Sunday, September 30, 2012

मानव जीवन का लक्ष्य - आत्मज्ञान (2)


अमूल्य मन
रे मन! हमें किसी भी मूल्य पर भागवत कृपा प्राप्त करनी है। करनी ही चाहीए। अपनी अल्प शक्ति और सीमित क्षमता द्वारा हम कहाँ तक बढ़ सकेगें, कितने सागर पार कर सकेगें? प्रभु और उनकी मंगलमय कृपा को छोड़कर इस संसार में दुसरी सारमय वस्तु भी है क्या? कौन सी वस्तु है वह जिसकी ओर हम ताके? सभी कुछ तो यहाँ पंच-तत्व की रचना है। सब प्रपंच है, निस्सार है। लेकिन हमें बताया गया है, इन असत् असार वस्तुओं में, इन अबोध प्राणियों में वे प्रभु निवास करते हैं और जब उनकी उपस्थिति के प्रति ये सचेतन हो जाते है, उनके संकल्प की  चरितार्थता में अपना सहयोग प्रदान करते है, तब मंदिर में प्रदिप की भाँति, इनमें आत्मा की ज्योति जगमगाती है, और सब विधान बदल जाता है। मिट्टटी का पुतला, दिव्य आत्मा का, परमात्मा का विग्रह हो जाता है। असत् सत् का प्रतिरूप, उसकी अभिव्यक्ति, उसके तेज का वाहन बन जाता है इस सृष्टि में सब महत्व, सब मूल्य आत्मा का ही है। जगत का सार और सत्य यह आत्मा ही है। वही हम अपनी मूल सत्ता  में है।
पर्दा हटाए
हृदय का पर्दा हटते ही, आत्मा सामने आ जाती है, उसकी ज्योति जीवन पर छा जाती है, हमारे अंदर भागवत उपस्थिति जो अब तक छिपी हुई थी, सम्मुख आ जाती है, अहंकार की गंरथियाँ खुल जाती है, हम आत्म सत्य में निवास करते है। हमें अपने चारों ओर वस्तुओं में, मनुष्यों में, सर्वत्र प्रभु के दर्शन होते है। हमार व्यवहार उन्हीं के साथ होता है, हर प्राणी के प्रति सम्मान प्रकट करने में हमें एक अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है। सृष्टिकर्ता के दिव्य संकल्प के प्रति हम सचेतन हो जाते है। उसकी अभिव्यक्ति को जीवन-लक्ष्य के रूप में निर्धारित करते है, आंतर्सत्त् के साथ हमारा तादात्म्य सतत बन  जाता है। आत्मा का माधुर्य हमारी वाणी में, जीवन में, कर्मों में, प्रवाहित होने लगता है। ऐसे व्यक्ति-विशेष के  व्यवहार में मिठास आ जाता है, उसके वातावरण में शांति, मधुरता दिव्यता छायी रहती है। उसकी समीपता हमें अच्छी लगती है। उसके पास बैठकर हम आनंद अनुभव करते है। दूसरे शब्दों में, जिस व्यक्ति का पर्दा हट जाता है,सभी उसकी वाणी सुनना चाहते है, उसका स्पर्श, उसका दर्शन, उसकी समीपता चाहते है। हमार अंतर उसकी ओर खिंचता हैं। वह सबके लिए प्रसन्नता का, प्रेरणा का, उत्साह औश्र सांत्वना का निर्झर होता है।
मानव हृदय : एक द्वार
शास्त्रों के अनुसार संसार में बुद्धिमान व्यक्ति वही माना जाता है जो आत्मा में निवास करता है। जिसने आत्म-साक्षात्कार को जीवन-लक्ष्य के रूप में चुना और आत्म-सत्य की  अभिज्ञव्यक्ति को जीवन का स्वरूप प्रदान किया। आत्मा के गुणों को अपने स्वभाव में उतारा और आत्मा का आदेश-पालन ही एक मात्र कर्तव्य-रूप में निर्धारित किया। हमें चाहिए कि आत्मा का अनुसंधान करें। आत्मा ही सत्य है। यह सारा संसार उसी को अपने अंदर अपनी आत्म-अभिव्यक्ति है। यहाँ जो भी है, जो हमें दिखता है अथवा नहीं दिखता, उस सब का आदि मूल वही ‘‘एकमेवाद्वितीयम्’’ आत्मा है। उसे ही परमेश्वर, परब्रह्म, परमात्मा आदि नामों से संबोधित किया जाता है। वह एक दिव्य चेतन पुरूष है। हम किसी भी नाम से पुकारें, किसी भी मार्ग से प्राप्त करें, इसमें कोई अंतर नहीं। असली चीज है उसकी प्राप्ति। उसकी प्राप्ति के पश्चात् हम देखेंगे कि जो वस्तु हमने प्राप्त की है, वह हमारी सत्ता और जगत-सत्ता  का मूलभूत सत्य है और उसकी प्राप्ति के हित हमने जो कष्ट उठाये, जो त्याग किये, तपस्याएँ कीं, बलिदान किये, यंत्रणाएँ सहीं, अपने आपको मिटाया,, हानि स्वीकार की, अपमान के घूंट पिये, वह सब- जो हमने पाया उसकी प्राप्ति की तुलना में नहीं के बराबर है।
हे प्रभु ऐसी कृपा कर कि मनुष्य स्वार्थ-भावना से उपर उठें, व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति में अपना समय नष्ट न करें। उन्हें जो समय मिले उसे इश्वरोपासना में, मानव कल्याण में, परोपकार में लगायें।

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