प्रसिद्ध है कि जिस मनुष्य का मन
बिगड़ता है, उसका स्वभाव भी बिगड़ जाता है। असयम, असत्य, अभिमान, ईर्ष्या , दम्भ, का्रेध, हिंसा और कपट आदि दुर्गुण ही बिगड़े
स्वभाव के लक्षण है। ये सूक्ष्म रोग है। दु:स्वभाव वाला व्यक्ति इन्द्रियों के तेज
और शक्ति को खो बैठता है और शरीर को भी रोगी बना देता है। अब यहाँ किसी दोष से कौन
सा रोग होता है, थोंड़ा इस पर विचार कर लें।
(1) असंयम- जीभ को असंयमी रखने से वह चाहे जैसे
स्वाद में रस लेने लगती है और चाहे जितना खाने को आतुर रहती है। परिणामस्वरूप पेट
में अधिक अयोग्य भोजन चला जाता है। और वह पेट या अँतड़ियों में रोग उत्पन्न करता
है। इसी प्रकार जीभ के असंयमी होने पर यदि वह चाहे जैसी वाणी उच्चारण करे तो जीभ
द्वारा संबधित मस्तिष्क के ज्ञान तंतुओं को हानि पहुँचती है। और कुछ समय पश्चात्
जीभ कैंसर या लकवा हो जाने की स्थिति में पहुँच जाती है। यह देखकर हमें भी सिखाना
चाहिए। इसी प्रकार शरीर की समस्त इन्द्रियाँ भी असंयमी व्यवहार से अनेक प्रकार के
रोगा उत्पन्न करती है।
(2) असत्य- असत्य बोलने वाले व्यक्ति की शक्ति
नष्ट हो जाती है। और वह सामान्य रोग का शिकार हो जाता है। जीवन शक्ति का आधार ‘तेज’ है और वह ‘तेज’ असत्य से नष्ट हो जाता है। असत्य बोलने वाला तेजहीन हो जाता है। साथ
ही असत्य वाणी बोलने से हृदय और मस्तिष्क के ज्ञान तन्तुओं की हानि होती है। कुछ
समय पश्चात् वह हृदय के रोग, पागलपन, पथरी, लकवा आदि रोगों से भी दु:खी हो जाए तो कोई आश्र्चय की बात नही।
(3) अभिमान- मनुष्य में वात, पित और कफ तीनों को एक साथ सन्निपात के
रूप में उतपन्न करने वाला अभिमान है और इसी से किसी कवि ने कहा है। कि ‘पाप-मूल अभिमान’। यह अभिमान ही मनुष्य के दुगुणों का
राजा है और सब दोषों तथा रोगों को करने वाला बलवान लोहे का चुम्बक है। अभिमानी
व्यक्ति वात, पित और कफ के छोटे बड़े रोगों से दुखी
रहते है।
(4) ईर्ष्या- ईर्ष्या करने वाले मनुष्य में पित्त
बढ़ जाता है, जिससे मनुष्य की इन्द्रियों की
तेजस्विता नष्ट हो जाती है। ऐसे मनुष्य के बुद्धि और हृदय पित्त के तेजाब में जल
जाते है। एवम् वह किसी भी काम में प्रगति नहीं कर पाता। ऐसे मनुष्य पित्त, पथरी, जलन, लीवर की खराबी आदि रोगों से दु:खी रहते
है।
(5) क्रोध- बिगड़े हुए मन की कामनाओं से पूर्ण न
होने से अथवा उनमें विध्न आने से क्रोध उत्पन्न होता है। कोई मनुष्य दूसरे की हानि
कर सकेगा या नहीं वह तो दैवाधीन है, परन्तु
सर्वप्रथम वह स्वंय की भी हानि करता ही है। क्रोध करने में मनुष्य के मस्तिष्क को
अपनी बहुमूल्य एवम् अधिक ओज शक्ति को उपयोग करना पड़ता है। इस प्रकार अमूल्य ओज
नष्ट हो जाता है। परिणामस्वरूप जीवन शक्ति नष्ट होती चली जाती है। तदुपरान्त क्रोध
के मस्तिष्क में आते ही ओज के विशाल एवं विकृत प्रवाह से मस्तिष्क के ज्ञान तन्तु
क्षीण हो जाते है। बिजली का प्रवाह घर में लगे हुए बल्ब को पारिमाणिक मात्रा में
आने पर तो जलाता है परन्तु अधिक मात्रा में आने पर बल्ब को नष्ट कर देता है।
कभी-कभी तो घर को भी हानि पहुँचाता है। इसमें रक्षा पाने के लिए घर के बाहर फ्यूज
की व्यवस्था की जाती है। संयम और विवेक ही हमारे फ्यूज है। इन्हें त्याग देने पर
ओज का अत्याधिक प्रवाह क्रोध के रूप में उत्पन्न हो जाता है। और मस्तिष्क के कितने
ही भागों को जोखिम में डाल देता है। बल, बुद्धि भी धीरे-धीर क्षीण होने लगते
है।
(6) हिंसा- हिंसा क्रोध और अभिमान के उतपन्न होती
है। इसमें प्रवृत रहने वाले व्यक्ति का रक्त सदा खौलता एवं गर्म रहता है। हिंसा
में मस्तिष्क और हृदय दोनों गंदे होते है। अभिमान और क्रोध से उतपन्न रोगों के
उपरान्त ऐसे मनुष्य में हृदय से उतपन्न रोग भी होते है। पराया दु:ख देखकर जो हृदय
एकदम नरम बनकर द्रवित होने लगता है, वहीं
हृदय अपने दु:खों के सामने वज्र जैसा भी बन जाता है। यह हृदय की सत्य और वास्तविक
स्थिति का गुण है। हिंसा वाले मनुष्य में हृदय के ये गुण नष्ट हो जाते है। वह
लोगों का दु:ख देखकर हँसता है और अपने ऊपर दु:ख आने पर निम्न श्रेणी का भीरू बन
जाता है। तत्पश्चात हृदय में और सम्पूर्ण शरीर में गर्म रक्त भ्रमण करने से शरीर
में वात-पित्त-कफ उत्पन्न होता है।
(7) छलकपट- कपट करने वाला व्यकित भी सूक्ष्म रूप
से हिंसा ही करता है। पंरतु उसकी हिंसा करने की युक्ति मायामय-कपटमय होने से दिखाई
नहीं देती। वह साधारण विष जैसी होती है। इससे ऐसे मनुष्य भी ऊपर
वर्णित हिंसा वाले व्यक्ति के समान ही रोगों के शिकार बन जाते है। उसे जिस रोग का
दण्ड मिलता है, वह धीरे-धीरे असर करने वाले विष के
समान ही होता है।
(From: Yog Manjiri Magzine)
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