एक पुरानी जातक
कथा है। इन्द्रप्रस्थ के राजा धनंजय के घर प्राचीन काल में बोधिसत्व ने पुत्ररूप
में जन्म लिया था। पिता के मरने पर वे सिंहासनारूढ़ हुए। उनकी न्यायनिष्ठा व
दानशीलता की ख्याति समस्त जम्बूद्वीप में फैल गई। प्रजा धर्मशील थी सुखी भी।
कलिंग देश में
उन्हीं दिनों अनावृष्टि के कारण अकाल पड़ा। प्रजा भूख और रोगों के कारण मरने लगी।
जिनसे बन पड़ा वे देश छोड़कर भाग गए। प्रजा का दुःख देख कर कलिंगराज बहुत दुःखी हुए
और देश के विश्रजनों को बुलाकर दुर्भिक्ष निवारण का उपाय पूछा।
अनेक उपाय सुझाए
गए परन्तु कोई कारगर सिद्ध न हुआ। अगली सभा बुलाई गई तो उसमें बहुत विवेचना के बाद
निष्कर्ष निकला कि इन्द्रप्रस्थ राज्य में कभी अकाल नहीं पड़ता क्योंकि वहाॅं की
प्रजा धर्मशील है। हमारे देश में अधर्माचरण बढ़ गया है जिस कारण घोर विपदाएॅं आ
रही हैं। इन्द्रप्रस्थ नरेश के धर्माचरण के नियम पूछने चाहिएॅं और प्रजाजनों को
उन्हें पालन करने के लिए बाधित करना चाहिए तभी वर्षा होगी।
कलिंग नरेश ने आठ
ब्राह्मणों का दल इन्द्रप्रस्थ भेजा व नरेश से धर्माचरण के विषय में जानकारी का
प्रस्ताव रखा। नरेश ने बताया - ‘‘निष्ठुर मन बनो। बिना परिश्रम के धन मत लो। छल और दम्भ मत
करो। स्नेह सौजन्य बरतो। संयम बरतो और प्रसन्न रहो।’’ इतना लिखा देने पर राजा ने कहा कि यह ज्ञान
मुझे मेरी धर्मनिष्ठ माॅं से मिला है अतः पूरा ज्ञान वही दे सकती हैं आप उनसे
पूर्ण ज्ञान लें।
ब्राह्मण राज
माता के पास गए। राज माता बोली कि यद्यपि वह धर्माचरण के लिए सतत प्रयत्नशील रहती
हैं परन्तु निवास तो राजमहल में ही करती हैं जहाॅं रजोगुण की प्रधानता होती है अतः
कुछ न कुछ भूल होना स्वाभाविक है अतः वे लोग अमात्य के पास जाएॅं जो महल के बाहर
कुटी में रहते हैं।
ब्राह्मण अमात्य
के पास पहुॅंचे। अमात्य डण्डे में रस्सी बाॅंधकर खेतों की लम्बाई-चैड़ाई नाप रहे
थे। इस प्रयास में उनके पैरों से एक मेंढ़क कुचलकर मर गया। वे खिन्न बैठे थे।
ब्राह्मण दल ने उनसे अपना अभिप्रायः व्यक्त किया। अमात्य बोले- ‘‘आप देखते नहीं
मैंने कत्र्तव्यपालन के साथ-साथ बरती जाने वाली सतर्कता में चूक कर दी। प्रमादी तो
आधार्मिक होता है। मैं धर्मशिक्षा का अधिकारी कहाॅं रहा? आप सुधार सारथी
के पास जाइए, वह बिना प्रमाद
के धर्माचरण करने के लिए प्रख्यात हैं।’’
सारथी ने अपनी
भूलें बताते हुए कहा- ‘‘सही चाल से चलने
पर भी मैंने एक बार घोड़ों को द्रुतगति से दौड़ाने के लिए चाबुक बरसाए थे और यह
ध्यान में नहीं रखा था कि इससे उन्हें कितना अनावश्यकत कष्ट होगा। जिसकी सहानुभूति
में न्यूनता है, वह धर्मोपदेश
क्या करे? आप अनाभ श्रेष्ठि
के पास जाएॅं, वे माने हुए
धर्मात्मा हैं।’’
अनाभ ने ताजी
घटना सुनाई, जिसमें उन्होंने
राज्य का कर भाग चुकाए बिना खेत से कुछ कच्चा अन्न भूनकर खा लिया था। खाते समय यह
ध्यान नहीं रखा था कि कर चुकाने के बाद ही खाना चाहिए। फिर भला मैं धर्मशिक्षा
कैसे दूॅं? उपदेश तो वही करे
तो आचरण में खरा हो। आप सुधीर द्वारपाल के पास जाएॅं।
ब्राह्मणों की
समझ में धर्म का मर्म आ गया और वो कलिंग देश वापस लौट गए। राजसभा में उन्होंने
समस्त विवरण सुनाया और कहा धर्माचरण की मर्यादा का रहस्य यह है- ‘‘हर व्यक्ति अपने
आचरण की गहरी समीक्षा करे,
सुधार के लिए
सचेष्ट रहे। विनम्र बने और अपनी अपेक्षा दूसरों को श्रेष्ट माने।’’
कलिंग देश में अब
धर्माचरण का पालन प्रारम्भ हुआ और वहाॅं विपुल वर्षा होने लगी तथा सतयुगी
सुव्यवस्था का आधार बन गया।
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