Monday, October 20, 2014

स्वाध्याय - सत्संग द्वारा सद्विचारों की प्राप्ति

            आज की परिस्थितियों में जो भी संभव हो हमें ऐसा साहित्य तलाश करना चाहिए जो प्रकाश एवं प्रेरणा प्रदान करने की क्षमता से सम्पन्न हो। उसे पढ़ने के लिए कम से कम एक घण्टा निश्चित रूप से नियत करना चाहिए। धीरे-धीरे समझ-समझ कर विचारपूर्वक उसे पढ़ना चाहिए। पढ़ने के बाद उन विचारों पर बराबर मनन करना चाहिए। जब भी मस्तिष्क खाली रहे यह सोचना आरम्भ कर देना चाहिए कि आज के स्वाध्याय में जो पढ़ा गया था, उस आदर्श तक पहुॅंचने के लिए हम प्रयत्न करें, जो कुछ सुधार सम्भव है उसे किसी न किसी रूप में जल्दी ही आरम्भ करें। श्रेष्ठ लोगों के चरित्रों को पढ़ना और वैसे ही गौरव स्वयं भी प्राप्त करने की बात सोचते रहना मनन और चिन्तन की दृष्टि से आवश्यक है।
             जितनी अधिक देर तक मन में उच्च भावनाओं का प्रवाह बहता रहे उतना ही अच्छा है। ऐसा साहित्य हमारे लिए संजीवन बूटी का काम करेगा। उसे पढ़ना अपने अत्यंत प्राणप्रिय कामों में से एक बना लेना चाहिए।
            कहीं से भी, किसी प्रकार से भी जीवन को समुचित बनाने वाले, सुलझे हुए उत्कृष्ट विचारों को मस्तिष्क में भरने का साधन जुटाना चाहिए। स्वाध्याय से, सत्संग से, मनन से, चिन्तन से जैसे भी बन पड़े वैसे यह प्रयत्न करना चाहिए कि हमारा मस्तिष्क उच्च विचारधारा में निमग्न रहे यदि इस प्रकार के विचारों में मन लगने लगे, उनकी उपयोगिता समझ पड़ने लगे, उनको अपनाते हुए आनन्द का अनुभव होने लगे तो समझना चाहिए कि आधी मंजिल पार कर ली गई।
            कैसा अच्छा होता कि प्राचीनकाल की तरह जीवन के प्रत्येक पहलू पर उत्कृष्ट समाधान प्रस्तुत करने वाले साधु-ब्राह्मण आज भी हमें उपलब्ध रहे होते। वे अपने उज्ज्वल चरित्र, सुलझे हुए मस्तिष्क और परिपक्व ज्ञान द्वारा सच्चा मार्गदर्शन करा सकते तो कुमार्ग पर ले जाने वाली सभी दुष्प्रवृत्तियाॅं शमन होतीं पर आज उनके दर्शन दुर्लभ हैं। देश, काल और पात्र की स्थिति का ध्यान रखते हुए आज के बुद्धिवादी एवं संघर्षमय युग के अनुरूप समाधान प्रस्तुत करके जीवन को उळॅंचा उठाने वाले व्यावहारिक सुझाव दे सकें, ऐसे मनीषी कहाॅं हैं? उनका अभाव इतना अखरता है कि चारों ओर सूना ही सूना दीखता है। ऋिषियों की यह भूमि ऋषि तत्व से रहित हो गई, जैसी लगती है।
            उत्कृष्ट एवं प्रौढ़ विचारों को अधिकाधिक समय तक हमारे मस्तिष्क में स्थान मिलता रहे ऐसा प्रबंध यदि कर लिया जाए तो कुछ ही दिनों में अपनी इच्छा, अभिलाषा और प्रवृति उसी दिशा में ढल जाएगी और बाह्य जीवन में वह सात्विक परिवर्तन स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगेगा। विचारों की शक्ति महान है, उससे हमारा जीवन तो बदलेगा ही है संसार का नक्शा भी बदल सकता है।
            सद्विचारों की महत्ता का अनुभव तो हम करते हैं पर उनकी दृढ़ता नहीं रह पाती। जब कोई अच्छी पुस्तक पढ़ते या सत्संग, प्रवचन सुनते हैं तो इच्छा होती है कि इसी अच्छे मार्ग पर चलें पर जैसे ही वह प्रसंग पलटा कि दूसरी प्रकार के पूर्व अभ्यास, विचार पुनः मस्तिष्क पर अधिकार जमा लेते हैं और वही पुराना घिसा-पिटा कार्यक्रम पुनः चलने लगता है। इस प्रकार उत्कृष्ट जीवन बनाने की आकांक्षा एक कल्पना मात्र बनी रहती है, उसके चरितार्थ होने का अवसर प्रायः आने ही नहीं पाता।
