Wednesday, September 26, 2012

मानव जीवन का लक्ष्य - आत्मज्ञान (1)


मानव जीवन की सफलता आत्म-साक्षात्कार है। आत्मा को पाना, उसमें निवास, उसके संकल्प के प्रति सचेतन होना, हम सब का प्रथम कर्तव्य है। यही जीवन और जन्म को सच्ची सार्थकता प्रदान करता है। आत्मा को प्राप्त करने के पश्चात् ही हम यह समझने में समर्थ होते हैं कि ‘‘मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, यह जगत क्या हैं, कहाँ से आया है, इसकी रचना करने वाली शक्ति कौन है और उसका स्वरूप क्या है?
आत्मा ही हमारी अपनी सत्ता  का और जगत सत्ता का मूलभूत सत्य है। जिस प्रकिया के द्वारा हम इस आत्मा को उपलब्ध करते है, उसे शास्त्रों में योग कहा है। जीवन में आंतर और बाह्म प्रगति करते हुए, आत्मा के एक विशिष्ट स्तर पर पहुँचने के पश्चात् यह हमारी आवश्यकता हो जाती है कि हम अपनी व्यक्तिगत सीमाओं का अतिक्रम करें और आत्मा की अनंतता  में उठें, जगत में अपना कर्तव्य पालन करते हुए मुक्त भाव से विचरें। दूसरी ओर एक भिन्न स्तर पर हम जीवात्मा है। जिसका केंद्र श्री अरविंद ने हमारे सिर के उपर बताया है। यह प्रकृति में नहीं उतरता, यह सदा शुद्ध और मुक्त है। लेकिन इसकी चेतना, इसकी दृष्टि सीमित है। यह भगवद् अंश कहलाता है। शास्त्रों में इसे ही बहु कहा है। एक आत्मा जो अनेक रूपों में अपने आप को बिना पृथक हुए विभक्त करता है, उसकी यह अभिव्यक्ति ही जीव अथवा बहुकहलाती है। यह जीव अथावा जीवात्मा अपने आत्म-तेज से एक व्यक्तित्व का निर्माण करता है और उसे प्रकृति में स्थित करता है, अथवा ऐसा कहें-अपने उसे आंशिक रूप में स्वंय स्थित होता है। यही मानव आत्मा है, इसका निवास प्राणी मात्र के हृदय में है, इमारी आंतरिक सत्ता  में है। यही आवागमन के चक्र मं घूमती, धरती पर जीवन के अनुभवों से  विकास में वृद्धि को प्राप्त होती है। विकास की एक विशिष्ट स्थिति प्राप्त करने के पश्चात् संसार के सुख-भोग इसे सारहीन प्रतीत होने लगते है। जीवन के सही प्रयोजन को जानने की अभीप्सा इसके अंदर जागती है, तब यह बहिर्मुख वृति का त्याग करती है। पदार्थों के अंतर्निहित सत्य की ओर मुड़ती हैं। सनातन सत्य की खोज, शाश्वत वस्तुओं की प्राप्ति, अपने जीवन-लक्ष्य के रूप में चुनती है।
समर्पित जीवन
बहुत देर में हमें यह बात समझ में आती है कि अत्याधिक कर्म करना, अत्याधिक पढ़ना-लिखना, परोपकार या सेवा आदि में अत्याधिक व्यस्त रहना, शरीर और उसके व्यापारों की आवश्यकता से अधिक चिंता करना, अपनी उन्नति के लिए परेशान रहना, ये सब बातें साधना में बाधक है। इन सब बातों को जीवन में आवश्यकता के अधिक महत्व प्रदान करने का अर्थ है, जीवन को अपने ढ़ग से चलाना। जिसका व्यावहारिक रूप है जीवन की बागडोर अहंकार के हाथों में थमा देना। जीवन का यह स्वरूप, जिसमें मन की कामनाएँ और अहंकार की मांगें ही चालक प्रेरक है, ठीक वही नहीं है जो हमारे