Sunday, October 19, 2014

गुरु का चयन व आवश्यकता Part-1

           अपने सुनिश्चित लक्ष्य तथा उसकी प्राप्ति के उचित साधनों को जान लेने के पश्चात् हमारा दूसरा कर्त्तव्य एक ऐसे योग्य पथ-प्रदर्शक को पाना हो जाता है जो हमें साक्षात्कार के पथ पर सफलतापूर्वक लेकर चल सके। सभी विषयों में (सांसारिक उपलब्धियों से सम्बन्धित विषयों में भी) हमें एक सुयोग्य पथ-प्रदर्शक की सहायता की आवश्यकता होती है। यह हो सकता है कि कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेने के पश्चात् हम स्वयं अपने प्रयास से आगे बढ़ सकें। लेकिन तब भी, हमें प्राचीन आचार्यों के अनुभवों पर, जो उनकी पुस्तकों एवं रचनाओं में संगृहित हैं, निर्भर रहना पड़ता है। आध्यात्मिकता में बात उलटी है। जैसे जैसे हम आगे बढ़ते जाते हैं तथा अधिक ऊँची अवस्थाऐं प्राप्त करते जाते हैं, गुरु की आवश्यकता बढ़ती ही जाती है। पुस्तकें वहाँ हमारे किसी काम की नहीं। वे हमें चीजों का ऊपरी ज्ञान प्राप्त करने में सहायक हो सकती है जिससे हम आध्यात्मिक विषयों पर ओजस्वी भाषण दे सकें तथा तर्क में विजयी हो सकें। लेकिन केवल उन्हीं के द्वारा आध्यात्मिकता में व्यावहारिक पहुँच असम्भव है। पुस्तकीय ज्ञान पर आधारित यौगिक क्रियायें एवं साधनायें अधिकतर भ्रामक होती हैं तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिये भी हानिकारक होती हैं। केवल एक सुयोग्य पथ-प्रदर्शक की सहायता ही हमको लक्ष्य तक ले जा सकती है। फारस के प्रसिद्ध कवि एवं आध्यात्मिकता पर अठारह ग्रन्थों के रचयिता मौलाना रुमी के विषय में कहा जाता है कि एक बार वे एक बड़े सन्त के पास आध्यात्मिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिये गये तो सन्त ने उनसे कहा कि यदि वे उनसे व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहते हैं तो अपनी सारी पुस्तकें नदी में फेंक दें। इस पर वे तैयार नहीं हुए क्योंकि उसका अर्थ होता जीवन भर के परिश्रम का नाश। वे कई बार उस सन्त के पास वही प्रार्थना लेकर गये पर उन्हें वही उत्तर मिला। कोई अन्य उपाय न देखकर उन्होंने अन्त में सन्त की बात मान ली और अपने सारे ग्रन्थ नदी में फेंक कर उनके शिष्य हो गये। सच्चा साक्षात्कार साधना क्षेत्र में प्रशिक्षण लेने के पश्चात् ही प्राप्त होता है और उसके लिये पाण्डित्य अथवा ज्ञान अधिक सहायक नहीं होता।
            अतः आध्यात्मिक खोज में लगे हुए व्यक्तियों के लिये गुरु की सहायता अनिवार्य एवं अपरिहार्य है। ऐसे भी उदाहरण हैं जब ऋषियों ने केवल आत्म-प्रयास के द्वारा सीधे ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण कर पूर्णता प्राप्त कर ली है। लेकिन ऐसे उदाहरण गिने-चुने हैं। वास्तव में यह अत्यन्त कठिन मार्ग है और इसका अनुसरण केवल वे व्यक्ति ही कर सकते हैं जिन्हें असाधारण प्रतिभा कर दिव्य वरदान प्राप्त है। गुरु, ईश्वर और मनुष्य को जोड़ने वाली कड़ी है। उसी के माध्यम से हम ईश्वर तक पहुँच सकते हैं। केवल वही एक शक्ति है जो हमें रास्ते की उलझनों से निकाल सकता है।
