हमारे लिए यह जरूरी है कि हम श्रद्धा
और विश्वास से आगे बढ़ते चले। जो हालात सामने आएँ, उनका हिम्मत से डटकर मुकाबला करना चाहिए। हमारी सोच सकारात्मक रहनी
चाहिए। आओ, देखें कि सकारात्मक सोच के क्या फायदे
है।
एक उदाहरण लेते है दो भाईयो का- एक बड़ा निराशावादी है और दुसरा बहुत आशावादी।
पहले भाई ने कार खरीदी। दूसरे भाई को थोड़ी ईर्ष्या हुई, पर उसने तुरंत अपने स्वभाव के अनुसार
इन नकारात्मक विचारों को एक तरफ कर दिया और सोचने लगा कि देखो, जब तक मैं भी कार ले पाउँ, तब तक दोनों भाईयों में से एक के पास
तो कार है न। यही बात उसने अपने भाई को कही भी। निराशावादी भाई अगले दिन कही जा
रहा था, तो वह सोचने लगा कि मेरे भाई ने मुझसे
कार लेकर कहीं टकरा दिया,
तो क्या होगा। नुकसान तो होगा ही, कहीं किसी पदयात्री को मार दे, तो उसमें मेरा भी दोष होगा, क्या मैं भी गिरफ्तार हो जाउँगा, आदि तमाम दुनिया के उल्टे-सीधे विचार
उसके अन्दर भर गए। यह सोचने में उसका ध्यान गाड़ी चलाने से हट गया और उसने अपनी
कार बिजली के खम्बे से टकरा दी। उसे भी कुछ चोट आई और कार को भी काफी नुकसान हुआ।
इसके बाद निराशावादी ने सोचा कि यह कार मेरे लिए मनहुस है। उसने यह सोच कर कार को
ठीक करवाया और औने-पौने दाम पर उसे बेचना चाहा। उसके भाई न यह देखकर कि मेरे भाई
का नुकसान हो रहा है, वह कार निराशावादी से खरीद ली ताकि कार
घर में ही रह जाए। आशावादी ने वह कार सालों तक ठीक से चलाई। तो, इससे क्या समझते हो? निराशावादी की क्या गलती थी? उसकी गलती यह थी कि वह हर बात की
चिन्ता करता था, हर बात के भविष्य में हो सकने वाले
नतीजों को इतना आगे तक घसीटकर ले जाता था कि वह अपने वर्तमान को उचित समय नहीं दे
पाता था। जब आदमी का ध्यान इतना आगे सोचने में हो, तो उसे तुरंत सामने क्या है वह नहीं दिखता। ऐसा आँखों में, पास की नजर खराब होने (Myopi) जैसा है। बहुत दूर की चीजें तो दिखती
है, पर एकदम सामने की नहीं दिखतीं। ऐसे
निराशवाद से क्या लाभ? मानव जीवन के किसी भी पड़ाव पर अधिकतम
जो उसे निशिचत रहता है, वह उसका वर्तमान ही है, इससे अधिक कुछ नहीं। अगला पल ही उसका
अंतिम पल भी हो सकता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए हमें अपना अधिकांश समय अपने
पूर्व इतिहास या भविष्य में न लगाते हुए वर्तमान में केंद्रित करना चाहीए। समझे? हम
यह नहीं कह रहे कि आप अपने अतीत को भुला दो, या
भविष्य के लिए कोई योजना न बनाओ, परंतु
सिर्फ यह कि अपना मानसिक सन्तुलन एवं मात्रात्मक सन्तुलन सही (Balance of propoetion) रखो। जब किसी कठनाई के भविष्यलक्ष्मी
प्रभावों (Furture
Effects) पर
विचार कर रहे हो, तो इनका उपयोग अवश्य करो।
सकारात्मक सोच (Positive Thinking) के बहुत सारे लाभ है। तुम लोगों ने तो
इस संबंध में किताबें भी पढ़ी होगी। हमारे हिसाब से तो इसका सबसे बड़ा लाभ मन की
शांति है। दिमाग नाहक ही सब तरफ नहीं भागता। अत: अपने में सकारात्मक सोच की आदत
ड़ालो और देखो कि तुम किस ऊँचाई तक पहुँच सकते हो। यह तुम्हारी क्षमता को कई गुना
बढ़ा देता है। यह इतना लाभकारी गुण है कि उसके प्रति उदासीनता नहीं बरतनी चाहीए।
हमें इस ओर सतत कदम बढ़ाते हुए अपने जीवन को सुधारते चलना चाहिए।
सकारात्मक सोच कैसे बने?
