वह अंग्रेजी हुकूमत का समय था जब भारत माता गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी हुई थी पीड़ा-पतन से कराह रही थी। चारों तरफ से एक ही आवाज आती थी - आजादी। भारत माता को जरूरत थी ऐसे नौजवानों की जो उसे अपनी जान पर खेल कर आजाद कराने
का जज्बा रखते थे जिन्हें अपने घर-परिवार की बिलकुल चिन्ता न हो। उस समय मध्य
प्रदेश में एक छोटी रियासत थी। अली राजपूत उसी के अन्र्तगत एक गाँव था भवराँ जहाँ पर पंडित सीताराम तिवारी एवम उनकी धर्मपत्नि श्रीमती जगरानी देवी रहा
करती थी। तिवारी दम्पंति उत्तर प्रदेश के उननाव जिले के बदरका गाँव से यहां आए थे।
पंडित सीताराम तिवारी ईमानदार व्यक्तियों में गिने जाते थे। पंड़ित जी पूजा पाठ
करने वाले तथा सच्चाई पर चलने वाले व्यक्ति थे। ईमानदारी सच्चाई और सिद्धांतों पर चलने वाले लोगों को प्राय: धन का अभाव सहना पड़ता है।
पंड़ित सीताराम तिवारी को अपनी गरीबी का दु:ख नहीं था। वे एक पिता के नाते यह
विचार करते थे कि मेरा एक ही पुत्र है और तीन पुत्र जन्म लेने के बाद इस दुनिया को
छोड़कर चले गए थे। इस समय उनकी पत्नि पुन: गर्भवती हुई थीं कहीं पहले जैसा ही न हो। अगर इस बार ऐसा हुआ तो वे शायद ही उसे बर्थास्त कर
पाए। यही सोचते हुए वे दरवाजे पर बैठे जन्म और मृत्यु की गति पर विचार कर रहे थे।
उसी समय एक साधु ने आवाज दी "भिक्षा दो"। साधु को देखकर वे उठे और उनसे
आग्रह करते हुए बोले महाराज आकर आसन ग्रहण करो। साधु आसन पर बैठ गए। जगरानी देवी
ने आदर से भिक्षा लाकर उनकी झोली में डाल दी। भिक्षा लेकर साधु ने पंड़ितजी से
पूछा आप कुछ परेशान लग रहे है। अरे! घर में तो खुशी की बात है और आप उदास हो।
सीताराम जी ने उनसे पूर्व की घटना के बारे में बताया। साधु महाराज ने नेत्र बंद कर
भगवान का ध्यान किया। फिर बोले घबराओ नहीं इस बार आपका पुण्य ही आपके पुत्र
के रूप में जन्म लेने वाला है। यह कह कर साधु चले गए। 23 जुलाई 1906 का दिन था। पंड़ितजी के घर पुत्र ने जन्म लिया। जन्म के एक माह बाद फिर वो
साधु आए और उन्होंने भगवान शिव की उपासना करने को पंड़ित जी से कहा। इस बार ऐसा
बालक आपके घर पैदा हुआ है। जो आपका नाम युगों-युगों तक के लिए अमर कर देगा।
हमारा पुत्र भगवान शिव का आशीर्वाद है। और चन्द्रमा की तरह इसका चेहरा झलकता
है। इसलिए हम इसका नाम चन्द्रशेखर रखेगे इस नाम को सुनकर जगरानी देवी ने अपनी
सहमति दे दी।
बच्चे के छठ पूजन के समय पूरे गाँव को न्योता दिया। धूम धाम से पूजन का क्रम
पूर्ण हुआ। जगरानी देवी अक्सर चंद्रशेखर को काला टिका लगा देती थी जिससे बालक की
शोभा और बढ़ जाती थी। पंड़ित जी अपने पुत्र का लालन पालन बड़ी खुशी से करते थे।
बालक थोड़ा बड़ा हुआ तो अपने पैरो पर खड़ा होता कभी पूरे घर में दौड़