            आध्यात्मिक यात्रा में हमें विभिन्न बिन्दुओं से गुजरना पड़ता है जिन्हें चक्र या लाक्षणिक भाषा में कमल कहते हैं। वे मनुष्य को परम्परा से प्राप्त दैवी शक्ति अथवा असलियत की शक्ति के पुंजीभूत शक्ति-केन्द्र हैं। वे मानव शरीर के भीतर विभिन्न स्थानों पर स्थित हैं। दो चक्रों के बीच की जगह में असंख्य सूक्ष्म तन्तुओं का बना घना जाल है। हम जैसे-जैसे आगे बढ़ते है, बीच के तहों की इन बाधाओं से हमें गुजरना पड़ता है। हमें वहाँ भोग की पूर्ति के लिये काफी समय तक रुकना पड़ता है। भोग का अर्थ अतीत में किये हुए कार्यों का फल भुगतना मात्र नहीं है। इसका वास्तविक अर्थ है, जिस बिन्दु पर हम पहुँच गये हैं उसकी सब गुत्थियों को खोलते हुए आगे बढ़ना। भोग के लिये इन स्थानों पर कभी-कभी बहुत काल तक हमें ठहरना पड़ता है। और केवल अपने ही प्रयास से उसमें से निकल सकना अधिकांश लोगों के लिये लगभग असम्भव सा हो जाता है। प्रारम्भ की कुछ अवस्थाओं में तो यह सम्भव हो सकता है पर आगे चलकर यह बिलकुल असम्भव हो जाता है। ऐसा देखा गया है कि अतीत काल के अधिकांश ऋषिगण, जिन्होंने केवल अपने प्रयास से इसे पार करने का प्रयत्न किया था, जीवन पर्यन्त केवल पहली या दूसरी ही अवस्था पर रुके रहे और उसे पार न कर सके। दरअसल ऊँची अवस्थाओं पर हमें जिस स्थिति का सामना करना पड़ता है उसे फिसलन की दशा कहा जा सकता है। वहाँ कभी हम थोड़ा ऊपर पहुँच कर फिर नीचे फिसल जा सकते हैं। ऐसा बार-बार होता है। परिणामतः ऊँची चढ़ान अत्यन्त कठिन और असम्भव सी हो जाती है। ऐसी परिस्थिति में योग्य गुरु का शक्तिशाली सहारा ही हमें उस भँवर से बाहर निकाल सकता है। यदि गुरु में योग्यता एवं शक्ति की कमी नहीं है तो वह शिष्य को स्वयं अपनी शक्ति द्वारा गुत्थियों से बाहर निकाल कर अगली ऊँची अवस्था तक पहुँचा देगा। इसलिये, यह आवश्यक है कि जो पथ-प्रदर्शक हम चुनें, वह उच्चतम योग्यता का हो तथा अपनी असाधारण शक्ति द्वारा सभी गुत्थियों को एक ही नजर में तोड़ सकने में समर्थ हो। ऐसा वही हो सकता है जो स्वयं पूर्णता अथवा पूर्ण आत्म-निषेध की अवस्था को प्राप्त कर चुका हो। अतएव, हमें चाहिये कि ऐसी महान् शक्ति के साथ प्रेम एवं आकर्षण का सम्बन्ध जोड़ लें। यह कोई महत्व नहीं रखता कि हम उसके साथ क्या सम्बन्ध जोड़ते हैं। हम उसे अपना मित्र, मालिक, नौकर अथवा जो भी चाहें, मान लें। लेकिन फिर भी वह रहेगा हमारा पथ-प्रदर्शक या गुरु ही, जैसा उसे साधारणतया कहते हैं।
            दुर्भाग्यवश, आजकल उचित पथ-प्रदर्शक के चुनाव की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। यद्यपि प्रत्येक धार्मिक प्रवृत्ति वाले हिन्दू का यह विश्वास है कि आध्यात्मिक लाभ के लिये उत्पन्न उत्कंठा की तुष्टि के लिये गुरु का होना नितान्त आवश्यक है। साधारणतः इस कार्य के लिये लोग किसी भी व्यक्ति को, उसकी योग्यताओं अथवा गुणों पर ध्यान दिये बिना ही चुन लेते हैं। भोली जनता को आकर्षित करने के लिये तथाकथित गुरुओं द्वारा प्रदर्शित चमत्कारों अथवा बहलावों में आकर ही वे अधिकांशतः ऐसा करते हैं। ऐसे चेले खोजने वाले गुरुओं की कमी नहीं है। पेड़ की पत्तियों की भाँति वे बहुत