ्रष्ट हो जाता है। आस्तिकता का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को सदाचारी और कर्त्तव्य परायण बनना है। यदि इस बात को भुलाकर लोग देवताओं को माँस, मदिरा या मिष्ठान्न की रिश्वत देकर मनमाने लाभ प्राप्त करने की बात सोचने लगें तो यह माना जाएगा कि उन्होंने र्इश्वर को भी रिश्वत लेकर उल्टा-सीधा, काम करने वाला मान लिया है, फिर तप, त्याग, संयम, धर्म, कर्त्तव्य आदि के कष्टसाध्य मार्ग की उपयोगिता क्या रह जाएगी? जब र्इश्वर अपनी प्रतिमा के दर्शन करने वाले, स्तुति गाने वाले और भोग लगाने वाले पर ही प्रसन्न होने लगा तो फिर यही मार्ग हर किसी को पसन्द आने लगेगा। फिर कोर्इ क्यों उस सद्धर्म के नाम पर कष्ट सहने को प्रस्तुत होगा जिसमें सर्वस्व त्याग और तिल-तिल कर जलने की अग्निपरीक्षा में होकर गुजरना पड़ता है।

No comments:

Post a Comment