Saturday, October 18, 2014

गायत्री परिवार के लिए विशेष (Special Article for Gayatri Parivar)

            एक बार कुछ व्यक्ति आपस में बात कर रहे थे। उन्होंने मेरे द्वारा लिखित पुस्तक युगऋषि का जीवन पढ़ी व मेरा नाम लेकर बोले वो कौन होते हैं शान्तिकुँज को दिशा-निर्देश देने वाले । यदि कुछ दम है तो कुछ बड़ा काम करके दिखाएँ ?
            जब मैं इस प्रकार की बातें सुनता हँू तो मुझे बड़ी हंसी आती है व इस बात का आश्चर्य भी होता है कि एक परिवार को सुन्दर और अच्छा बनाने के लिए क्या सभी लोगों को अपने सुझाव अपना योगदान नहीं देना चाहिए। सम्भवतः परम पूज्य गुरुदेव भी इस बात के पक्षधर थे । कि किसी विशेष वर्ग का प्रभुत्व गायत्री परिवार के ऊपर हावी न हो जाए। इसीलिए वो किसी को भी अपना उत्तराधिकारी घोषित करके नहीं गए।
            राजतन्त्र हो या धर्मतन्त्र सभी की कुर्सियाँ बड़ी नशीली होती है। ताकत व सम्मान का नशा इतना अधिक होता है कि गद्दी पर बैठने वाला व्यक्ति यदि आत्मज्ञानी नही है तो उसमें कोई न कोई विकार आने की सम्भावना बनी ही रहती है। प्राचीन काल में इसीलिए राजा लोग अपने पास आत्मज्ञानी स्तर अथवा ऋषि स्तर के राजगुरु अपनी सभा में आवश्यक रखते थे एवं उनके मार्ग दर्शन में ही सभी निर्णय लेते थे। उदाहरण के लिए राजा जनक के पास अष्टावक्र एवं याज्ञवल्कय जैसे उच्चस्तरीय ऋषि थे। राजा दशरथ के पास ऋषि ष्ठ एवं ऋषि विश्वमित्र जैसे ब्रहमऋषि थे। ऋषि विश्वमित्र के बहने पर राजा दशरथ ने अपने प्राणों के समान प्यारे दोनों बेटों को उनके आश्रम में भयानक राक्षसों से युद्ध के लिए भेज दिया था। क्योंकि उस समय ऋषियों की आज्ञा सर्वोपरि मानी जाती थी।
            परन्तु आज समाज की व्यवस्था पूर्णतः तहस-नहस हो गई है। कोई भी व्यक्ति गद्वी को पाकर उसको स्वेच्छा से छोड़ना नही चाहता। चाहे वह उसके लायक हो अथवा नहीं। इस परिवारी के चलते कोई भी समाज बहुत नुकसान उठाता है अरब देशों में हुए गृहयुद्ध इसी कमजोरी का परिणाम है यदि हम एक मजबूत तंत्र कर्मचारी बोला कि केवल एक छेद से ही काम चल जाएगा। उसी से बिल्ली व उससके बच्चे निकल जाएँगें। इस पर न्यूटन पर बडे़ आचम्भित हुए। यह छोटी सी बात उनके दिमाग में क्यों नहीं आई। और वे अपने छोटे-छोटे कर्मचारियों का भी पूरा सम्मान करने लगे। किसी ने सत्य ही कहा है जहाँ काम आवे सुईं कहां करे तलवारी।
            अर्थात् हमें छोटी चीजों की उपयोगिता को भुलाना नहीं चाहिए। जिस भी मिशन अथवा तंत्र में अंहकारी एवं महत्वकांक्षी व्यक्तियों का उदय होता है और लोग यह सोचते हैं कि मात्र हम ही इस तंन्त्र को ऊँचा उठा सकते है। उनकी गति हिटलर के समान हो जाती है। प्रारम्भ में आंशिक सफलता अवश्य मिलती है परन्तु बाद में सब कुछ तहस-नहस हो जाता है। गायत्री परिवार रूपी बगिया में एक से एक सुन्दर फूल (ब्रह्माकमल) खिलने का प्रयास कर रहे है। यदि ऐसे व्यक्तियों को पहचान कर उनकी प्रतिभा को और चाहते है तो तंन्त्र से जुड़ा हर व्यक्ति जागरुक रहें कि तंन्त्र को और ऊँचा कैसे उठाया जाए। जिस तंन्त्र में ऐसे लोगों की कमी हो जाएगी। वह तंन्त्र कुछ गिने-चुने व्यक्तियों के द्वारा संचलित होने लगेगा। उस तंन्त्र के भ्रष्ट होने की सम्भावनाएँ बहुत अधिक बढ़ा जाएँगी। लाल बहादुर शास्त्री जी जैसे व्यक्तियों के बारे में यह कहा जाता है कि वो बड़े उलझे राजकीय मामलों में बहुत सामान्यः व्यक्तियों की राय लेना भी पंसन्द करते थे। एक बार जब किसी ने उसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया। कि एक छोटी सी घटना ने उनको यह सीख दी घटना इस प्रकार है- कि एक बार महान वैज्ञानिक न्यूटन जब अपनी प्रयोगशाला में दरवाजा बंद करके व्यस्त होते तो एक बिल्ली व उसके दो बच्चे वहाँ उत्पात मचाने लगते। उन्होंने एक कर्मचारी को कहा कि दरवाजे में दो छेद बना दे जिससे बिल्ली व उसके बच्चे इच्छानुसार वहाँ निकल सकें। कर्मचारी ने कहा कि दो छेद क्यों? तो न्यूटन महज भाव से बोले एक बिल्ली व एक उसके बच्चों के निकलने के लिए। इस पर पढ़ाया जाए तो उससे एक बहुत बड़ा देववर्ग खड़ा हो सकता है।
            मैं 1991 से जब में मिशन से जुड़ा हँू तब से हम बड़़े पैमाने पर प्रचार कार्य होता देख रहे हैं। व युवाओं का व प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों का आवहान कर रहे हैं कि दो मिशन से जुड़ें। यह कार्य करते-करते हमें 24 वर्ष हो गए क्या हम अपनी सारी जिंदगी इसी काम में खपा देेंगे। क्या इस पहली मंजिल को ही पार नही कर पाएँगे। यह तो इस प्रकार हुआ कि एक राजा को अपनी सेना में भरती के कुछ हजार युवाओं की आवश्यकता थी। वह अपने जीवन भर सैनिकों को ढूढ़ता रह गया । तथा कभी सेना का निर्माण न कर पाया। इससे बचने के लिए हमें प्रतिवर्ष कुछ हजार क्रांतिशाली एवं संस्कारी व्यक्तित्व चुनने चाहिए। साधना के द्वारा उनकी प्रतिभा को और अधिक निखारा जाएँ। परम पूज्य गुरुदेव आ जीवन साधना के द्वारा आत्मबल सम्पन्न महामानव तैयार करने की विद्या पर कार्य करते रहे। उनके इस कार्य को हम कैसे आगे बढ़ाएँ। कैसे आत्मबल समपन्न महामानव तैयार हो। किस प्रकार की साधना पद्धतियों का कैसे वातावरण में प्रयोग किया जाए। जिससे हम युग-सैनिक तैयार कर सकें। यह हम लोगों के लिए एक बहुत ही विचारणीय विषय है जिस पर ठोस कदम उठाना अनिवार्य है।