से हैं क्योंकि उनमें से अधिकांश के लिये गुरु बनना बहुत लाभप्रद कार्य है जिसके द्वारा उन्हें इतनी अधिक आय हो जाती है जितनी अन्य किसी प्रकार से नहीं हो सकती। इसके साथ ही साथ वे अपने शिष्यों से अत्यधिक सम्मान एवं व्यक्तिगत सेवा पाते हैं। इस प्रकार भोली जनता आसानी से इन स्वार्थी पेशेवरों का शिकार हो जाती है। एक छोटा-मोटा चमत्कार या कोई साधारण प्रदर्शन जो मनोहर अथवा आकर्षक लगे, मात्र ही सैकड़ों अज्ञानी भेड़ों को गुरु के बाड़े में हाँक लाने के लिये काफी होता है। उनको असन्तुष्ट करने वाले किसी व्यक्ति के लिये शाप की केवल एक साधारण सी धमकी ही हजारों को उनके शिकंजे में ला देती है। इतना ही नहीं, अपने पेशे का एकाधिकार बनाये रखने के लिये वे यह भी घोषणा करते फिरते हैं कि एक विशिष्ट वर्ग वालों के अतिरिक्त अन्य किसी को, चाहे वह सन्यासी हो अथवा गृहस्थ, गुरु होने का अधिकार नहीं है। योग्यता एवं पात्रता की चिन्ता किये बिना ही वे अपने को जगत का धर्मगुरु मान बैठते हैं। आजकल ढेर के ढेर सन्यासी भी महात्मा बने फिरते हैं और अपने को जगदुरु कहते हैं। क्या यह खेद की बात नहीं है कि ऐसे पेशेवर पाखण्डी, जो किसी भी धर्म एवं राष्ट्र के लिये कलंक रुप है, अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये भोली जनता को ठगते और धोखा देते हुए निःशंक बिना किसी दण्ड-भय के घूमते फिरते हैं।
            अब वह अवसर आ गया है जब जनता आँख खोलकर देख ले कि इन लोगों द्वारा कितनी बरबादी ढायी गयी है। एक विशिष्ट वर्ग का ही गुरु हो सकने का एकाधिकार सरासर गलत है। पेशेवर गुरुओं ने अपनी स्वार्थ-रक्षा के लिये ही ऐसा कर रखा है। यह बहु प्रचलित विश्वास कि कोई शिष्य किसी परिस्थिति में अपने गुरु के साथ एक बार जोड़ा हुआ पवित्र सम्बन्ध नहीं तोड़ सकता, स्वयं इन झूठे गुरुओं की अपनी स्थिति सुरक्षित एवं सुदृढ़ बनाये रखने के लिये एक धूर्त चाल है। यह धोखा-धड़ी के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। शिष्य को दीक्षित करने की प्रक्रिया के (जो वास्तव में गम्भीर सिद्धान्त पर आधारित है) वास्तविक महत्व से सर्वथा अनभिज्ञ अधिकांश आधुनिक पेशेवर गुरुओं ने उसका बहुत दुरुपयोग किया है। गुरु के नाते उनका केवल यही काम है कि शिष्य को दीक्षित करते समय वे उसके कान में कुछ रहस्यपूर्ण शब्द फूँक दें और पूजा के नाम पर कुछ आडम्बरपूर्ण क्रियायें बता दें। शिष्य के प्रति उनका कर्त्तव्य यहीं समाप्त हो जाता है। उसकी प्रगति के लिये उन्हें इसके सिवा और कुछ नहीं करना रहता कि वे उसे प्रत्येक वर्ष दर्शन दे दें और उससे अपनी वार्षिक भेंट ले लें। वास्तव में, एक शिष्य को औपचारिक रुप से तभी दीक्षित किया जाना चाहिये जब उसके हृदय में सच्चा विश्वास एवं दैवी प्रेम बद्धमूल हो गया हो। दीक्षा इस बात की द्योेतक है कि शिष्य का नाता सर्वोच्च शक्ति से जुड़ गया है। उस दशा में शिष्य ने जितनी ग्रहणशीलता अपने भीतर विकसित कर ली होती है, उसी के अनुसार आध्यात्मिक शक्ति उसमें स्वतः बहना आरम्भ कर देती है।
          

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