Friday, September 14, 2012

आखिर यह भी तो नहीं रहेगो।


एक फकिर यात्रा करने गया। रास्ते में किसी गाँव में रात पड़ी तो लोगों से बोला : रात पड़ी है मुझे कहाँ ठहरना चाहिए? है कोई यहाँ धर्मात्मा आदमी? बोले :’’धर्र्मात्मा तो बहुत है, धनी भी बहुत है लेकिन एक शुक्रगुजार व्यक्ति है, उसको लोग शाकिरबोलते है। तुम उसके यहाँ चले जाओ। शाकिर के पास पहुँचा वह फकिर। शाकिर ने बड़ी आवभगत की और अहोभाव से जितनी भी सेवा हो सकती है, दो दिन तक की। फकीर जब यात्रा को आगे निकाला तो शाकिर ने रास्ते में खाने के काम आये ऐसी कुछ सूखी सब्जी, कुछ मीठी रोटियाँ तो कुछ चरपरी रोटीयाँ, कुछ आचार खजुर आदि-आदि बड़े प्रेम से उनको देकर विदाई  दी। फकीर ने कहा :’’ शाकिर जितने तुम धनी हो उतने नम्र भी हो और जितना नम्रता का सदगुण है उतना ही साधुसेवा का भी तुम्हारें पास भण्डार है अल्लाह करे तुम और भी बढो। शाकिर हँसा :’’ यह भी तो कब तक? नहीं रहेगा  फकीर को थोड़ा सा सोचने को विवश होना पड़ा लेकिन फिर याद आया, गुरूदेव ने कहा था किकोई  कुछ गहरी बात कहे तो वाद-विवाद में नहीं पड़ना, देखते रहना। फकीर आगे चला। वह फकीर हज करने गया। जब दो साल के बाद लौटा तो देखा शाकिर का महल, इमारतें, उसकी लम्बी-चौड़ी दुकाने व बाजार सब गायब। उसने किसी से पूछा:’’ यह कैसे हुआ? बोले : बाढ़ आई  थी, उसमें सब बह गया। अब वह शाकिर हमदाद नाम के मुसलमान जमींदार के यहाँ काम करता है भैसें दुहता है, चारा कटता है, ठंडी-ठंडी रात में खेत में पानी पिलाता है। पहले तो शाकिर बड़ा धनी था, अब इस कंगले की बच्चियों की शादी की भी कहीं जमावट नहीं होती। फकिर ने सोचा जिसके घर मैंने आदर सत्कार पाया, वह गरीब हो गया तो क्या है, मुझे जाना चाहिए। हमदाद के नौकर शाकिर ने झोंपड़ी में उस फकीर के लिए चटाई , फटा टाट बिछा दिया, रूखी-सुखी रोटी दी। सुबह को वह साधु जाने को था, उसकी आँखों में आँसू थे। वह बोला :’’ शाकिर अल्लाह ने क्या कर दिया। शाकिर हँसा और बोला:’’ आपने सत्संग में सुना होगा की कोई भी अवस्था सदा नहीं रहती। अमीरी थी उसको याद करके दु:खी क्यों होना और गरीबी है उसको सच्चा मानकर परेशान क्यों होना? यह भी तो चला जाएगा। शाकिर की आँखों में संतुष्टि थी, वाणी में मधुरता थी और हृदय में संतो कें संग का प्रभाव था। फकीर सोचता है मैं तो बाहर से फकीर हुँ लेकिन यह गृस्हथ शाकिर सचमुच मुझे सत्संग के प्रभाव से, गुरूदीक्षा के प्रभाव से भीतर का फकीर है, भीतर का साधु है। मैं चाहता हुँ अब से तुम भी भीतर के साधु हो जाओ। तुम इरादा करो। डेढ-दो साल के बाद फिर अपना रूख यात्रा का बनाया। देखता क्या है वह जमींदार शाकिर जो हमदाद के यहाँ तुच्छ मजदूरी करता था, जिसे रूखी रोटियाँ खानी पड़ती थी, रात भी जागता और दिन में भी मजदूरी करता, वह अब जमींदारों को भी मात कर दें, ऐसा अमीर बन गया है। वार्तालाप से पता चला कि हमदाद को कोई संतान नहीं थी। उसकी जो लम्बी-चौड़ी जमींदारी थी वह शाकिर को दे गया और सोने का देग(पात्र), हीरे-जवाहरात से भरा हुआ चरू जहाँ गढ़ा था वह जगह भी बता दी। पहले की सम्पदा से अभी कई गुना ज्यादा सम्पदा हो गयी। फकीर बोला की हद हो गई शाकिर। तुमने कहा था यह भी गुजर जाएगा। अच्छा है गरीबी गुजर गई डाकिनी। अल्लाह करे तुम ऐसे ही बने रहो। शाकिर हँसा:’’ फकीर बड़े-बड़े अमीरों को, बादशाहों को जो कुछ मिला वह बीत गया मेरा कब तक रहता? क्या