            कारण यह है कि अभ्यस्त विचार बहुत दिनों से मस्तिष्क में अपनी जड़ जमाये हुए हैं, मन उनका अभ्यस्त भी बना हुआ है। शरीर ने एक स्वभाव एवं ढर्रे के रूप में उन्हें समझाया हुआ है। इस प्रकार उन पुराने विचारों का पूरा आधिपत्य अपने मन और शरीर पर जमा हुआ है। यह आधिपत्य हटे और ये उत्कृष्ट विचार वह स्थान ग्रहण करें तो ही यह सम्भव है कि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और अंतःकरण चतुष्टय बदले। जब अन्तःभूमिका बदलेगी तब उसका प्रकाश बाह्य कार्यक्रमों में दृष्टिगोचर होगा। परिवर्तन का यही तरीका है।
            जिसका बहुमत होता है उसकी जीत होती है। बहती गंगा में यदि थोड़ा मैला पानी पड़ जाए तो उसकी गंदगी प्रभावशाली न होगी, पर यदि गन्दे नाले में थोड़ा गंगा जल डाला जाए तो उसे पवित्र न बनाया जा सकेगा। इसी प्रकार यदि मन में अधिक समय तक बुरे विचार भरे रहेंगे तो थोड़ी देर, थोड़े से अच्छे विचारों को स्थान देने से भी कितना काम चलेगा? उचित यही है कि हमारा अधिकांश समय इस प्रकार बीते जिससे उच्च भावनाएॅं ही मनोभूमि में विचरण करती रहें।
            विचारों को जितनी तीव्रता और निष्ठा के साथ जितनी अधिक देर मस्तिष्क में निवास करने का अवसर मिलता है वैसे ही प्रभाव मनोभूमि में प्रबलता होती चलती है। देर तक स्वार्थपूर्ण विचार मन में रहें और थोड़ी देर सद्विचारों के लिए अवसर मिले तो वह अधिक देर रहने वाला प्रभाव कम समय वाले प्रभाव को परास्त कर देगा। इसलिए उत्कृष्ट जीवन की वास्तविक आकांक्षा करने वाले के लिए एक ही मार्ग रह जाता है कि मन में अधिक समय तक अधिक प्रौढ़, अधिक प्रेरणाप्रद उत्कृष्ट कोटि के विचारों को स्थान मिले।
            समाज के पुननिर्माण के लिए हमें स्वस्थ परम्पराओं को सुविकसित करने और हानिकारक कुरीतियों को हटाने के लिए कुछ विशेष काम करना पड़़ेगा। अव्यवस्थित समाज में रहने वाले व्यक्ति कभी महापुरुष नहीं बन सकते। चारों ओर फैली हुई निकृष्ट प्रथाएॅं तथा विचारधाराएॅं बालकपन से ही मनुष्य को प्रभावित करती हैं। ऐसी दशा में उनका मन भी संकीर्णताओं और ओछेपन से भरा रहता है। व्यक्तित्व के विकास के लिए समाज का स्तर उळॅंचा उठाना आवश्यक है। इसीलिए अध्यात्म तत्व को मूर्तिमान देखने की आकांक्षा करने वाले प्रबुद्ध व्यक्तियों को अपने समय के समाज में प्रचलित अव्यवस्थाओं को दूर करने के लिए कुछ ठोस और कड़े कदम उठाने ही पड़ते हैं।
            हम भी इन जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते। सामाजिक पुनर्निर्माण के लिए साहसपूर्ण कदम उठाने की आवश्यकता है। युग निर्माण योजना को समग्र रूप से कार्यान्वित करने के लिए प्रभावशाली नेतृत्वों की आवश्यकता की पूर्ति की जानी चाहिए। अपने परिवार में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं जो नेतृत्व के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं, उनके कदम आगे बढ़ने चाहिए। समय की पुकार अनसुनी न की जानी चाहिए। आन्दोलनों के आरम्भकत्र्ता अपने मौलिक साहस के कारण अधिक श्रेय प्राप्त करते हैं। पीछे तो उसके व्यापक हो जाने पर अनेक उपयुक्त व्यक्ति उसमें आ मिलते हैं। देखना यह है कि युग की इस महान् आवश्यकता की पूर्ति के लिए साहसपूर्ण कदम उठाने के लिए हम में से कौन आगे बढ़ते हैं और किसको इतिहास में अमर बनाने वाला श्रेय लाभ प्राप्त होता है।

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