Tuesday, October 14, 2014

एक शिष्य के आभूषण

सकारात्मकता
            एक विद्यार्थी हमेशा सकारात्मक विचारों से परिपूर्ण होता है। वह नकारात्मकता में भी सकारात्मकता ही देखता है। जेम्स एलन अपनी किताब 'As a man thinketh' में लिखते हैं -मनुष्य का मन एक बगीचे की तरह होता है। अगर आप उसमें सुन्दर फूल नहीं उगाएँगे, तो खरपतवार खुद ही उग जाएगी।कहने का भाव कि यदि आप सकारात्मक विचारों की खेती नहीं करते, तो नकारात्मक विचार स्वतः ही उगकर आपको नष्ट कर देंगे।
            Research बताती है कि प्रकाश की किरणों की गति एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड होती है। परन्तु इससे भी अधिक विचारों की गति है। मन के विचारों पर सवार होकर आप पल भर में एक लोक से दूसरे लोक की सैर कर सकते हैं। मिल्टन के शब्दों में कहें तो - मन के विचार मिनटों में स्वर्ग को नर्क और नर्क को स्वर्ग में बदल सकते हैं। अन्तर केवल दिशा का है।परन्तु एक सच्चे विद्यार्थी का क्या जज्बा होता है, उसे विख्यात लेखक इमर्सन ने बखूबी लिखा-यदि मुझे नर्क में रखा जाए, तो मैं अपने सद्गुणों के कारण वहाँ भी स्वर्ग बना दूँगा।ऐसी होती है, एक विद्यार्थी की सकारात्मकता!
            इसी विषय में एक सच्ची घटना है कि एक बार जापान पर किसी देश ने अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए उस पर आक्रमण कर दिया। जब जापान के राजा को यह पता चला, तो उसने अपने मंत्रियों की सभा बुलाई। सेनापति ने बताया कि शत्रु राज्य की सेना उनकी सेना से संख्या व शस्त्रों में कई गुणा अधिक है। महामंत्री ने भी कहा-राजन्, शत्रुओं के पास हर वस्तु दुगुनी है। चाहे वह अस्त्र-शस्त्र हो या अश्व, हाथी, सेना आदि। हमारे पास तो हर चीज कम है। अतः समझदारी इसी में है कि हम उनसे युद्ध न करें। यह जानते हुए कि हमारी हार निश्चित है, हमें अपने देश के लोगों को मृत्यु के मुख में नहीं धकेलना चाहिए। अब आत्म-समर्पण ही एकमात्र रास्ता है।राजा को सभासदों की बात ठीक लगी। परन्तु कोई भी बड़ा निर्णय लेने से पहले वह राजगुरु से पूछा करता था। फिर उनका ही निर्णय अंतिम निर्णय माना जाता था। इसलिए राजा ने राजगुरु को बुलावा भेजा और फिर उनके समक्ष सारी परिस्थिति रखी। राजगुरु ने सारी बात बड़े धैर्य से सुनी और फिर बोले - वास्तव में, स्थिति बहुत गम्भीर है। युद्ध करना चाहिए या नहीं, इसका निर्णय मैं, तुम या तुम्हारे मंत्री लेने में अक्षम हैं। अब तो प्रभु की इच्छा ही हमारे लिए आखिरी फैसला होगी।इतना कहकर राजगुरु ने अपने पास से एक सिक्का निकाला। उसे दिखाकर बोले - राजन्, प्रभु इच्छा जानने के लिए मैं इस सिक्के को हवा में उछालूँगा। यदि Head आएगा, तो हम युद्ध करेंगे। यदि Tail आएगा तो युद्ध नहीं करेंगे।सिक्का उछाला गया और Head आया। राजगुरु ने कहा-अब भय की कोई बात नहीं है। प्रभु की कृपा से हमारी जीत निश्चित है। इसलिए युद्ध की तैयारी करो! सारी सेना को युद्ध करने के लिए उत्साहित करो।
            जब सेना कूच करने वाली थी, तो राजगुरु ने कहा-युद्ध में जाने से पूर्व हमारे राज्य में जो पौराणिक मंदिर है, उसमें सैनिकों को अवश्य ले जाना। ईश्वर का आशीर्वाद लेेने पर विजयश्री अवश्य कदम चूमेगी।राजा ने ऐसा ही आदेश पारित कर दिया।
            युद्ध आरंभ हुआ। जापान के सैनिकों ने पूरे उत्साह व उमंग से युद्ध लड़ा। न किसी में कोई भय था, न संदेह। सभी जीत को लेकर आश्वासत थे। इतिहास बताता है कि तब एक अद्भुत घटना घटी। जापान की छोटी सी सेना ने दुश्मन राजा की अपार सेना को नाकों चने चबवा दिए। जापान की विजय हुई। जब हर्षोल्लास के साथ राजा सेना सहित वापिस लौटा, तो राजगुरु ने राजा को वही सिक्का दिखाया तो राजा हैरान रह गया क्योंकि उस सिक्के में Tail तो था ही नहीं, दोनों तरफ Head ही था।