हृदयेश्वर चाहते है। एक समर्पित व्यक्ति का जो भाव होना चाहीए, उससे हम दूर है। हमें अभी और सचेतन बनाना है, और अधिक श्रद्धा से प्रभु को पुकारना है, और तब तक ऐसा करते जाना है, जब तक प्रभु हमें पूर्ण रूप से स्वीकार न कर लें। हम अपनी ओर से पूर्ण:त उसके न हो जाए, हमारे अंदर जीवन स्वामी के रूप में वे ही जीवन का संचालन न करने लगें। अर्थात जब तक पूर्ण रूप से उसके हाथों की मुरली न बन जाए, तब तक अधिक से अधिक सचेतन और समर्पित होकर चलने की आवश्यकता है।
श्रद्धावान लभते
मनुष्य भगवान को प्राय: भूले रहते है। वे उनका सतत स्मरण नहीं करते। उनकी सहायता, उनका पथ-प्रदर्शन पग-पग पर नहीं खोजते। वे उन्हें मानते तो है लेकिन भगवान एक पिता की भाँति, एक मित्र की भाँति आकर सहायता कर सकते है, यह विश्वास उनमें नहीं है। हो भी कैसे भगवान दिखते नहीं है। लेकिन अनुभव कहता है कि उनका होना संसार के प्राणियों और वस्तुओं से अधिक जीवंत और ठोस है, उनसे कही अधिक समीप है। भगवान सब संबंधों से हमारे अपने है। वे पिता है जो पुत्र को अपनी ही आत्मा का अंश मानकर प्रेम करते है, वे माँ है जो अपनी संतानों को हृदय में रखती है वे सखा और मित्र है और अपने मित्र-धर्म को निभाने में सर्वदा तत्पर रहते है। हम उनसे सब प्रकार की आशाएँ रख सकते है, जबकि वे हमसे केवल एक ही आशा रखते है, हम उनमें, उनकी सहायता में श्रद्धा रखें।
साधन-सोपन
साधन-सोपन का पहला पग दृढ़ और स्थायी रूप से जमाने के लिए हमें अपनी सत्ता  में, अपनी चेतना में, अपने स्वभाव में एक निश्चित परिवर्तन लाना है। अहंकार से चालित जीवन के स्थान पर एक अंत: प्रेरित जीवन, प्रभु को समर्पित जीवन यापन करना है। जो भाव हमें निम्न प्रकृति से, कामनाओं के स्तर से, इंदियों की दासता से उपर उठा दे, उस भाव को खोजना और अपनाना हैं। हमें हृदयेश्वर की शरण ग्रहण करनी होगी। जीवन-नौका की पतवार उनके हाथों में सौंप देनी होगीं। इन भावों में हम अपने अंतस्थ देव के प्रभाव में होते हैं और हमें उनकी कृपा, उनकी सहायता स्वत: प्राप्त होती है। हम साधना पथ पर निर्बाध गति से आगे बढ़ते है। जीवन-पुष्प जब प्रभु-चरणों मे चढ जाता है, हमारा दायित्व समाप्त हो जाता है। तब प्रभु-आदेश-पालन ही हमारा जीवन और उसका अर्थ रह जाता है। धरती पर हमारे लिए वही नये क्षितिजों को खोलता और उनका विस्तार करता है।
जब हम पुरी सच्चाई के साथ विनीत भाव में, अपनी जीवन-तरी को इस दिव्य पुरूष के हाथों में छोड़ देते है तो हमारा जीवन, जीवन का हर क्षेत्र चमत्कारमय हो जाता है। एक महानता हमारे अंदर उद्घटित हो जाती है, उसका अनावरण हो जाता है, जो जीवन को पूर्णत: दूसरे स्तर पर, एक अधिक विशाल, भव्य और माधुर्य भरे आध्यात्मिक स्तर पर उठा देती है। एक अलौकिक क्षमता हमें प्रदान की जाती है जो निर्भार्न्त  पगो से, निर्भूल  दृष्टि से, जीवन -मार्गों पर चलने में सहायक होती है।
मैं कौन?
