Tuesday, September 25, 2012

स्वामी विवेकानंद और श्री रामकृष्ण परमहंस

मैं तुझमें, तु मुझमें !
आ बाँट ले सारी कायनात अपनी,
एक तु मेरा, बाकी सब तेरा।
प्रेम की शर्त यही है। वह सिर्फ ‘‘एक’’ से होता है। और उस एकसे इस कदर होता है कि किसी दूसरे कके लिए जगह ही नहीं बचती। स्वंय अपने लिए भी नहीं। प्रेमी और प्रेमपात्र इस एकमें लय हो जाते है। यही प्रेम का विज्ञान हैं। सदा से रहा है और सूरज के चमकने तक रहेगा। नरेन्द्र (स्वामी विवेकानंद) ने भी तो अपने ठाकुर (श्री रामकृष्ण परमहंस जी) को इसी शिदत से चाहा था। यह उन दिनों की बात है, जब ठाकुर ने गले में कैंसर होने की लीला की। क्यों की? यह तो वो ही जानें। या फिर वह जाने, जिसे वे जनाएँ। पर जो भी हो, नरेंद्र के लिए यह बड़ी विकल घड़ी थी। ठाकुर का कष्ट बढ़ता ही जा रहा था। एक निवाला तक कंठ से नीचे नहीं उतर रहा था। अब तो ढाई दिन बीत गए थे, जब से ठाकुर उपवास पर थे। किसी सेवा कार्य से लौट कर नरेंद्र ने गुरू भाई लाटू से पूछा-क्या आज सुबह से ठाकुर ने कुछ खाया? लाटू-नहीं भईया , आज भी ठाकुर को बहुत खांसी हो रही है। कुछ भी बनाकर ले जाता हूँ, वो छूते तक नहीं है। नरेन्द्र के सीने में दर्द की गांठ बंध गई । कसमसाता हुआ बोला-ऐसे ही नहीं खाएँगे? यह भी भला कोई बात हुई चल तो जरा मेरे साथ!दोनों गुरू भाई रसोइघर में पहुँचे! खूब सारा पानी ड़ालकर दलिया आँच पर चढ़ा दिया। ताकि वह बिल्कुल तरल बने। थोड़ा-सा नमक डाला। फिर नरेंन्द्र अपने हाथों से उसे घुमाता और घोटता रहा। इतना घोटा कि दलिए के दाने अपनी दानेदारी ही खो बैठे और मक्खन-मलाई से घुल गए। पात्र में डालकर नरेंद्र ने यह दलिया लाटू को सौंप दिया। कहा-जा लाटू हर यत्न से तू ठाकुर को इस दलिए का भोग लगवाकर ही आएगा। लाटू भाप उड़ाता हुआ, दलिए को लेकर सीधे ठाकुर के कक्ष में पहुँचा। नरेंद्र भी दबे पाँव जीछे गया और कक्ष के बाहर खिड़की से छिप-छिप कर झाँकने लगा। लाटू- चरण-वंदन, ठाकुर। यह पतला-सा दलिया है। दया कर, इसे ग्रहण करें। ठाकुर-(अनमने भाव से)- रख दे, जब लेना होगा, ले लूँगा। लाटू-(विचलित होकर)-अब नहीं, तो कब ठाकुर? ढाई दिन गुजर गए है। मैंने आपको मोटे अन्न का एक निवाला तक ग्रहण करते नहीं देखा। अगर आपकी सेहत थोड़ी-सी भी बिगड़ी न, तो हम बर्राश्त नहीं कर पाएँगे। आपको यूँ
ठाकुर-(हँसते हुए)-यह तेरी भाषा तो नहीं लग रही। बता,बता, किसने तेरे मुँह में यह बोली डाली है? लाटू (शर्माता हुआ)-जी वो जी नरेन्द्र भइया ने ऐसा कहा था। ये दलिया भी उन्होंने बनाया है।
उधर खिड़की के पास खड़ा नरेन्द्र अपना नाम आते ही दुबक गया। दाँतो तले जिह्म आ गई और तंतु-तंतु ठाकुर की प्रतिक्रिया जानने को बेकरार हो गया। उधर ठाकुर ने प्यारी झिड़की लगाई अपनेपन के शहद में घुली हुई।
लाटू, एक तू और एक तेरा वो भाई नरेंदर दोनों के पास क्या और कोई  चिंता या चिंतन नहीं रहा? आश्रम में इतने सेवाकार्य है उन्हें सम्भालों और उस नरेन्द्र से कह दो, मैंने उसे रसोर्इ में कड़छी चलाने के लिए नहीं पाला-पोसा। भला प्रचार कौन करेगा?’ इतना कहते ही ठाकूर का कंठ फड़फड़ानें लगा। तेज खांसी फूट चली।