            आज ऐसे व्यक्तियों के ढूढ़ने की आवश्यकता है जो मिशन के लिए अपना तन-मन धन सब कुछ अर्जित करने का दुसाहस रखते है। यदि हम उनको एकजुट अर्थात् संगठित न करके एक-दूसरे का उपहास उड़ाने में ही लगे रहे तो हमारा मिशन समाज के सम्मुख कोई बड़ा आदर्श प्रस्तुत नहीं कर पाएगा। किसी भी कार्यकत्र्ता के प्रयासो का यदि तिरस्कार किया जाएगा। तो मिशन में अंहकारी व्यक्तित्व पनपने लगेंगे। कहने का अर्थ है जो व्यक्ति अपने को सही व दूसरों को गलत ठहराता है वह अंहकारी होता चला जाता है। अहंकारी व्यक्तित्व अपने चापलूस समर्थकों ढूढ़ता है व धीरे-धीरे करके कटृरवाद को जन्म देता है हम विनम्र बने। सेनाभावी बने। सभी से सलाह लें। व सभी को सम्मान दें इन मौलिक गुणों की धारण करके ही हम युगऋषि के शिष्य कहलाने लायक बन सकते हैं। बड़ा पद पाकर जो व्यक्ति अपने को बड़ा समझने लगता है उसका पतन उसी दिन से प्रारम्भ हो जाता है। अतः जब तक आत्मज्ञान न हो जाए तब तक हमें बहुत सावधानी के साथ आगे बढ़ना है तथा अपने साथियों एवं मिशन के कार्यकत्ताओं का मनोबल भी बढ़ाते चलना है। 
पुस्तकें लिखना, छपवाना व वितरण करना सरल कार्य नहीं है, जिनको बना बनाया तन्त्र मिल जाता है वो यह कार्य सरलता से कर लेते हैं। इस प्रकार के कार्यों को हाथ में लेने पर अनेक विषम परिस्थितियाॅं उत्पन्न होती हैं जिनका बहुत साहस व धैर्य पूर्वक सामना करना होता है। इसके लिए मैं स्वतन्त्रता सेनानियों व महापुरुषों का जीवन चरित पढता हूॅं जिससे अपने मनोबल को ऊॅंचा रख सकूॅं। एक बार मैं वीर सावरकर का जीवन चरित पढ़ रहा था जिसमें उनको कठोर काले पानी की बारह वर्ष की भीषण यातनाओं का वर्णन था। किस प्रकार तीन वर्ष (1919-1921) वह मृत्युशेय्या पर पड़े रहे परन्तु साहस न छोड़ा। वहीं से कविताएॅं व लेख दूसरे कैदियों के द्वारा भारत में भेजते रहे ताकि क्रान्ति का कार्य जारी रहे। अन्त में उनकी रिहाई हुई क्योंकि उनके समर्थन में बड़ा अन्दोलन हुआ। उनका जीवन चरित पढ़ते-पढ़ते मैं उनके जीवन के उतराद्र्ध में पहुॅंचा जब भारत सरकार ने उनकी सेवाएॅं नहीं ली व उन्हें एक वर्ष के लिए बन्दी बना लिया। जब अपने ही अपनों पर वार करने लगें तो उससे बड़ा दूर्भाग्य और क्या हमारा हो सकता है। भारत सरकार ने उनको बन्दी बनाते समय एक बार भी उनके अद्वितीय बलिदान व त्याग को नहीं सोचा मात्र अपना स्वार्थ ही सामने रखा। वह प्रसंग पढ़ते-पढ़ते मेरी आॅंखों से टप-टप आॅंसू झरने लगे। अधिकाॅंश स्वतन्त्रता सेनानी बलिदान हो गए। जो बचे-खुचे थे उनको उस समय की सरकार ने देशहित में उनका नियोजन नहीं किया।
            यही बात इन पुस्तकों के सन्दर्भ में भी है। जब मेरे मिशन के कुछ लोग इन पुस्तकों का उपहास उड़ाते हैं या अवमानना करते हैं तो मुझे अपने महान गुरु की याद आती है। कैसे उन्होंने आदरणीय डा़ प्रणव पण्ड्या जी को हिन्दी लिखना सिखाया, अनेक लेखक तैयार किए। वो अपने सूक्ष्म, कारण से आज भी यह कार्य कर रहे हैं। क्या ऐसे व्यक्ति अपने गुरु के कार्य में बाधक नहीं बन रहे हैं? मिशन में यह व्यवस्था बनानी चाहिए कि जो भी श्रेष्ठ लेखक उभर रहा है उसकी लेखनी को मान्यता मिले व उसको प्रोत्साहन मिले। अन्यथा हम अपने गुरु के आदर्शों से अपने निजी स्वार्थ के चलते कहीं भटक रहे हैं। ऐसी स्थिति में मुझे वीर सावरकर का उपरोक्त दृष्टान्त याद ही आता है जब स्वतन्त्र भारत की सरकार ने उनकी सेवाओं को मान्यता न देकर उनको कुचलने का प्रयास किया। गुरुदेव इसलिए एक बार ब्रह्मवर्चस के एक साधक को बुलाकर कह रहे थे, ‘मेरे मिशन को स्वार्थी व महत्वकांक्षी लोगों से बचाकर रखनाक्योंकि ऐसे लोग अपनी पद-प्रतिष्ठा के अहं में गुरुदेव के नन्हें-नन्हें ब्रह्मकमलों को रोंदने का प्रयास करते हैं। स्वयं गुरुदेव ने स्वरचित कविता से यह चेतावनी दी थी-
           