यह भी चला जाएगा? या तो यह चला जाएगा अथवा इसको मेरा मानने वाला चला जाएगा। कौन रहता है जहाँ संयोग है वहाँ वियोग है तुमने सत्संग तो सुना होगा न। मैंने संतो के वचन आत्मसात् किये है। हिन्दू धर्म की वेदांती संतों की ज्ञान धारा का हिस्सा ( सत्संग, साहित्य ) लेकर सुफीवाद बना है। तो सुफी संत वेदांती संत की ही बात कहते है सब गुजरता है, उसको जाननेवाला अंतरात्मा शाश्वत है। वही अल्लाह है, वही भगवान है, वही राम है, वही रहमान है। फकीर आगे बढ़ा। यात्रा करके जब लौटा डेढ़-दो साल के बाद तो क्या देखता है, शाकिर का महल तो है लेकिन उसमें कबूतर गुटर-गूँ, गुटर-गूँ कर रहे है।
कह रहा है आसमाँ यह समाँ कुछ भी नहीं।
रोती है शबनम कि नैरंगे जहाँ कुछ भी नहीं।।
जिनके महलों में हजारों रंग के जलते थे फानूस।
झाड़ उनकी कब्र पर है और निशाँ कुछ भी नहीं।।
शाकिर कब्रिस्तान में सोया है। महल खाली बेटियों की शादी हो गयी, बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी है। फकीर सोचता है अरे मनुष्य। तु गर्व किसी बात का करता है?
मत कर भाया गरव गुमा, गुलाबी रंग उड़ी जावेलो।
मत कर भाया गरव गुमान, जवानीरो रंग उड़ी जावेलो।।
उड़ी जावेलो फीको पड़ी जावेलो, रे काला मर जावेलो,
पाछे नहीं आवेलो, मत कर भाया गरव गुमान
धन रे दौलत थारा माल खजाना रे
छोड़ी जावलो रे पलमां उड़ी जावेलो।।
पाछो नहीं आवेलो, मत कर भाया गरव गुमान
क्यों इतराता है और क्यों परेशान होता है। जिसके पास ज्यादा है वह भी नहीं टिकेगा। मेरे पाय मुसीबत है वह भी नहीं टिकेगी। यह मुसीबत में है और मैं मौज में हुँ, लेकिन न मौज रहगी और न मुसीबत रहेगी, उसको जानने वाला दिलबर दाता ही तो रहता है इसको पक्का करले मौज हो जायेगी मौज।
पूरे हैं वे मर्द जो हर हाल में खुश हैं।
मिला अगर माल तो उस माल में खुश हैं।
हो गये बेहाल तो उसी हाल में खुश हैं।
शाकिर तुमने जिंदगी का रहस्य जाना। धन्य है शाकिर तुम्हारा सत्संग। धन्य है तुम्हारे सत्संगकर्ता सदगुरू।। शाकिर। मैं तो फकीर बना लेकिन असली फकीरी तो तेरी जिदंगानी है। तेरी जिंदगानी में असली फकीरी झलकती है। अब मैं तेरी क्रब देखना चहाता हुँ शाकिर। वहाँ पर जाऊँगा, दुआ माँगुगा, फूल चढ़ाऊँगा। गृहस्थ शाकिर, फकीरी को भी फकीरी का संदेश दे, ऐसे फकीर शाकिर की कब्र पर जाऊँगा। वह फकीर शाकिर की कब्र पर गया। क्या देखता है कि कब्र पर लिखा है, आखिर यह भी नहीं रहेगा। फकीर ने सिर पीटा की, हद हो गयी, अमीरी नहीं रहेगी चलो मान लिया। गरीबी नहीं रहेगी चलो मान लिया, बीमारी नहीं रहेगी चलो मान लिया। तंदरूस्ती नहीं रहेगी चलो मान लिया। यह सब बदलता है लेकिन कब्र कहाँ चली जायेगी? कब्र के पत्थर पर लिखवा दिया था, आखिर यह भी नहीं रहेगा। फकीर फिर आगे बढ़ा यात्रा को। जब लौटने लगा तो सोचा, जाते-जाते शाकिर की कब्र पर जरा सिजदा करता हुआ जाता हुँ। देखा तो कब्रिस्तान ही नहीं है। उसने लोगों से पूछा:’’ क्या हुआ, कब्र को कैसे पर (पंख) लग गये? बोले:’’ जलजला (भूकम्प) आया था, पूरा कब्रिस्तान गायब हो गया। अब उसी कब्रिस्तान पर बड़ी-बड़ी इमारते खड़ी है। हे संसार! तू एक पल भी बदले बिना नहीं रहता और हे नासमझ मनुष्य! तू उसको स्थिर रखने में अपनी कई जिंदगीयाँ कर चुका है। मेरी जवानी बनी रहे, मेरा यश बना रहे, मेरी पदोन्नती बनी रहे, मेरा पद बना रहे श्वास-श्वास में तू बिगड़ता जा रहा है, फिर तेरा क्या बना रहेगा भाई !