नरेन्द्र छटपटाता हआ भीतर दौड़ा। ठाकुर की छाती मलने लगा। जब तक खांसी शांत हुई  तब तक नरेन्द्र की आँखों में तरलता आ गई थी। नीचे जमीन पर बैठ गया ओर  ठाकुर के घुटने पकड़कर बोला-मुझे बताओ, अगर अध्यात्म का आधार(ठाकुर)ही नहीं रहेगा, तो मैं प्रचार करके क्या करूँगा? इस आश्रम की आत्मा (याने आप) नहीं रहेगी, तो भला इस बेजान ईट-पत्थर-गारे के भवन को हम संभालकर क्या करेंगे हमें आप चाहिए ठाकुर हमें आपकी जरूरत है। (नरेन्द्र के गले में भावों का फंदा फंस चुका था। इसलिएस आवाज में रूदन साफ सुनाई दे रहा था।) ठाकुर, आपकी स्वस्थ अवस्था हममें प्राण फुँकती है। आपका बिना खासे हँसना बिना खाँसे डाटना ऊर्जा भरी लीलाएँ करना इन सबके लिए हमारा मन तरसता है। आपको यूँ दिन-पे दिन कमजोर होते देखने से हमारा मन दु:खता है। इसलिए दया कर, हमारे लिए, हमारी खुशी के लिए, थोड़ा-सा भोजन ग्रहण कर लीजिए। न मत करना, ठाकुर आपको मेरी सौगन्ध  ठाकुर ने अब एक शब्द भी और कहना उचित नहीं समझा। चुपचाप, सीधे-स्याने बच्चे की तरह दलिए का पात्र उठाया और मुँह को लगा लिया। एक घूंट भरी फिर दूसरी। नरेन्द्र को लगा, जैसे उसके सारे मनोरथ पूरे हो गए। जैसे, ठाकुर ने नहीं उसकी जन्मों से भूखी आत्मा ने कुछा खाया हो। वह टकटकी लगाकर ठाकुर और पात्र को देखता रहा। ठाकुर दूसरी घूँट भर चुके थे। लेकिन यह क्या!! तीसरी घूँट न भर पाए। उससे पहले ही भयंकर खांसी का प्रकोप हुआ। ऐसी खांसी, जो अपने साथ वो दो घूँट दलिया तो बाहर लाई ही  ही साथ ही, खून की धाराएँ भी खींच लाई।
लाटू ने दौड़कर तौलिया ठाकुर के मुख पर लगा दिया। ठाकुर खांसते रहे और उल्टी करते रहे और नरेन्द्र उसकी दशा तो ऐसी हुई, मानो किसी ने एक झटके में शरीर के रोम-रोम से जान ही खींच ली हो। स्वयं को सम्भाल न पाया। बालक की तरह फूट-फूट कर रो पड़ा। इस रूदन की आवाज को दबाने की भी उसने कोशिश नहीं की। बेधड़क रोया बिना किसी परवाह के रोया फफक-फफक के रोया। उसके रोने को, उसके दर्द को वही प्रेमी दिल समझ सकते है, जो शिष्यत्व के सांचे में ढले है। वही जान सकते है कि उस दिन नरेन्द्र पर क्या गुजरी होगी! उसके आँसू क्या कह रहे थे-
कैसे बताऊँ तुमको कि तुम मेरे लिए क्या हो,
मेरा जीवन, मेरे सब कुछ, तुम मेरे खुदा हो।
तेरी इक तकलीफ पर, दिल जार-जार रोता है,
गुजरता है तु जब किसी दर्द से, मेरा जख्मी दिल हरा होता है,
कैसे कहूँ तुझसे कि तेरे दर्द को देख, मैं किस तरह जीता हूँ।
होठों पे होती है हँसी, पर तेरे दर्द को साँसे बना लेता हूँ।
तुझे बेशक न हो प्यार खुद अपनी ही सत्ता से,
पर तेरे ही नूर रोशन मैं सारी कायनात देखता हूँ।
मुझमे ही रहकर मेरी धड़कनों को चलाने वाले,
तुझमें ही तो मैं अपनी जिन्दगी ढूँढता हूँ।
तुझसे बिछुड़ कर ठाकुर मेरे, मैं जी न पाऊँगा,
जो निकली तेरे होठों से ऐसे आह,
सच कहता हूँ, मैं तेरे चरणों में मर जाऊँगाँ।
ठाकुर की खांसी शांत हुई। अब कक्ष में सिर्फ नरेन्द्र का रूदन मुखर था। ठाकुर थके-हारे से दिख रहे थे, फिर भी मुस्कुरा रहे थे। आँखों से ममता बरस रही थी। एकाएक वे झुके और प्यार से बोले-नरेन्द्र, तुझे वो दिन याद है, जब तू अपने घर से मेरे पास मंदिर में आता थातूने दो-दो दिनों से कुछ नहीं खाया होता था। पंरतु अपनी माँ से झूठ कह देता था कि मूने अपने मित्र के घर खा लिया है, ताकि तेरी गरीब माँ थोड़े-बहुत भोजन को तेरे छोटे भार्इ को परोस दे। है नबोल न, ऐसा ही था न?