मेरी भुल यही थी कि मैं अपने आप को शरीर समझता रहा, जिसमें जगत के साथ व्यवाहार करने के लिए कुछ इंद्रियाँ है। या फिर मैं अपने आप को मन समझता रहा और हर विचार को कामना को अपनी समझकर उसी के पीछे चलता रहा। या फिर मैं कुछ भाव-भावनाओं से भरे हृदय को लेकर जीवन-पथ पर बढ़ता रहा और उनकी पुर्ति को ही मनुष्य का सम्पुर्ण जीवन, उसका एक मात्र लक्ष्य समझता रहा। इस प्रकार कुछ विचार, भावनाएँ, ही मेरी चालक बनी रहीं और इनकी पूर्ति ही मेरा जीवन तथा कर्म।
इस सबके उपर गहरे और प्रकाशपुर्ण आत्म-मनन के द्वारा मैं यहाँ पहुँचा हूँ, जहाँ देख सकता हूँ कि मैं यंत्र नहीं, यंत्री हूँ, इस समस्त जीवन-व्यापार का स्वामी हूँ। एक चेतन आत्मा इस सबके पीछे है, मेरे भीतर है, वही मैं हूँ।
जाग्रत आत्मा
जिनके अंदर आत्मा जाग्रत है, जिनके जीवन का लक्ष्य सुख-भोग नहीं, जो मानव मात्र के जीवन का स्तर उँचा उठाना चाहते है, दूसरों को दुख-कष्ट से मुक्त करना चाहते है, वे सौभाग्यशाली है, भागवत कृपा उनके साथ है। वे पृथ्वी पर प्रभु के चुने हुए, उनके अपने प्रियजन है, उनकी अपनी प्यारी संतान है। इनका जीवन कभी अपने लिए नहीं होता। ये दूसरों के लिए, जगत के लिए, मानवता के लिए, मानवता के लिए जीते है।
जीवन के प्रारंभिक काल में, जब इनकी यांत्रिक सत्ता तैयार नहीं होती, इनके हृदय का आवरण नही गिरता, इनकी आत्मा सम्मुख नहीं आती और जीवन को अपने हाथों में नहीं ले लेती, इन्हें भी आत्म-अज्ञान से गुजरना पड़ता है। इनमें भी अहंकार होता है, कामनाएँ उठती है, वासना जाल बुनती है, सुख-भोगों की इच्छा के बादल इनके उपर भी मंडराते है। लेकिन, इनके भीतर कोई सचेतन होता है, और जीवन-घटनाओं में हस्तक्षेप करता है। इनकी अंतर्सता  इनमें विवेक-दीप प्रज्वलित करती है। जगत और जीवन के प्रति इनका दृष्टिकोण परिवर्तित हो जाता है। जब तक ये लक्ष्य के प्रति सचेतन नहीं होते, इनकी कोई  इच्छा पूरी नहीं की जाती। कभी-कभी तो इनके सुख के साधन भी छीन लिये जाते है। जब तक ये उसी दिशा में अभिमुख नहीं हो जाते जो दिशा इनके लिए भगवान ने चुनी है। ये ठीक वही नहीं करते जो कि अंतस्थ प्रभु की इच्छा है। ये ठीक वहीं नहीं चाहते जो कि सृष्टिकर्ता इन्हें प्रदान करना चाहते है। इनकी अभीप्सा और आत्मा का संकल्प एक और अभिन्न नहीं हो जाते। तब तक सुख नाम की वस्तु इनके लिए नहीं हैं तृप्ति इन्हें प्रदान नहीं की जाती, संतृष्टि इनसे दूर रखी जाती है। मुस्कान छीन ली जाती है, इन्हें सब कुछ तभी प्राप्त होगा, जब इनका अस्तित्व भागवत अस्तित्व के साथ युक्त हो जायेगा, जब ये प्रभु को पूर्ण रूप से समर्पित हो जायेंगे, उनमें रहेंगे और वे इनमें निवास करने लगेंगे।

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