जब व्यक्ति किसी असाध्य रोग से पीडि़त होता है तो वह यह चाहता है कि उसे ऐसी
कोई औषधि मिल जाए जिससे उसका यह रोग दूर हो जाए। एक डाॅक्टर से दूसरे डाॅक्टर तक
एक हस्पताल से दूसरे तक चक्कर लगाते - लगाते मरीज की कमर टूट चुकी होती है। वह
लाखों रूपया खराब कर चुका होता है। ऊपर से व्यक्ति भारी निराशा के दौर से गुजर रहा
होता है व अपना मनोबल खो चुका होता है। मौत की भयावह कल्पनाएॅं उसकी पीड़ा को और
बढ़ देती हैं।
ऐसा व्यक्ति व उसका परिवार सर्वप्रथम शान्त व सकारात्मक वातावरण उत्पन्न करे।
सर्वप्रथम उन कारणों को खोजें जिनसे यह समस्या उत्पन्न हुई है, उन कारणों की हटाए बिना रोग का समाधान नहीं निकल पाता दवाइयाॅं अपना काम उचित
रूप् से नहीं कर पाती, उदाहरण के लिए पाचन तन्त्र की समस्या अधिकतर बारीक पीसे आटे से होती है।
व्यक्ति अधिकतर अपना आटा तो मोटा नहीं पिसवाता। परन्तु तरह-तरह के पाचक चूर्ण
प्रयोग करता रहता है। इससे उसके पेट में तरह-तरह की दवाईयाॅं चली जाती है। परन्तु
स्थिति नियंत्रण में नहीं पाती । इसी प्रकार जो लोग कम मात्रा में पानी पीते हैं
उनको रक्तचाप व न्यूरोमस्कूलर रोग होने लगते है, व्यक्ति हाई बी.पी. की
दवाईयाॅं खाता है और उसके साइड इफेक्ट उसकी स्थिति को लगातार बिगाड़ते रहते हैं।
इसीलिए यह कहा जाता है कि रोग के मूल कारण को खोजें, दूसरी बात आवश्यक बात
है धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करना रोग के मूल कारण पता लगने के बाद धैर्यपूर्वक
क्रियान्वित (Implement) करना होता है, व्यक्ति की बिगड़ी आदतें जल्दी से सुधार
के लिए तैयार नहीं हो पाती,
यदि व्यक्ति 5 सालों से कुछ गलतियाॅं करता आ रहा
है तो और उनमें सुधार करता है तो परिणाम आने में 5-7 माह अवश्य लगेंगे।
इसलिए बिना हताश हुए सकारात्मक रूप् रखते हुए, कुछ माह योग करना आवश्यक है।
असाध्य रोग के निवारण में निम्न बातें जरूरी हैं।
रोग के कारणों को हटाया जाए, यदि रोग के कारण अनुवांशिक है तो उनमें
सुधार लाने के लिए बहुत अधिक तप शक्ति की आवश्यकता होती है।
मृत्यु के भय से व्यक्ति मुक्त रहे,मृत्यु एक सहज प्रक्रिया है, परन्तु मृत्यु का भय और सगे-सम्बन्धियों का मोह उसको पीड़ादायक बना देता है।
ईश्वर विश्वास बनाकर रखें के ईश्वर कृपा से बड़ी से बड़ी कठिनाई का हल भी
निकालना सम्भव है।
परमात्मा ने व्यक्ति को Self-Healing की बहुत बड़ी क्षमता दी है। बशर्तें की
व्यक्ति की मानसिकता सकारात्मक हो।
व्यक्ति भगवान से प्रार्थना करे कि यदि व रोगमुक्त होता है तो मानव कल्याण के
लिए कुछ न कुछ अपना योगदान अवश्य प्रस्तुत करेगा।
सप्तधातु विद्या के ज्ञान द्वारा व्यक्ति आवश्यक औषधि का प्रयोग करे।
जिस प्रकार का व्यक्ति का खान-पान, रहन-सहन होता जा रहा है अपने वाले
चार-पाॅंच वर्षों में भारत की लगभग एक-तिहाई जनता जटिल व असाध्य रोगों के शिंकजे
में फसने जा रही है। ये जटिल रोग व इनका निदान इतना पीड़ादायी है कि व्यक्ति यह
नहीं समझ पाएगा कि जीना अच्छा है या मरना। इतनी दवाईयाॅं व उनके इतने Side-effect
व्यक्ति को जीवन को साक्षात् नरक बना देती है। मृत्यु की गोद उसे जीवन के अधिक उचित
प्रतीत होने लगती है। इन रोगों का भय से अधिक समस्याएॅं उत्पन्न करता है। अनेक
व्यक्ति इस प्रकार के पाए गए जो सप्त धातु विद्या के ज्ञान द्वारा रोगमुक्त हो गए
परन्तु अन्तर्मन उस रोग के भय से उतना त्रस्त हो चुका है कि रोग न होने की अवस्था
में भी उसका आभास व दर्द महसूस करते हैं।
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