एक बार एक सेठ ने दो विद्वानों को भोजन
पर आमंत्रित किया। समय पर दोनों विद्वान पधारे, तो
सेठ ने उनका स्वागत किया। उनको आदर से आसन पर बिठाया। उनमें से एक विद्वान जब
स्नान करने के लिए गए, तो सेठ ने दूसरे विद्वान से कहा, महाराज। ये आपके साथी तो महान विद्वान
मालूम देते है? यह और विद्वान? क्या बात करते हो सेठ जी यह तो निरा
बैल है बैल। विद्वान ने उत्तर दिया। सेठ जी को बहुत बुरा लगा, किन्तु वह चुप ही रहा। पहले विद्वान जब
स्नान करके वापस आए, तो दूसरे विद्वान स्नान करने के लिए
गए। सेठ जी ने उनसे भी वही प्रश्न किया, महाराज
आपके साथी तो महान विद्वान लगते है? विद्वान
बोले, सेठ जी किसने बहका दिया आपको? वह तो निरा गधा है गधा। सेठ इस समय भी
मौन ही रहा। जब भोजन का समय आया, तो
सेठ ने चाँदी की थाली में ढककर एक विद्वान के आगे घास रख दी और दूसरे के आगे भूसा
रख दिया। दोनों के बैठने पर सेठ जी ने निवेदन किया कि भोजन प्रारंभ कीजिए।
विद्वानों ने जब ढक्कन उठाया, तो
उस भोजन को देखकर दोनों विद्वान क्रोध से तमतमा उठे। बोले, हमारे अपमान का आपमें साहस कैसे हुआ? सेठ जी ने हाथ जोड़कर नम्रता से कहा, महाराज, मैंने तो आप लोगों के कथन के अनुसार ही आप लोगों के सम्मुख भोजन
परोसा है। आपने इनको बैल बताया था और इन्होंने आपको गधा बताया था, सो वैसा ही भोजन मुझे मँगाना पड़ा।
इसमें मेरा क्या दोष है? विद्वानजी, मैं तो आप दोनों को ही विद्वान समझता
था, इसलिए आमन्त्रित किया था, किन्तु वास्तविकता का ज्ञान तो आप
लोगों से ही प्राप्त हुआ है। सेठ की बात सुनकर दोनों विद्वान मन-ही-मन लज्जित हुए।
परस्पर ईर्ष्या का परिणाम अच्छा नहीं होता। स्वयं यदि
प्रतिष्ठा प्राप्त करनी हो तो अपने योग्य साथियों को भी प्रतिष्ठित करना होगा।
ईर्ष्या से जहाँ मानसिक अशान्ति रहती है, वहाँ साथ ही अपमान भी होता है।
ईर्ष्या एक धीमी आग है जो मनुष्य को बुरी
तरह जला डालती है।
No comments:
Post a Comment