            इसलिए हमेशा सकारात्मक दृष्टिकोण रखना चाहिए। सकारात्मकता से आप असंभव दिखने वाले कार्य को भी संभव कर सकते हो।
कर्मठता
            एक शिष्य कर्मठ होता है। यूरोप के एक दार्शनिक हुए हैं - हर्बर्ट स्पेंसर। उन्होंने जीवन के दो आयाम बताए। पहला - जीवन की लम्बाई। दूसरा जीवन की चैड़ाई। जीवन की लम्बाई का मतलब व्यक्ति की आयु से है। एक मनुष्य जितने लम्बे समय जीवन जीता है, वह उसके जीवन की लम्बाई है। सभी चाहते हैं कि उनका जीवन लम्बा हो यानी वे दीर्घायु हों। पर कभी सोचा है कि लम्बा जीवन क्यों चाहते हैं? इसीलिए कि हम अपनी सारी कामनाओं, इच्छाओं को पूर्ण कर सकें। मात्र ऐन्द्रिक सुख को ही आज का इंसान अपने जीवन का आधार मानता है। परन्तु ऐसे जीवन को महापुरुषों ने पशुवत् जीवन की संज्ञा दी है।
            इसीलिए केवल लम्बी आयु जीवन का आदर्श नहीं है। जीवन का दूसरा आयाम, जो कि चैड़ाई है, वह अधिक महत्त्वपूर्ण है। चैड़ाई यानी इस जीवन अवधि में आपने अपना कितना विस्तार किया। अपने मन, चित्त और आत्मा का कितना उत्थान किया। कितना सक्रिय, कर्मशील, मेहनती, ईमानदार और नेकी भरा जीवन व्यतीत किया। महान वैज्ञानिक आइंसटीन का कहना था - महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि एक मनुष्य का जन्म कब हुआ और वह कब मृत्यु को प्राप्त हुआ। बल्कि महत्त्वपूर्ण यह है कि इस अन्तराल के भीतर उसने क्या किया।अर्थात् जन्म और मृत्यु के बीच जो मनुष्य को समय मिला, जिसे हम जीवन काल कहते हैं, उस समय का उसने कितना सदुपयोग किया।
            एक शिष्य इस बात को हमेशा स्मरण रखता है। वह हनुमान जी जैसी कर्मठता, सजगता को धारण करने का प्रयास करता है। उसके जीवन में न आलस्य होता है, न प्रमाद! न वह रोगी होता है, न निर्बल। न वह भीरू होता है, न लापरवाह!
संकल्पवान
            दृढ़ निश्चयी और संकल्प व्यक्ति तूफानों के रुख को भी बदल सकता है। एक बार एक शिष्य ने गुरु से पूछा - संकल्पवान कैसे बना जाता है?’ गुरु जी ने कहा - संकल्प दो प्रकार के होते हैं। एक संकल्प वह होता है, जिसमें किसी के अहित की कामना छिपी होती है। दूसरा होता है शिव संकल्प - जो कल्याणकारी है, सृजनात्मक है, जिसमें श्रेष्ठ चिंतन है, मंगलमय सोच है। एक साधक का ऐसा ही शिव संकल्प होना चाहिए। ऐसे दृढ़ निश्चयी साधक विपरीत परिस्थितियों से घबराते नहीं, क्योंकि वे जान जाते हैं कि विपत्तियों का जीवन में आना पार्ट आॅफ लाइफहै और उन विपत्तियों में भी मुस्कुराते हुए शान्ति से बाहर निकल आना आर्ट आॅफ लाइफहै।
            पर वहीं संकल्प का स्थान यदि विकल्प ले ले, तो एक साधक मार्ग से भटक जाता है। उस लोमड़ी की तरह जो अंगूर खाने के लिए दृढ़ता से आगे बढ़ी। पर अंगूर के गुच्छे तक पहुॅंच न पाई और विकल्प निकाला कि अंगूर खट्टे हैं। लेकिन जो साधक संकल्पवान व दृढ़ निश्चयी हैं, वे अध्यात्म के मार्ग पर अंत तक चलते हैं - संत सुकरात की तरह। मृत्यु दंड सुनाते समय जज ने सुकरात से कहा - यदि तुम सत्य का प्रचार करना बंद कर दो, तो तुम्हें जीवन दान दिया जा सकता है।सुकरात ने कहा - जीवन छोड़ सकता हूॅं, परन्तु सत्य को नहीं। क्योंकि सत्य का मूल्य जीवन से अधिक है। भले मरना पड़ जाए, पर अनुसरण सत्य का ही करुॅंगाएक सच्चे शिष्य की भी अपने गुरु के चरणों में यही प्रार्थना होती है-
गुरुवर तुम्हारे पावन पथ पर, हो ये अर्पित जीवन सारा।

बढ़े चलें हम रुकें कभी न, हो ये दृढ़ संकल्प हमारा।।

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