जो व्यक्ति बुद्धिमान है तत्वज्ञानी है
और र्इश्वर भक्त है वह सुख दुख को ही अपने कर्मो का फल समझता है और र्इश्वर की
न्याय व्यवस्था मान कर चुपचाप भोग लेता है, शिकायत
नहीं करता क्योंकि एक तो शिकायत करना कृतध्नी होना है, नाशुक्रा और अहसान फरामोश होना है।
भक्त कभी भगवान से शिकायत नहीं करता बल्कि हमेशा हर हाल में उससे राजी रहता है, उसके प्रति अहोभाव से भरा रहता है। सुख
मिले तो सुख, दुख मिले तो दु:ख, सब अपने ही कर्मो का फल मानकर स्वीकार
कर लेता है। ऐसा करने का लाभ भी है। अपने कर्मो का फल सहजता, सरलता और धीरज के साथ भोग लेने से उस
कर्म का फल भुक्त और क्षीण हो जाता है, पीछा
छुटा। यदि उसी फल को दु:खी होकर, हायकलाप
करके शिकायत करते हुए भोगा तो आगे के लिए फिर दु:ख के बीज बो लिए। संत, तपस्वी, महात्मा और सज्जन व्यक्ति इसीलिए तो बड़े सहज भाव से दु:ख व कष्ट उठा
लेते है और अपने अशुभ कर्म क्षीण कर लेते है। दुनिया उन्हें देखकर आश्चर्य करती है
कि ऐसा संत, महात्मा या सज्जन व्यक्ति भी इतना कष्ट
कैसे और क्यों उठा रहा है। उसे तो अच्छा आचरण करने के लिए सुखी होना चाहिए।
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एक ऐसे भविष्यवक्ता थे जा सबका सही भविष्य
बताते थे। दो मित्र उनसे अपना भविष्य पूछने गए। एक से उन्होंने कहा-एक महीने
बाद मृत्यु हो जाएगी और दूसरे से कहा एक महीने बाद राजा बनोगे। दोनों बड़ा विश्वास
लेकर घर लौट गए।
जिसे मरना था उसने अपने को सत्कर्मो से
लगा दिया। पुण्य-परमार्थ में निरत रहने लगा, ताकि
अगले जन्म में काम आए। दूसरे ने सोचा-जब कुछ ही दिनों में राजा बनना है तो जो हाथ
में है, उसे मौज से क्यों न उड़ाएँ? वह अहंभाव मदिरा पीने लगा। महीना बीत गया। एक के पैर में में चोट
लगी और वह मरहम-पट्टी से अच्छी हो गर्इ। दूसरे को स्वर्ण मुद्राओं की थैली रास्ते
पर पड़ी मिली। पर वह भी मदिरापान में खर्च हो गर्इ। महीना बीतने पर भी वे ज्योंके
त्यों थे। कारण पूछने के लिए भविष्यवक्ता के पास फिर दोनों गए।
उन्होंने कहा-कर्म से प्रारब्ध बदल
सकता है। पुण्यात्मा ने सत्कर्मरत होकर मृत्यु की विषमता को चोट के हलके रूप में
बदल डाली और राज्य पाने वाले के मदिरापान ने
उसे स्वर्ण मूद्राओं में घटाकर समाप्त कर लिया। भाग्य विधान है तो, पर उसे कर्म द्वारा बदला भी जा सकता
है।
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