Sunday, October 19, 2014

गुरु का चयन व आवश्यकता Part-2

  एक सही सम्बन्ध स्थापित करना बहुत कुछ गुरु की शक्ति एवं योग्यता पर निर्भर रहता है, जिसके लिये उसमें उच्चकोटि की क्षमता का होना आवश्यक है। एक बार का स्थापित सही सम्बन्ध तब तक बना रहेगा जब कि शिष्य मोक्ष न प्राप्त कर ले जो ऐसी दशा में इतनी दूर नहीं है कि उसे प्राप्त करने में अनेक जन्मों का समय लगे। वास्तव में यदि कोई शिष्य ऊपर बताये सही ढंग से एक उच्च योग्यता के गुरु द्वारा दीक्षित किया जाता है तो उसके समबन्ध तोड़ने का कभी प्रश्न ही नहीं उठ सकता। लेकिन अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये झूठी दीक्षाओं का स्वांग रचने वाले पेशेवर गुरु के लिये यह सदैव चिन्ता का विषय बना रहता है। इसलियेशिष्य को स्थायी रुप से अपने पंजे में रखने के लिये वे दैवी नियम के रुप में यह घोषित करते हैं कि यदि वह कभी गुरु से सम्बन्ध-विच्छेद की बात भी सोचेगा तो उसे नरक की सभी यातनाएँ झेलनी पडेंगी। भोली जनता नेइस विचार मात्र से काँपते हुए कि उनके कहीं ऐसा कार्य न हो जाये तो गुरु को अप्रसन्न कर देइसे शास्त्र-वचन मान लिया। अतः वे उनके सभी अत्याचारों को चुपचाप सहते रहते हैं। मेरा विश्वास है कि हमारे शास्त्रों में इस प्रकार का कोई विधान नहीं है। यह केवल इन धर्म-गुरुओं की गढ़ी हुई चीज है। प्रत्येक प्राणी का मैं यह जन्मसिद्ध अधिकार मानता हूँ कि जब उसे लगे कि उसने कोई गलत गुरु चुन लिया है अथवा गुरु की क्षमता एवं गुणों को पहचानने में गलती की है तो उससे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर ले। उसे इसकी भी स्वतन्त्रता है कि जब कभी उसे यह मालूम हो कि गुरु उसे उसकी वर्तमान उपलब्धियों से ऊपर पहुँचा सकने में असमर्थ है तो वह दूसरा गुरु कर ले। दूसरी ओरऐसी अवस्था में एक सच्चे गुरु को स्वयं चाहिये कि वह अपने शिष्य को दूसरे अधिक पहुँचे हुए एवं योग्यतर गुरु के पास भेज दे जिससे शिष्य की प्रगति में कोई बाधा न पड़े। एक सच्चे एवं निःस्वार्थ गुरु का यही कर्तव्य है। परयदि गुरु स्वार्थवशसम्बन्ध-विच्छेद की प्रार्थना अस्वीकृत कर दे तो शिष्य उससे शीघ्र ही सम्बन्ध-विच्छेद करने तथा दूसरे गुरु की खोज करने के लिये स्वतन्त्र है। ऐसा करने में उसे कोई नैतिक या धार्मिक नियम कभी नहीं रोकता।
            गुरुओं की श्रेणी में वे लोग कुछ आगे बढ़े हुए माने जाते हैं जो शास्त्रों तथा अन्य धर्म-ग्रन्थों से अर्जित अपने ज्ञान के आधार पर शिक्षा या उपदेश देते रहते हैं। उन्होंने संघ और आश्रम बना रखे हैं जहाँ अपने शिष्यों में उनकी स्थिति राजा जैसी होती है। वे बड़ी-बड़ी सभाओं में भाषण देते हैं और विधि-निषेध अर्थात् क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इत्यादि बतलाते हैं तथा मायाजीवन एवं ब्रह्म समबन्धी प्रश्नों को समझााते है। उनके उच्च विचारों एवं विपुल ज्ञान की प्रशंसा करते हुए लोग हजारों की संख्या में उपदेश सुनने के लिये उनके पास एकत्र होते है। वे उनसे अनेक गूढ़ प्रश्न पूछते हैं। यदि ये गुरु शास्त्रों से अर्जित अपने ज्ञान कोष में से उनको उत्तर दे सकने में समर्थ हो जाते हैं तो उन लोगों के मन में उनके महात्म्य की छाप बैठ जाती है और वे उन्हें महात्मा और गुरु मानने के लिये तैयार हो जाते है। परइस प्रकारउन्होंने उनकी विद्वत्ता का परीक्षण किया न कि उनकी सच्ची योग्यता का। यह भली-भाँति ध्यान में रखना चाहिए कि पाण्डित्य अथवा ज्ञान किसी मनुष्य को पूर्ण नहीं बना सकता। केवल सही अर्थ में साक्षात्कार