विनाश के उपरान्त होने वाले पुननिर्माण में मातृ-शक्ति का ही प्रमुख हाथ रहता
है। बाप द्वारा प्रताड़ना दिये जाने पर बच्चा माँ के पास ही दौड़ता है और तब वही
उसे अपने आँचल मे छिपाती,
छाती से लगाती, पुचकारती और दुलारती है।
मातृ-शक्ति करूणा की स्तोत्र है। अस्पतालों में नर्स का काम महिलायें जैसी अच्छी
तरह कर सकती हैं उतना पुरुष द्वारा नहीं, छोटे बालकों को शिक्षा देने वाले
बाल-मन्दिर, शिशु सदनों में महिलायें द्वारा जैसी अच्छी तरह प्रशिक्षण दिया जा सकता है, उतना पुरुषों द्वारा नहीं। कारण कि उनके अन्दर स्वभावतः जिस करुणा, दया, ममता, सेवा, सौजन्य एवं सहृदयता का बाहुल्य रहता है, उतना पुरुष में नहीं पाया जाता।
यदि वर्तमान अवांछनीय परिस्थितिओं की जिम्मेदारी नर-नारी में से किसकी कितनी है
इसका विश्लेषण किया जाय तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि 90 प्रतिशत उग्रता पुरुषों द्वारा बरती गयी है, क्रूर कार्य और
दुर्भावनाओं के अभिवर्धन में उन्हीं का प्रमुख हाथ है। अपराधी, दुष्ट, दुरात्मा और दण्डभोक्ता व्यक्तियों में पुरुषों की ही संख्या 90 प्रतिशत होती है। नारी क्रूरकार्य से बची रहती है, उसमें उसका योगदान नगण्य होता है इसलिये वह अपनी आध्यात्मिक गरिमा के कारण
पुरुष की अपेक्षा कहीं अधिक पवित्र, उज्ज्वल, सौम्य रहने के कारण दुर्दव की कोपभाजन नहीं बनती। शिव की छाती पर शक्ति के
खड़े होने का एक तात्पर्य यह भी है कि आत्मिक श्रेष्ठता की कसौटी पर कसे जाने पर
नारी की गरिमा ही अधिक भारी बैठती है। वही उपर रहती है। पुरुष इस दृष्टि से जबकि
गिरा हुआ सिद्व होता है तब नारी अपनी श्रेष्ठता को प्रमाणित करती हुई गर्वोन्नत
प्रसन्नवदन खड़ी होती है। भावी पुनरुत्थान में प्रधान भूमिका नर की नहीं, नारी की होगी। पुरुष में अन्य विशेषतायें कितनी ही क्यों न हों, भावनात्मक क्षेत्र में आध्यात्मिक क्षेत्र में नारी से वह बहुत पीछे है। यही
कारण है कि साधना क्षेत्र में नारी ने जब भी प्रवेश किया है वह पुरुष की तुलना
में सौ गुनी तीव्र गति से आगे बढ़ी हैं। उसे इस दिशा में अधिक शीघ्र और अधिक
महत्वपूर्ण सफलतायें मिलती हैं। पुरुष अध्यात्मवादियों की सफलताओं के पीछे प्रधान
भूमिका नारी की ही रही है। वह सहयोग ख्याति भले ही न प्राप्त कर सकी हो, पर तथ्य की दृष्टि से यही सुनिश्चित है कि आत्मबल के उपार्जन में किसी भी
पुरुष को मिली अद्भुत सफलता में असाधारण सहयोग किन्हीं नारियों का ही रहा है।
बुद्व का आध्यात्मिक प्रशिक्षण उनकी मौसी द्वारा सम्पन्न हुआ था। तपस्या के बाद
लौटे तो उनकी पत्नी यशोधरा भी अनुगामिनी होकर आयी। अम्बपाली के आत्मसमर्पण के
उपरान्त तो भगवान् का प्रयोजन हजार गुनी गति से तीव्र हुआ। पाण्डवों की महान्
भूमिका में द्रोपदी का रोल अत्यन्त प्रभावी है। एक नारी के द्वारा पाँच नर-रत्नों
को प्रचुर बल प्रदान किया गया, यह नारी-शक्ति भण्डार का चिन्ह् है।
मदालसा ने अपने सभी पुत्रों को अभीष्ट दिशा में सुसम्पन्न किया था। एक नारी
असंख्य मानव प्राणियों को नर से नारायण बनाने में समर्थ हो सकती है। उसकी
भावनात्मक स्रष्टि इतनी परिपूर्ण है कि कृष्ण का सामयिक अस्तित्व न होने पर भी
मीरा ने उन्हें पति रूप में साथ रहने और नाचने के लिये मूर्तिमान कर लिया था।
नारी के रमणी रूप की ही भर्त्सना की गयी है अन्यथा उसकी समग्र सता गंगा की तरह
पवित्र और अग्नि की तरह प्रखर है। पिछले दिनों भारतीय राजनैतिक क्रान्ति का
नेतृत्व करने में एनी बेसेन्ट की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लक्ष्मीबाई, सरोजनी नायडू आदि कितनी ही महिलायें इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम कर चुकी
हैं। इस क्रान्ति युग की परिस्थितियां उत्पन्न करने में जिन महामानवों ने गुप्त
किन्तु अद्भुत पुरुषार्थ किया है, उनमें रामकृष्ण परमहंस और योगी
अरविन्द मूर्धन्य हैं। दोनों को नारी की शक्ति का सानिंध्य प्राप्त था। परमहंस
के साथ महायोगिनी-भैरवी तथा पत्नी शारदामणि और अरविन्द के साथ माताजी का जो
अनुपम सहयोग हुआ, उसी के बलबूते पर वे लोग अपनी महान भूमिका सम्पादित कर सके। ऐसे असंख्य
उदाहरण भारत तथा विदेशों में विद्यमान हैं जिनसे स्पष्ट है कि आध्यात्मिक
क्षेत्र में, भावनात्मक उपलब्धियों में नारी का वर्चस्व प्रधान है और इसी के सहयोग से नर
को इस दिशा में सफलता मिली हैं। शिव की छाती पर शक्ति का खड़े होना इसी तथ्य का
उद्घाटन करता है कि अन्य क्षेत्रों में न सही कम से कम आत्मबल की दृष्टि से तो
नारी की गरिमा असंदिग्ध है ही। भावी नवनिर्माण निकट है। उसकी भूमिका में नारी
का योगदान प्रधान रहेगा। अगले ही दिनों कितनी ही तेजवान नारियाँ अपनी महान महिमा
के साथ वर्तमान केंचुल को उतार कर सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश करेंगी और उनके
द्वारा नवनिर्माण अभियान का सफल संचालन सम्भव होगा। भावी संसार में, नये युग में हर क्षेत्र का नेतृत्व नारी करेगी। पुरुष ने सहस्राब्दियों तक
विश्व नेतृत्व अपने हाथ में रखकर अपनी अयोग्यता प्रमाणित कर दी। उसकी क्षमता
विकासोन्मुख नहीं विनाशोन्मुख ही सिद्व हुई। अब वह नेतृत्व छिन कर नारी के हाथ
जा रहा है। हमें उसमे बाधक नहीं सहायक बनना चाहिए। भावी परिस्थतियों के अनुकूल
हमें ढलना चाहिए। इसी का संकेत उस चित्रण में सन्निहित है, जिसमें महाकाल की छाती पर महाकाली की प्रतिष्ठापना प्रदर्शित की गयी है।
- युगऋषि श्री राम आचार्य
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