सकारात्मक सोच जीवन को उर्जा से भर
देती है। इससे जीवन में विकास के नए आयाम अनावृत होते है। यह सोच नवीन आशा, उत्साह एवं उमंग का संचार करती है, परन्तु नकारात्मक सोच हमारी संचित
उर्जा का बुरी तरह शोषण करती है यह सोच प्रतिपल, प्रतिक्षण एक चूभन एक दर्द पैदा करती रहती है। हम सकारात्मक एवं
नकारात्मक सोच में भी फर्क करना जानते है, पंरतु
हम सदा नकारात्मक सोच से साथ ही चिपके रहते है और इसे अपने जेहन में चिपकाए रहना
अधिक पंसद करते है। नकारात्मक सोच को प्रश्रय देने का तात्पर्य है अपने बेशकीमती
उर्जा भंड़ार में सेंध लगाने देना।
नकारात्मक सोच हमारी उर्जा को चूस लेती है, हमारी
शक्ति को तहस-नहस कर देती है और हम दुर्बल, अक्षम
एवं अशक्त हो जाते है। हमारे अंदर जितनी अधिक नकारात्मकता होगी, हम उतने ही अशक्त एवं उर्जाहीन होगें, क्योंकि नकारात्मक सोच की जड़ हमारे
प्राणिक संस्थान तक पसरी रहती है। जैसे-जैसे हम इस सोच की गिरफ्त में आते जाते है, वैसे-वैसे इसकी जड़ हमारे प्राणिक
संस्थान से प्राण को शोषित करने लगती है। और हम प्राणहिन होते जाते है। प्राण की
कमी हमें दीन-हीन व दुर्बल बनाती जाती है।
नकारात्मक सोच से हमारे अंदर शक, संदेह, भ्रम एवं अविश्वास का भाव पैदा होता है और धीरे-धीरे यह हमारे
संपूर्ण व्यक्तित्व को आच्छादित कर लेता है। ऐसा व्यक्ति किसी चुनौती का सामना
नहीं कर सकता, वह भागकर बचने की राह अपनाता है। अब
प्रश्न उठता है कि कैसे इन नकारात्मक विचारों से निजात पाई जाए? कैसे इनसे बचा जाए? ऐसी कौन सी तकनीक है, जिसका प्रयोग करके इस सर्वनाशी मंजर से
उबरा जा सके, पार पाया जा सके? इसके लिए मानवीय मन के मर्मज्ञ आसान सा
समाधान देते है। इनके अनुसार जब हमारे अंदर ऐसे नकाराकत्मक भाव या विचार पैदा हों, तो उस पर ध्यान देना बंद कर देना चाहिए, इसकी उपेक्षा कर देनी चाहिए। हालाँकि
यह प्रक्रिया इतनी आसान नहीं है, जितना
सोचा जाता है, परंतु यह असंभव भी नहीं कि इसे किया ना
जा सके। नकारात्मक भाव या विचारों पर ध्यान ना देना या उपेक्षित कर पाना आसान नहीं
है। क्योंकि इतनी तीव्रता एवं वेग भीषण आँधी के समान होते है, पल भर में यह तबाही का मंजर खड़ा कर
देते है। मन में वासना का आवेग आते ही विचार एवं शरीर दोनों में इसका प्रभाव
दृष्टिगोचर होने लगता है। जब ऐसे विचार उठते है तो हम सबसे पहले उनको न उठने देने
के लिए भारी-भरकम दबाव बनाना प्रांरभ कर देते है, परंतु इनको दबाना अति दुष्कर एवं असंभव कार्य है, क्योंकि वासनात्मक विचारों में
संस्कारों का बल होता है,
जो कि किसी भी भीषण चक्रवात से भी भीषणतम
होता है। ऐसी स्थिति में हम जब इन विचारों