ही एक सच्चा योगी अथवा सन्त बना सकता है। यह भी सम्भव है कि जिस व्यक्ति ने अपने बाकृ-रुपपाण्डित्य अथवा वक्तृत्व-कला से आपको प्रभावित कर दिया हो वह यथार्थ उपलब्धियों के क्षेत्र में निम्नतम स्तर का हो। अतः ज्ञान एक सच्चे महात्मा अथवा योगी को परखने की कसौटी नहीं। इसी भाँतिएक महात्मा अथवा गुरु की सही जाँच उसके चमत्कार या उसके असाधारण तौर-तरीके से नही, वरन् साक्षात्कार के मार्ग पर केवल उसकी व्यावहारिक उपलब्धियों से ही हो सकती है। महात्मा’ शब्द का प्रचलित अर्थ एक महान व्यक्ति मुझे अधिक उचित नहीं जँचता। मैं महात्मा की परिभाषा एक नगण्यतम पुरुष के रुप में करुँगा अथवा एक सर्वथा उपेक्षित व्यक्ति के रुप में जो बड़प्पनअभिमान एवं अहं की समस्त भावनाओं से परेपूर्ण आत्म-निषेध की अवस्था में स्थायी रुप से स्थित हो।
            कुछ लोगों का विचार है कि ज्ञानसाक्षात्कार की प्रारंभिक अवस्था होने के कारणआवश्यक एवं अपरिहार्य है। मैं इस बात से सहमत नहीं क्योंकि ज्ञान तो केवल मस्तिष्क की एक उपलब्धि हैजबकि साक्षात्कार आत्मा का जागरण है और इसलिए उसकी सीमा से परे है। अध्यात्म-ज्ञान की पुस्तकों में विभिन्न आध्यात्मिक स्तरों पर मन की दशा के सम्बन्ध में हम बहुत कुछ पढ़ते हैं और उनकी जानकारी प्राप्त करते हैं। परन्तु जहाँ यथार्थ उपलब्धियों का प्रश्न आता है हम उनसे अत्यधिक दूर रहते हैं। लोगों से हम इन दशाओं के बारे में बातें कर सकते हैंउनके पक्ष-विपक्ष में तर्क दे सकते हैं और अपने पाण्डित्य की श्रेष्ठता स्थापित कर सकते हैंपर आन्तरिक रुप से हम उनसे सर्वथा अनभिज्ञ हैं। हम गीता पर भाषण और उपदेश सुनते हैंप्रतिदिन नियमित रुप से गीता के कुछ अंशों का पाठ करते हैंउस पर बड़े-बड़े विद्वानों की टीकाएँ पढ़ते हैंलेकिन हमारे ऊपर उसका क्या व्यावहारिक प्रभाव पड़ता हैक्या हममें से कोई कभी गीता में वर्णित दशाओं में से एक को भी व्यावहारिक रुप से प्राप्त कर सकता है? ‘संसार माया है’, ‘मनुष्य ही ब्रह्म है’ इत्यादि शब्दों को वे दोहराते रह सकते हैं किन्तु आन्तरिक रुप से इन शब्दों के अर्थ का उन्हें ज्ञान नहीं। इनमें से कोई अभी अपने भीतर उन अवस्थाओं का विकास न कर पाया जिनका अर्जुन ने श्री कृष्ण से गीता सुनने के पश्चात् किया था । गीता जिस रुप में आज हमारे सामने है वह सचमुच उस ज्ञान की एक व्याख्या मात्र है जो श्री कृष्ण ने महाभारत युद्ध के प्रारम्भ होने के समय अर्जुन को दिया था। गीता में शब्दों द्वारा बताई गई सारी आध्यात्मिक अवस्थाएँ श्रीकृष्ण ने उसके हृदय में वास्तविक रुप में प्रविष्ट करा दी थीं जिसके फलस्वरूप अर्जुन उन अवस्थाओं का अनुभव भीतर-बाहर सब जगह कर रहा था। इस प्रकारएक-एक शब्द जो उसने सुना उसके हृदय में सीधा उतरता चला गया और एक स्थायी प्रभाव उत्पन्न करता गया। गीता के आधुनिक शिक्षकों एवं उपदेशकों का श्रोताओं के मन पर वांछित प्रभाव उत्पन्न करने की असफलता का कारण उनके अन्दर उन आध्यात्मिक अवस्थाओं को प्रविष्ट कराने की शक्ति का अभाव है। गीता में विवेचित मन की विभिन्न दशाएँ वास्तव मेंवे भिन्न अवस्थाएँ हैं जो आध्यात्मिकता के पथ पर चलने वालों की राह में आती हैं। वे स्वतः अन्दर से विकसित होती है। ऊपरी साधनों द्वारा मन की कोई विशिष्ट दशा समय से पूर्व अथवा अपरिपक्क अवस्था में उत्पन्न करना आतंरिक स्थूलता बढ़ाता है जो हमारी प्रगति के लिये हानिकारक है।
