धर्म के नाम पर जब-जब हमने अपने विवेक की आँख बंद की हम घोर संकट में फंसे। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण प्रत्यक्ष है। पृथ्वी राज चौहान बहुत वीर व समर्थ योद्धा थे जिन्होंने 17 बार मुहम्मद गौरी को हराया। अन्तिम बार मुहम्मद गौरी ने छल से काम लिया वह अपने साथ युद्ध में गायों को आगे करके चलां इससे पृथ्वी राज व उसके सैनिक गौ हत्या के पाप के भय से ठीक से लड़ न सकें व यह देष धीरे-धीरे गुलाम होता चला गया। यदि उसे समय हमने राश्ट्र हित के आगे पाप पुण्य एक ओर रखा होता, गौ हत्या से होने वाले पाप पुण्य की चिंता न की होती तो इतनी दुर्गति न भोगी होती।
ऐसी ही कुछ गजनी के सोमनाथ के आक्रमण के समय हुआ। उस समय तक साधको का बड़ा बोल-बाला था। मन्दिर के पुजारियों ने राजा को आष्वस्त कर दिया कि मन्दिर में समर्थ लोग है जो आक्रमणकारियों से निबट लेंगे। राजा पर्याप्त तैयारी नहीं कर पाए। तप की अपनी एक सीमा होती हैं संवेदनषील व दुर्बल आत्माओं पर वह अधिक असर करता हैं। भारतीयों की चेतना संवेदनषील रहती है अत: इसका अच्छा और बुरा दोनों प्रकार का प्रभाव भारतीय जनता पर अधिक पड़ता है। परन्तु विदेषी आक्रमणकारियों पर वह तंत्र काम न कर पाया और सोमनाथ का सब कुछ स्वाहा हो गया।
कोर्इ भी काम करें सोच समझ कर करें। श्रद्धावान होना अच्छी बात है, लेकिन अन्धानुकरण करना गलत। विदेषी सभ्यता को हम अपनाते चले जा रहे हैं। उनके खान पान रहन सहन की नकल करना हमारे लिए घातक हो सकता है। जिसने जो बता दिया वह मान लिया, इससे हमारी समस्याओं का समाधान नहीं निकलने वाला। हमने भोगवादी संस्कृति को अपनाकर अपनी जड़ें खराब कर ली है। अब हम चाहते हैं कि ज्योतिश, कर्मकाण्ड, टोने टोटके करके अपनी समस्याओं से छुटकारा पाँए। कब तक? दिन पर दिन दुर्बल होती जा रही हमारे देषवासी कब तक इन टण्ट घण्टो में उलझे रहेगें जब गाय के थनों में दूध ही नहीं हैं तो बार-बार प्रयास करने का क्या लाभ।
हमने अपने आचार विचार, खान पान, रहन सहन के तौर तरीके व आस पास के गलत वातावरण से अपनी प्राण षक्ति को इतना दुर्बल बान लिया है कि वह हमारे जीवन का बोझ नहीं ढो पा रही है।
यदि हमें अपनी आत्मा का उद्धार करना है, भारत माता को दुखों से मुक्त करना हैं तो हमें त्याग तप से परिपूर्ण जीवन जीना होगा। धर्म संस्कृति अध्यात्म के सूत्रों के ठीक से समझना होगा, उन पर चलने का प्रयास करना होगा। नहीं तो दिखावे की जिन्दगी जीते रहिए और अपने पैरो पर कुल्हाड़ी चलाते रहिए।
आने वाला समय बहुत विशम हैं जो कमजोर पडेगा वह मारा जाएगा। हमें प्राणवान बनना है, वीर्यवान बनना हैं। हम अंग्रेजों से टकरा सकें क्योंकि हम प्राणवान थे, हम संयमी तपस्वी थे। परन्तु आज अपने पास सब कुछ होते हुए भी भीतर से खोखलें होते जा रहे हैं। भौतिकवाद व दिखावे के युग में हम तपस्वी जीवन से दूर होते चले जा रहे हैं, प्रकृति से दूर हटते चले जा रहे हैं। मार्ग बड़ा स्पश्ट है
बुद्धं षरंण गच्छमि।
धम्मं षरंण गच्छमि।
सघं षरंण गच्छमि।
अपनी आत्मा को जगाओ, जाग्रत आत्मा ही प्रबुद्ध है, बौद्ध है, अपना दीपक स्वंय बनो, अपना उच्च लक्ष्य बनाओं। जाग्रत आत्मा ही धर्म के ठीक से समझ सकती है उस पर चल सकती हैं। संघबद्ध होकर अच्छार्इ और सच्चार्इ की राह पर चलों। इसी में हमारा कल्याण है इसी में राश्ट्र हित है।
जाग भारत माँ के सपूत जाग! कहीं बहुत देर न हो जाए, कहीं तेरी जवानी, कहीं तेरा जीवन इन भोगों के भंवर में फंस कर न रह जाय। समय पर चूकने वाले हाथ मलते रह जाते हैं पछताते हैं। षरीर में ताकत रहते कुछ अच्छे काम कर ले, जीवन का सदुपयोग करले, जिसमें आत्मा परमात्मा का आषीश मिलें। स्वार्थ और परमार्थ, षरीर और आत्मा जीवन रूपी गाड़ी को चलाने वाले दो अष्व है। कोर्इ भी एक यदि कमजोर पड़ा तो जीवन बोझ बन जाएगा। हमारे पूर्वज बहुत महान थे हमें बहुत उच्च कोटि की विरासत मिली है। हम षेर के बच्चे हैं क्यों कीड़े मकोड़ो के समान मर खप रहें है।
र्इष्वर अंष जीव अविनाषी, चेतन अमल सहन सुखराषि।
सो माया वष बधंऊ गौसार्इ, फंसयो कीट मरकट की नार्इ।
माया का आवरण, अपनी मूर्खता का आवरण हटते ही हमें पता चल जाएगा कि हम तो अविनाषी आत्मा, ज्ञान, षक्ति और आनंद के भण्डार है। र्इष्वर के अंष है।
आओ मिलकर षपथ लें, तुच्छ भोगों से, तुच्छ स्वार्थो से, तुच्छ टोने टोटको से स्वंय को बचाँए, समाज को बचाँए। प्रबुद्ध बनें, विवेकषील बनें, संयमी बनें, सषक्त बनें, स्वस्थ बने, सत्यनिश्ठ बनें, धर्मषील बनें, कर्मषील बनें, श्रेश्ठ बनें, सदाचारी बनें, परोपकारी बनें, न अन्याय अत्याचार करें न ही सहें। हे भगवान आप हम पर इतनी कृपा करना कि हम सही और गलत को पहचान सकें। अपनी धर्म संस्कृति, मर्यादा, आर्दष को जान सकें। अपनी कमियों और बुरार्इयों का त्याग करते हुए एक दिव्य जीवन की ओर अपने चरण बढ़ा सकें। मानवीय पुरूशार्थ और प्रभु कृपा का अद्भुत संयोग हर भारतवासी के भीतर आए और यह राश्ट्र अपना विकास करते-करते विष्वामित्र की भूमिका निभाने में सक्षम हो सकें। यही हमारी हार्दिक इच्छा है, संकल्प है, प्रार्थना है।
जय भारत, वंदे मातरम्,
जय गुरूदेव, जय श्री राम।
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