का दमन करते है तो हो सकता है कि हम कुछ देर के लिए सफल भी हो जाएँ, तो भी इससे आंतरिक विक्षोभ एवं उद्वेग
पैदा होता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि
दो विचारों के बीच संघर्ष छिड़ जाता है और जिसका प्रभाव हमें अशांति, उद्वेग, घुटन एवं बेचैनी के रूप में प्राप्त होता है। ऐसे नकारात्मक विचार तो
हमारी परीक्षा करने के लिए ही उठते है, जिनकी
जडे़ बड़ी गहरी होती है इन्हें उखाड़ फैकने का मतलब है हमारे अस्तित्व को चुनौती
देना, जो कि संभव नहीं है। अत: इनके साथ हमें
उठापटक नहीं करनी चाहिए और न ही उनके उठने देने के विरूद्ध दमन करना चाहिए, बल्कि इन बात पर ध्यान देना बंद कर
देना चाहिए। अपना संपूर्ण ध्यान इनसे हटाकर किन्ही अन्य सकारात्मक विचारों में
टिका देना चाहिए, जिन्हें की हम पंसद करते हो और जो
हमारी अभिरूचि के हों। जैसे यदि मन में नकारात्मक विचार उठने लगे तो हमें अपने मन
को किसी झील-झरना, वन उपवन या किसी सुखद घटना जो कि हमें
सुकून एवं शांति प्रदान करें, में
लगा देना चाहिए और ऐसा करने में हम सफल हो जाते है तो नकारात्मक विचार धीरे-धीरे
स्वत: गिरने लगेगें और हमें परेशान नहीं करेगें। अत: नकारात्मक विचारों को सदा ही
उपेक्षित कर देना चाहिए। क्योंकि नकारात्मक विचारों को उपेक्षित कर देने पर इनको
उर्जा मिलना बंद हो जाती है। ये विचार हमारी उर्जा धारा से विलुप्त हो जाते है और
धीरे-धीरे निस्तेज एवं निष्क्रिय होने लगते है, पंरतु
जैसे ही हम इन्हें स्थान देने लगते है, तो
मानसिक उर्जा की धारा इनकी ओर बहने लगती है। यह तो ऐसा हुआ कि हम चोर को अपनी लाठी
सोंपकर निहत्था लड़ने लगते है चोर तो हमें पटखनी देगा ही। ठीक इसी तरह नकारात्मक
विचारों को तबज्जो देन का तात्पर्य है। उनकी क्रियाशीलता एवं शक्ति में अभिवृद्धि
करना, पंरतु उन्हें उपेक्षित कर देने का मतलब
है किसी मछली को जल से बाहर फैकें देना। नकारात्मक सोच से बाहर निकलना हो तो
सकारात्मक सोच को प्रश्रय देना चाहिए। सकारात्मक सोच बढ़ाने के लिए स्वाध्याय करना
चाहिए। स्वाध्याय से मन शुभ एवं सद्विचारों की उर्जा से भर जाता है। मनन एवं चिंतन
से मन की क्रियाशीलता बढ़ती है और श्रेष्ट विचारों को आकर्षित करने का माध्यम बन
जाता है। सकारात्मक सोच एवं विचार हमारे मानसिक एवं प्राणिक संस्थान को बल देते है, जबकि नकारात्मक सोच इनको ध्वस्त कर
देती है। अत: हमें जीवन में सकारात्मक सोच, विधेयात्मक
दृष्टिकोण को स्थापित करने के लिए स्वाध्याय का सहारा लेना चाहिए एवं सतत विकास के
पथ पर आरूढ़ रहना चाहिए।
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