लगाता पंडित जी यह देख बहुत खुश होते। जब बालक पाँच वर्ष का हुआ तो पंड़ित जी ने
बालक के विद्या आरम्भ कराने का मुहूर्त निकाला। बालक से पूजा पाठ करवाया और पास ही
प्राईमरी विद्यालय में चंद्रशेखर का नाम लिखवाया। वहाँ पर उनके बड़े पुत्र सुखदेव
पहले से ही पढ़ते थे। पंड़ित सीताराम जी के एक मित्र थे मनोहर लाल दिवेदी जी जो उस
समय गाँव के पढ़े लिखे व्यक्तियों में गिने जाते थे और उन्हे ही चंद्रशेखर को घर
पर पढ़ाने के लिए नियुक्त कर दिया। चंद्रशेखर की न्याय के प्रति लालसा तीव्र थी।
उनके विचार उच्च एवं न्याय प्रिय थे।
वे कोई गलत बात बर्दाशत नहीं करते थे यहाँ तक की खेल में भी यह ध्यान रखते थे
कि कहीं उसने कोई गलत निर्णय न हो जाये।
बचपन की एक घटना से उनकी न्याय बुद्धि का प्रमाण मिलता है। एक बाद दिवेदी जी
उनको पढ़ा रहे थे। वे अपने पास हमेशा बेंत रखते थे। उन्होंने एक दिन पहले पढ़ाया
कि ताजमहल आगरे में स्थित हैं। अगले दिन गलती से मुँह से बोल गये कि ताजमहल दिल्ली
में है। इस बात पर बालक चंद्रशेखर ने उनको दो बेंतें लगा दिये बोले देखो कल तो लिखवाया था कि ताजमहल आगरा में है और आज बता रहे हो दिल्ली
में। इस बात पर दिवेदी जी को अपनी गलती का अहसास हुआ। ये घटना उसी समय सीताराम जी
को मालूम हुई तो उन्होंने चंद्रशेखर को डाटतें हुए कहा क्यों बेटा आज तुमने अपने पिता समान गुरू जी को बेंत क्यों मारी?
चंद्रशेखर बोले जब हमारी गलती होती है तो मास्टर साहब हमारी अच्छी तरह
पिटाई करते है और आज इतनी गलती पर मैंने इन्हें दो बेत इसलिए मारी कि न्याय सबको
बराबर मिलना चाहिए। फिर दोनों खिलखिकर हँस पड़े।
दिवेदी जी बोले पंड़ितजी आपका बेटा सिद्धांतों का जीवन जीने वाला है। यह
साधारण नहीं है यह तो युग दृष्टा बनेगा और काल भी इसे याद रखेगा।
अब चन्द्रशेखर मन लगाकर पढ़ने लगे।
विद्यालय से घर जाने के बाद तुरन्त पढ़ाई करने लग जाते। माँ भोजन की थाली लेकर आती
कहती चल बेटा हाथ धोकर भोजन कर ले। माँ मैं पहले अपना काम पूरा कर लूँ। दो
घंटे के लिए थाली को ढ़खकर रख दो। बेटा पहले भोजन कर ले। नहीं माँ भोजन करने के बाद मुझे निंद्रा आने लगती है। फिर शाम का खेलने का समय हो जाता
है। फिर हनुमान जी की आरती-चालीसा में समय पूरा हो जाता है। अगले दिन मास्टर साहब
सबसे पहले मुझे ही कहते है कि चंद्रशेखर गणित के सवाल हल हो गए? मैं कहता हूँ जी गुरूजी इसलिए अब मैं पढ़ाई करके बेफ्रिक हो
जाता हूँ। अब चंद्रशेखर की उम्र तेरह वर्ष की हो गई। गाँव में शिक्षा पूरी हो गई
है। अब पिताजी के कठोर व्यवहार की वजह से बम्बई भाग गए। कुछ महीने मजदूरी करके
अपना जीवन निर्वाह किया फिर घर आ गए। और माँ को अपने जमा किए पैसे देकर बोले आने वाले समय में और
