Wednesday, July 10, 2013

शिष्यों के आचरण से ही सिद्ध होगी गुरू की महानता

मैं रोज़ आ​फिस जाते हुए एक ही बस लेता हुँ। मेरा ​नियम है ​ कि मैं बस में अपने आस-पास खडे लोगों को बहुत सत्संग सुनाता हुँ। महाराज जी के ब्रह्यज्ञान का संदेश देता हूँ। यह बात उस बस के कंडक्टर, ड्राइवर को भी अच्छी तरह पता है। एक ​दिन ​टिकट लेते हुए मैंने कंडक्टर को 50 रूपये का नोट ​दिया। भीड काफी थी। कंडक्टर व्यस्त था। इस​लिए उसे भूल लग गइ ​कि मैंने उसे 500 का नोट ​दिया है। उसने मुझे उसी के ​हिसाब से पैसे काटकर बाकी पैसे लौटा ​दिए। अब जब मैंने यह देखा, तो उसे पैसे लौटाने के ​लिए बढा। पर भीड काफी होने की वजह से मुझे खूब धक्के पड रहे थे। मैंने सोचा- भीड कम हो जाए, तब लौटा दूगाँ।यही सोचकर मैं आगे बढ गया? पर कुछ देर बाद मेरे मन में शैतान आ गया। बोलने लगा- अरे, रोज़ ये लोग इतने लोगों को लूटते हैं। सरकार से बेइर्मानी करते हैं। य​दि  इनका थोडा-सा रूपया मैंने रख ​लिया, तो क्या हो गया? कोइ ज़रूरत नहीं है पैसे लौटाने की!इसी ​विचार में खोए -2 कब सफ़र कट गया, पता ही नहीं चला! मेरा स्टैण्ड आ गया और मैं बस से उतरने के ​लिए सी​ढीयों तक पहुँचा। पर तभी मेरी आत्मा ने मुझे ​धिक्कारा- नहीं, यह गलत है। तू महाराज जी का ​शिष्य है। तुझे कोइर् बेइर्मानी करने का हक नहीं है।मैंने तुरन्त जेब से वे रूपये ​निकाले और कंडक्टर को थमा दिए । यह कहते हुए - तुमने मुझे ये ज्यादा दे ​दिए थे।ज्यों ही मैंने यह कहा, कंडक्टर ने ड्राइवर को बस रोके रखने का कहा और फिर मुझसे बोला - तुम जानते हो, मैंने जान-बूझकर तुम्हें ये रूपये ज्यादा ​दिए थे?’
मैं (हैरानी से) - क्यों?
कंडक्टर - क्यों​कि मैं यह देखना चाहता था कि क्या तुम्हारी कथनी-करनी एक है। तुम जो रोज़ लोगों को इतना सत्संग सुनाते हो, क्या वह तुमने अपने जीवन में भी लागू ​किया है? क्या तुम्हारे गुरू महाराज जी सच में ऐसा ज्ञान देने की शक्ति रखते हैं, जिससे पशु बन चुका इंसान फिर से सच्चा इंसान बन सके? आज तुम्हारे इस आचरण ने मेरे सारे द्वन्द्व खत्म कर दिए। अब कोई संषय नहीं रहा। मैं इस र​विवार छुट्टी लेकर तुम्हारे महाराज जी के आश्रम में ज़रूर आऊँगा।
मैं चुपचाप उसे सुनता रहा। मुझे तो गहरा सदमा लगा था। ​बिना कुछ कहे मैं बस से उतर गया। बस चली गइर्। पर मैं काफी देर तक जडवत् वहीं खडा रहा। मुझे बडा अफसोस हुआ ​कि आज चंद रूपयों की खा​तिर अपने गुरू की महान ग​रिमा पर धब्बा लगा देता। अब मैं समझ गया हूँ ​कि एक ​शिष्य के शब्दों से ज्यादा प्रभावशाली उसका आचरण होता है। हमें अपने आचरण को इतना सुन्दर, इतना पावन, इतना ऊँचा बनाना है ​कि कोइर् हमारे ज्ञान पर उंगली न उठा सके। चाहे कैसी ही परिस्तिथि हो, कोई भी प्रलोभन ​मिले, हमें अपने कतर्व्य से, अपने आदर्शो से विमुख नहीं होना। आप हम सब पर कृपा करना ​कि हम ऋषियो के ज्ञान की ग​रिमा को बनाए रखें। अपने आचरण से उसे लज्जित न करें।


ह​रि ओम शर्मा  ( अखण्ड ज्ञान )

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