पड़े न रह जाएँ, मेरे ये ब्रह्मबीजबिन बोए।
मैंने इन्हें कलेजे में रख, हैं जीवन भर ढोएû
मेरे हो तो, मेरे इन बीजों को तुम बो देना।
ष्ुऽछ तो मेरा भार घटाने को, तुम भी ढो देनाû
कहीं न ऐसा हो, पछताऊँ क्योंकर कमल खिलाया। मैंने...
ब्रह्मबीज बोए जाते, तप से तपती धरती पर।
और ब्राह्मणोचित-जीवन की, उपजाऊ धरती परû
भोगवाद ष्ेऽ चक्कर में फँस, ब्राह्मणवंश घटा है।
त्याग, तितीक्षा, संयम, तप से ही संबंध कटा हैû
भटक गया है स्वयं ब्राह्मण, जग को भी भटकाया। मैंने...

            जो लोग गुरुदेव के दर्द से जुड़े हैं, उनकी पीड़ा के साथ आॅंसू बहाते हैं उन्होंने यह पुस्तक कितने चाव से पढ़ी है व इसका कितना प्रचार-प्रसार किया है इसका मैं वर्णन नहीं कर सकता, क्योंकि प्रथम संस्करण आशा से अधिक 24000 लोगों ने soft and hard copy पढ़ा है। यदि किसी के कोई शिकायत या सुझाव है तो सीधे हमारी टीम से मिले, व्यर्थ की इधर-उधर बात बनाकर प्रज्ञापराध के भागी न बनें। देवशक्तियों का संकल्प, आशीर्वाद, अनुग्रह पुस्तकों व उनके पाठकों के साथ निरन्तर बना हुआ है जिस कारण इसकी लोकप्रियता को कोई चुनौती नहीं दे सकता। अगले संस्करण को सवा लाख लोगों तक पहुॅंचाने का पुरुषार्थ हमें व हमारी टीम के द्वारा तय हुआ है जिसकी सफलता की प्रार्थना हम अपने इष्ट आराध्य से करते हैं

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