ज्यादा कमाकर दूगाँ। माँ बोली अभी तेरी पैसे कमाने की उम्र नहीं है। अभी तो पढ़ने
लिखने की उम्र है। चंद्रशेखर बोले माँ अब मेरा मन काशी जी जाकर संस्कृत पढ़ने को
करता है। अपने गाँव के शास्त्री जी का समाज में कितना सम्मान है। माँ ने मना किया।
चंद्रशेखर धुन के पक्के थे
बोले अब तो मुझे ही फैसला करना पड़ेगा। एक दिन चुपचाप घर से
निकल गए। जब जगरानी का मालूम हुआ तो बोली जब जाना ही था तो कुछ पैसे लेकर जाता।
पता नहीं किस हाल में होगा। तिवारी जी बोले मन दु:खी मत करो जो बम्बई जाकर पैसे
कमाकर घर दे सकता है वो काशी में भी अपनी व्यवस्था कर लेगा। चंद्रशेखर ने काशी
पहुँच कर ज्ञानवापी मौहल्ले में कल्याण आश्रम में रहने की व्यवस्था कर ली और
संस्कृत पढ़ने लगे। काशी में विद्यार्थियो को दान देने वाले दानी सज्जनों की कमी
नहीं थी। हर कोई इस ब्रह्यचारी को दान देकर अपने आप को भाग्यवान समझता था। जब पूरे
मस्तक पर चंदन और बीच में लाल टिका लगा होता था तो शोभा देखते बनती थी। गले में
यज्ञोपवीत धोती पहने हुए पीताम्बर से तन को ढ़के हुए अलग ही छटा होती थी जैसे कोई
उच्च आदर्शो को धारणकर श्रेष्ट पुरूष देव लोक से इस धरती पर उतरा है। विद्या
अध्ययन के साथ-2 चंद्रशेखर ने देश की हालत पर भी अपना ध्यान देना शुरू कर दिया। वे प्रतिदिन
अखबार पढ़ते थे अंग्रेजों के जुल्मों से उनका खुन खौल उठता था। धीरे-2 उनका मन भारत माता को आजाद करवाने के लिए तड़प उठा। एक रोज वे कहीं जा रहे
थे। उन्होंने देखा कि पुलिस क्रान्तिकारियो को बड़ी बेरहमी से पीट रही है। उस समय
रोल्ट एक्ट (काला कानुन) लागु किया था जिससे कहीं भी किसी भी भारतीय को भरे चौराहो
पर लाठी डन्ड़ों से पीट दिया जाता था बिना वजह जेल में डाल दिया जाता
था। अब पुलिस जनता के साथ मनमाना व्यवहार करने लगी थी। 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी का दिन था। यह पर्व पंजाब की खुशी और प्रगति का सबसे पावन पर्व
माना जाता है। इस दिन रोल्ट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक
सभा आयोजित की गई। इस सभा में 2600 लोग उपस्थित थे। इसमें बच्चे बुढे युवा
सभी उम्र के स्त्री पुरूष शामिल थे। जलियाँवाला बाग चारों तरफ से चारदिवारी से
घिरा हुआ था। उसमें जाने का एक छोटा रास्ता था। इसमें वाहन तो क्या दो-चार लोग भी
एक साथ नहीं जा सकते थे न ही बाहर निकल सकते थे। शान्तिपूर्ण सभा हो रही थी। स्थानीय नेता सभा को
सम्बोधित कर रहे थे। उसी समय जनरल डायर वहां पहुँचा उसके साथ 150 सैनिक थे जनरल डायर ने निहत्थे बेकसूर लोगों पर गोली चलाने का आदेश दिया।
जनता में भगदड़ मच गई। बाहर निकलने का रास्ता इतना छोटा था कि आपाधापी में किसी का