            सच्चा गुरु वह नहीं है जो केवल धार्मिक सिद्धान्तों के तथ्यों की व्याख्या कर सके अथवा जो हमें क्या करना या न करना चाहिए का निर्देश दे सके। हममें से लगभग सभी इसके विषय में काफी जानते हैं। एक गुरु से जिस बात की हमें अपेक्षा हैवह है आत्मा को जगाने के लिये सच्ची प्रेरणातथा साक्षात्कार के मार्ग पर उत्तरोत्तर प्रगति के लिये उसकी प्रत्यक्ष सहायता। यदि हम सफलता चाहते हैं तो ऐसे ही व्यक्ति की हमें खोज करनी पडे़गी। अतः स्पष्ट है कि आध्यात्मिकता का पथ-प्रदर्शक चुनते समय हमें उसके पाण्डित्य अथवा चमत्कारों को न देखकर आत्म-साक्षात्कार के क्षेत्र में उसकी व्यावहारिक उपलब्धियाँ देखनी चाहिए। एक व्यक्ति जो स्वयं मुक्त है वही हमें शाश्वत बन्धन से मुक्त करा सकता है। यदि गुरु स्वयं संस्कारमाया अथवा अहंकार के बन्धनों से मुक्त नहीं है तो उसके लिये किसी को उन बन्धनों से मुक्त करा सकना सम्भव नहीं। यदि हम एक खम्बे से बंधे हों और हमारा गुरु दूसरे खम्बे सेतो गुरु के लिये हमें बन्धनमुक्त कर सकना कैसे सम्भव हो सकता हैहमें बन्धन से वही मुक्त कर सकता है जो स्वयं मुक्त हो। लोग अधिकतर इसलिये गुमराह हो जाते हैं कि वे ऐसे अयोग्य गुरु के प्रति आत्म-समर्पण कर देते हैं जिनका मुख्य उद्देश्य कदाचित् निजी लाभ अथवा अपनी महत्ता बढ़ाना मात्र होता है। इसी के कारण वे साधारणतया झूठे दिखावों द्वारा अपनी मर्यादा और प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिये आतुर रहते है। किसी अधिक उन्नतिशील अथवा अधिक गुण वाले की श्रेष्ठता स्वीकार कर लेनाउनकी शक्ति और मर्यादा के दंभ के लिये कदाचित् सबसे बड़ी चोट होगी। यह और कुछ नहीं केवल अहंकार का निकृष्ट रुप है। यदि हम ऐसे गुरु के प्रति समर्पण करते हैं तो निश्चय ही हम गुरु के अभिमान की वही भावना ग्रहण कर लेेंगे जो निम्नतम प्रकार की स्थूलता है और जो हमारी आध्यात्मिक उन्नति में अवश्य ही बाधा डालेगी। जब तक यह दोष रहेगामोक्ष कभी सम्भव नहीं है।
          आध्यात्मिकतावास्तव में, मन की एक ऐसी सूक्ष्मतम स्थिति है जिसकी तुलना में प्रत्येक अन्य वस्तु अधिक भारी या स्थूलतर प्रतीत होगी। गुलाब के फूल की मधुर सुगन्ध से उत्पन्न इन्द्रियों की कोमल अनुभूति भी इससे कहीं अधिक भारी है। मैं इसे पूर्ण शान्ति एवं समभाव की स्थिति कह सकता हूँ, जो प्रकृति के पूर्ण सामन्जस्य में हैं। मन की इस स्थिति में सभी इन्द्रियाँ एवं प्रवृत्तियाँ मानों प्रसुप्त अवस्था में होती हैं। उनकी क्रिया स्वतः होती रहती है और मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। पूर्ण शान्ति इसकी उच्च अवस्थाओं में से एक है यद्यपि असल वस्तु अभी और आगे है जहाँ शान्ति का बोध भी विलीन हो जाता हैक्योंकिशान्ति का बोध भी मन पर अत्यन्त नगण्य ही सहीपर कुछ न कुछ भार तो डालता ही है। जब हम वास्तव में शान्ति के अस्तित्व से भी बेखबर हो जाते हैं तभी वास्तविक अर्थ में भावना के प्रभाव अथवा भार से मुक्त होते है। यह अवस्था विचित्र है यह वस्तुतः न तो आनन्द है और न उसका विपरीत। इस अवस्था की वास्तविक दशा को व्यक्त करने में शब्द असफल हो जाते हैं। ऐसी ही दशा में अन्ततोगत्वा प्राप्त करनी है। इसके लिये वही गुरु सुयोग्य हो सकता है जो स्वयं इस अवस्था में स्थायी रुप से रह रहा हो और जिसमें अभ्यासी के हृदय में अपनी इच्छाशक्ति द्वारा आध्यात्मिक दशाएँ प्रविष्ट कराने तथा वहाँ से उलझनों एवं अड़नचों को हटाने की क्षमता और शक्ति हो। इस स्तर से कम का कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक प्रशिक्षण देने के योग्य नहीं।
(सत्य का उदय --------  श्री राम चन्द्र )        

No comments:

Post a Comment