नरेन्द्र ने रोते-रोतेहाँ में सिर हिला दिया। ठाकूर फिरर बोलेष तूने अपनी यह युक्ति तुझ पर चलानी चाही थी। यहाँ मेरे पास मंदिर आता, तो चेहरे पर खुशी का मखौटा पहन लेता। हँस-हँस के ऐसे दिखाता जैसे कि बड़ा तृप्त हो। हुँ पर क्या तेरा यह नकली नाटक मेरे आगे चल पाता था? तु चाहे नाट्य-शैली में कितना ही उस्ताद हो, पर मैं भी तो कम नहीं। झट जान लेता था कि तेरे पेट में चूहों का पूरा कबीला धमा-चोंकड़ी मचा रहा है कि तेरा शरीर क्षुधाग्रस्त है। और फिर तुझे अपने हाथों से लड्डू-पेड़े, मक्खन-मिश्री खिलाता था। है ना? बता न?
नरेन्द्र ने सूबकते हुए फिर गर्दन हिलार्इ। अब ठाकुर फिर मुस्कुराए और प्रश्न पूछा-कैसे जान लेता था मैं यह बात? कभी सोचा है तूने?’ नरेन्द्र्र्र सिर उठाकर परमहंस को देखने लगा। अवाक् मुद्रा में! हालाकि होंठ अब भी फफक रहे थे।
ठाकुर-बता न, मैं तेरी आंतरिक स्थिति को कैसे जान लेता था?
नरेन्द्र-क्योंकि आप अंतर्यामी माँ है, ठाकुर।
ठाकुर-अंतर्यामी! अंतर्यामी किसे कहते है?
नरेन्द्र-जो सबके अन्दर की जाने।
ठाकुर-कोई अंदर की कब जान सकता है?
नरेन्द्र- जब वह स्वयं अंदर में ही विराजमान हो।
ठाकूर-याने मैं तेरे अंदर भी बैठा हूँ। हूँ?
नरेन्द्र- जी बिल्कुल! आप मेरे हृदय में समाए हुए है।
ठाकूर-तेरे भीतर में समाकर मैं हर बात जान लेता हूँ। हर दु:ख-दर्द पहचान लेता हूँ। तेरी भूख का अहसास कर लेता हूँ तो क्या तेरी तृप्ति मुझ तक नहीं पहुँचती होगी?
नरेन्द्र-तृप्ति?
ठाकुर-हाँ, तृप्ति! जब तू भोजन खाता है और तुझे तृप्ति होती है, क्या वह मुझे तृप्त नहीं करती होगी? अरे पगले, गुरू अंतर्यामी है, अंतर्जगत का स्वामी है। वह अपने शिष्यों के भीतर बैठा सबकुछ भोगता है। मैं एक नहीं हजारों मुखों से खाता हूँ। तेरे, लाटू के, काली के, गिरीश के,सबके! याद रखना, गुरू कोई बाहर स्थित एक देह भर नहीं है। वह तुम्हारें रोम-रोम का वासी है। तुम्हें पूरी तरह आत्मसात् कर चुका है। अलगाव कहीं है ही नहीं। अगर कल को मेरी यह देह नहीं रही, तब भी जीऊँगा तेरे जरिए जीऊँगा समझा कुछ? मैं तुझमें रहूँगा, तू मुझमें।

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