भी उस रास्ते से बच निकलना मुश्किल था। कई लोग उसी रास्ते में गोली के शिकार हो गए
और बीच में फंस गए जिससे रास्ता बंद हो गया। काफी देर तक गोलियाँ चलती रही। जनरल
डायर मासूम जनता के साथ खून की होली खेलता रहा। 1600 राउण्ड गोली चली। उसी बाग में एक कुँआ था जिसमें 200 लोग प्राण बचाने के लिए कुँए में कुदकर मर गए। 2000 लोग घायल हुए। 400 लोग मारे गए। सरकार ने मरने वालो की सही रिपोर्ट नहीं दी। बाद में सरकार ने
इस घटना की न्यायिक जाँच के लिए हंटर कमीशन नियुक्त किया। जिसमें जनरल डायर ने कहा
हमने जनता को बाहर जाने के लिए कहा था। डायर ने झूठ बोला। डायर के झूठ से जनता में
क्रांति की ज्वाला और भड़क उठी। इस कांड के बारे में सुनकर चंद्रशेखर का खून खौल
उठा। एक रोज बाजार से गुजर रहे थे और पुलिस क्रांतिकारियों को बड़ी निर्दयता से
बीच चौराहे पर लाठी से पीट रही थी कुछ क्रांतिकारी लहुलुहान हो गए थे। उसी समय एक
पत्थर उठाकर चंद्रशेखर ने एक पुलिस अधिकारी के माथे पर जोर से मारा और भाग गए। पुलिस
अधिकारी की वर्दी खून से तर हो गई। एक पुलिस वाले ने उनको देख लिया था। धर पकड़
हुई। कुछ दिनों में चंद्रशेखर को पकड़ लिया गया और जेल खाने में डाल दिया गया।
सर्दी के दिन थे कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। जेलर ने रात में कोई कम्बल रजाई नहीं
दिया। सोचा रात में ठंड से अक्ल ठिकाने आ जाएगी और सुबह गिडगिडाकर माफी मागेगा।
कड़ाके की ठंड में जब चंद्रशेखर को सर्दी सताने लगी तो उन्होंने कुर्ता धोती
उतारकर एक तरफ रख दिये और दण्ड बैठक लगाने लगे। रात को जब जेलर की आँख खुली तो वह
टार्च लेकर देखने लगा तो देखता ही रह गया। चंद्रशेखर के शरीर से पसीना इस कदर बह
रहा था जैसे किसी ने वहां पानी छिड़क दिया हो। इस दृश्य को देखकर जेलर ने दांतों
तले उंगली दबा ली और विचार करने लगा कि अब इस देश में ब्रिटिश हुकुमत के ज्यादा
दिन नहीं रहे। जिन नौजवानों में इस कदर जज्बा है कि कमजोरी को ताकत बना लेते हो तो
ये देश को अवश्य ही आजाद कराकर दम लेगें। प्रात: काल 9 बजे खेरपाट नामक जज की अदालत लगी। वह एक पारसी जज था। भारतीयों को कठोर सजा
देता था। अच्छे-2 पहलवान भी उसकी सजा से कांपने लगते थे। उसने कटघरे में चंद्रशेखर की तरफ देखा बदले में चंद्रशेखर ने भी उसको घूरकर देखा। वह बोला क्या नाम है बच्चे
तुम्हारा? जवाब आया "आजाद" पिता का नाम ? "स्वाधीन" कहां रहते हो "जेलखाने में" क्या काम धंधा करते हो
"भारतमाता को आजाद कराने की साधना करता हूँ"। खेरपाट को इस तरह के अटपटे
जवाब सुनकर बहुत गुस्सा आया। उसने आजाद को 15 बेंत की सजा सुनाई। जेलर गंड़ा
सिंह ने आजाद के दोनों हाथा टकटकी से बाँध दिये। आजाद के शरीर पर केवल एक लँगोट ही