ऐ गाफिल ! न समझा था, मिला था तन रतन तुझको।
मिलाया खाक में तूने, ऐ सजन ! क्या कहूँ तुझको?
अपनी वजूदी हस्ती में तू इतना भूल मस्ताना।
करना था किया वो न, लगी उलटी लगन तुझको।
अपने आत्मा-परमात्मा को पाना था, वह नहीं किया। जिसको छोड़ जाना है उसी के पीछे लगा रहा। उसी की परीक्षा पास की। उसी के पीछे सर-सर करके सर-खोपड़ी एक कर दी। और जिनको सर-सर कहता है, उनका न सिर रहा। कौन सी निशा में तू सो रहा है? संत तुलसी दास ने ऐसे लोगों को झकझोरा है:
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा।
देखिअ सपन अनेक प्रकारा।।
(श्री रामचरित मानस)
मैं विद्यार्थी  हुँ। वह दिन आयेगा मैं स्नातक हो जाऊँगा। वह दिन आयेगा जब बड़ी नौकरी पाऊँगा, आईएएस बनूँगा। मकान होगा, शादी होगी, गाड़ी होगी, सुखद दिन होगें। अरे! जब ये दिन आएगें तो जाएगें भी। अभी नहीं है तो बाद में भी नहीं रहेगें। विश्वनियंता परमात्मा सत्स्वरूप, आनंदस्वरूप, शुद्ध-बुद्ध ब्रह्म तुम्हारा होकर बैठा है और तुम बीते हुए का शोक करके परेशान हो रहे हो, भविष्य का भय करके भयभीत हो रहे हो और वर्तमान मेंयह चला ना जायऐसा सोच के भयभीत होकर उसके पिट्ठू बन रहे हो। अरे! जो अवस्था आयेगी वह तो जायेगी। डरने की क्या जरूरत है? फिर नया आयेगा। यह शरीर जायेगा तो फिर नया मिलेगा, नहीं मिला तो मुक्ति हो जायेगी। ये बातें तुम नहीं जानते हो इसलिए खामखाह परेशान, खामखाह भयभीत, खामखाह शोकातुर, चिंतित और खामखाह बीमार हो रहे हो। बन जाओ तुम भी शाकिर।
तेरा भाणा मीठा लागे। इतना ही तो समझना है।
अपमान हुआ, वाह-वाह! मान हुआ, वाह-वाह!
जो कुछ आया, वाह-वाह! बीत रहा है, बह रहा हैवाह-वाह!
ऐसा हुआ, ऐसा होना चाहिए, तू फिकर न कर, फरियाद न कर वाह-वाह! कर बस।
क्योंकि देने वाल तू ही है। माँ के गर्भ में दूध की व्यवस्था तूने की थी। माँ की जेर के साथ हमारी नाभि जोड़ना तेरी कला-कुशलता है वाह! वह!! मेरे रब ! मेरे प्रभु ! मेरे प्यारे ! बस यह सीख जाओ, मौज हो जायेगी।
वर्तमान समय हुआ तो आपका भूतकाल रसमय और भविष्य भी आयेगा तो वर्तमान के रस में रसीला हो के आयेगा। बहुत मौज हो जायेगी।

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