सम्पूर्ण शरीर में मुख्य रूप से प्राण
वायु स्थित है। यहीं प्राण वायु शरीर के विभिन्न अवयवों एवं स्थानों पर
भिन्न-भिन्न कार्य करती है। इस दृष्टि से उनका नाम पृथक-पृथक दिया गया है। जैसे-
प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। यह वायु समुदाय पांच
प्रमुख केन्द्रों में अलग-अलग कार्य करता है। प्राण स्थान मुख्य रूप से हृदय में
आंनद केंद्र (अनाहत चक्र) में है। प्राण नाभि से लेकर कठं-पर्यन्त फैला हुआ है।
प्राण का कार्य श्वास-प्रश्वास करना, खाया
हुआ भोजन पकाना, भोजन के रस को अलग-अलग इकाइयों में
विभक्त करना, भोजन से रस बनाना, रस से अन्य धातुओं का निर्माण करना है।
अपान का स्थान स्वास्थय केन्द्र और शक्ति केन्द्र है, योग में जिन्हें स्वाधिष्ठान चक्र और
मूलाधर चक्र कहा जाता है। अपान का कार्य मल, मूत्र, वीर्य, रज और गर्भ को बाहर निकालना है। सोना, बैठना, उठना, चलना आदि गतिमय स्थितियों में सहयोग करना है। जैसे अर्जन जीवन के लिए
जरूरी है, वैसे ही विर्सजन भी जीवन के लिए
अनिर्वाय है। शरीर में केवल अर्जन की ही प्रणाली हो, विर्सजन के लिए कोई अवकाश न हो तो व्यक्ति का एक दिन भी जिंदा रहना
मुश्किल हो जाता है। विर्सजन के माध्यम से शरीर अपना शोधन करता है। शरीर विर्सजन
की क्रिया यदि एक, दो या तीन दिन बन्द रखे तो पूरा शरीर
मलागार हो जाए। ऐसी स्थिति में मनुष्य का स्वस्थ्य रहना मुश्किल हो जाता है। अपान
मुद्रा अशुचि और गन्दगी का शोधन करती है।
विधि-- मध्यमा और अनामिका दोनों अँगुलियों
एवं अंगुठे के अग्रभाग को मिलाकर दबाएं। इस प्रकार अपान मुद्रा निर्मित होती है।
तर्जनी (अंगुठे के पास वाली) और कनिष्ठा (सबसे छोटी अंगुली) सीधी रहेगी।
आसन-- इसमें उत्कटांसन (उकड़ू बैठना) उपयोगी
है। वैसे सुखासन आदि किसी ध्यान-आसन में भी इसे किया जा सकता है।
समय-- इसे तीन बार में 16-16 मिनट करें। 48 मिनट का अभ्यास परिर्वतन की अनुभूति
के स्तर पर पहुँचाता है। प्राण और अपान दोनों का शरीर में महत्व है। प्राण और अपान
दोनों को समान बनाना ही योग का लक्ष्य है। प्राण और अपान दोनों के मिलन से चित्त
में स्थिरता और समाधि उत्पन्न होती है।
लाभ—
शरीर और नाड़ियों की शुद्धि होती
है।
मल और दोष विसर्जित होते है तथा
निर्मलता प्राप्त होती है।
कब्ज दूर होती है। यह बवासीर के लिए
उपयोगी है। अनिद्रा रोग दूर होता है।
पेट के विभिन्न अवयवों की क्षमता
विकसित होती है।
वायु विकार एवं मधुमेह का शमन होता है।
मूत्रावरोध एवं गुर्दों का दोष दूर
होता है।
दाँतों के दोष एवं दर्द दूर होते है।
पसीना लाकर शरीर के ताप को दूर करती
है।
हृदय शक्तिशाली बनता है।
विशेष -- एक्युप्रेशर के अनुसार इसके दाब केंद्र
बिंदु श्वासनली तथा आमाशय के रोग दूर करते है पेशाब संबंधी दोषों को यह दूर करती
है। यह मुद्रा दोनों हाथ से करनी है। उससे पूर्ण लाभ उठाया जा सकता है। किसी कारण
से एक हाथ दूसरे कार्य में लगा हुआ हो तो एक हाथ से भी मुद्रा की जा सकती है।
दोनों हाथों से करने में जितना लाभ है उतना एक हाथ से प्राप्त नहीं होता है। किन्तु
फायदा अवश्य होता है। प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान वायु के दोषों का परिष्कार अपान मुद्रा से किया जा
सकता है।
नोट-- इस मुद्रा से मूत्र अधिक आ सकता है।
इससे डरने की आवश्यकता नहीं है।
(’मुद्रा रहस्य से साभार)
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