था। जेलर ने आज़ाद के शरीर पर एक दवाई का लेप किया जो शरीर की खाल को काटती थी।
जैसे ही जल्लाद ने तेल में भिगा हुआ बेंत पूरी ताकत से आजाद की पीठ पर मारा तो
आजाद के मुँह से भारत माता की जय सुनाई दी। जैसे-2 बेंत लगते गए वैसे ही
आजाद की आवाज भी बुलंद होती गई। अंदर बाहर का वातावरण इन्कलाब जिंदाबाद के नारो से
गुँज उठा था। आवाज को सुनकर ब्रिटिश सरकार के कर्मचारीयो ने अपने कानो को उँगलियों
से दबा लिया। सजा पूरी होने पर देखा कि आजाद कि पीठ पर माँस के लोथड़े लटक गए थे चारों तरफ खून बह रहा था। उसी समय जेलर ने कुछ सिक्के सांत्वना-राशि के तौर पर
आजाद को दिये। आजाद ने वह सिक्के जेलर के मुँह पर बड़ी जोर से मारे। कुछ समय के
लिए जेलर अपने मुँह को पकड़कर बैठ कर जमीन पर बैठ गया। वह सोच रहा था कि यह लड़का
किस मिट्टी का बना है। 15 बेंत खाने के बाद कमर ऐसी लगती है जैसे भारत का नक्शा हो पर हौसला इतना बुलंद
कि झुकने का नाम नहीं। जेल से बाहर निकलते ही भीड़ ने आजाद को फुलमालाओं से लाद
दिया और अपने सर पर बैठाकर चल पड़ें। शाम
को एक चबूतरे पर आजाद का भाषण हुआ। "अब चाहे जो भी हो हम देश को आजाद कराने की शपथ लेते है।" उसी समय आजाद ने संकल्प लिया कि
मैं सदैव आजाद रहुँगा। कभी पुलिस द्वारा पकड़ा नहीं जाऊंगा और कभी मरने का समय आया
तो अपनी गोली से ही जीवन लीला समाप्त कर लूँगा।
"आजाद था आजाद हूँ और आजाद ही रहूँगा।"
यह खबर अखबार में छपी और मर्यादा पत्रिका के सम्पादकीय में भी छपी। पंडित
सीताराम तिवारी समाचार पढ़ते ही बनारस के लिए चल दिये। चूँकि अखबार में पता भी छपा
था इसलिए आसनी से कल्याण आश्रम पहुँच गए। आकर आजाद से बोले घर चलों बेटा मैं तुम्हे
लेने आया हूँ। तुम्हारी माँ का रो रोकर बुरा हाल है। अब मुझे घर नहीं जाना है जब
तक मैं भारत माता को आजाद नहीं करा लूँगा। 33 करोड़ भारतीयों की भारत माता ही
मेरी माता है। उस दिन आजाद ने पिता के सामने एक सकंल्प और लिया कि मैं आज से तीन
गोली अपने पास रखुँगा। एक गोली अपने लिये और पिताजी एक आपके लिए और एक जन्म देने
वाली माँ के लिए। अगर कभी आप लोग मेरे रास्ते में आए और देश को आजाद कराने में
बाधा बने तो मैं पल भर भी नहीं सोचुगा और आपको गोली मार दुगाँ। और हाँ किसी कारणवश यदि मुझे पहले शरीर त्याग करना पड़ा तो खुशी से कर दूँगा और पुन:
यहीं जन्म लुगाँ। मैं तो भगवान से हर वक्त एक ही प्रार्थना करता हुँ कि भारतवर्ष
में सौ बार मेरा जन्म हो। आने वाली पीढियां ये अवश्य याद रखेगी कि आजाद ने हमारी
खुशी के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया।
वे जब-2 मेरा इतिहास पढ़ेगे तो उनके अंदर देशसेवा की प्रेरणा अवश्य जागेगी।
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